सदिया गुजर ग ई।
खत्म ना हुआ,
नारी का लाकडाउन।
घर के भीतर ,और उसमे भी पर्दा।
रहती आई ,सिसक सिसक।
पर मजाल वह बाहर आती।
या उडने को है.मचलती।
बाबुल के घर भी अंदर रहती।
और ससुराल मे.भी है तडफती।
कभी देखा था ,उसवक्त ये हाल।
चुल्हा जलता था, भीषण गर्मी मार।
पूरे शरीर पर फफोले.से रहते।
फिर मुस्कुराती ,भोजन बनाती।
घर के अंदर और घूंघट मे।
दस दस किलो.मिर्च है कुटती।
और देखो कैसे घट्टी.मे।
ये दोनो हाथो आटा है.पीसती।
लाकडाऊन, शक्त पहरा ससुर का।
ना जरा भी आराम कर.पाती।
कोख मे बच्चा.हो फिर भी।
कैसे ये. पनघट पानी है.भरती।
वाह री.नारी.,तू. रहे। सलामत।।
कितनी चोट तू सहती.रहती।
पर.फिर भी लब लाल है.रहते।
और सुंदर यह.मुरत लगती।
श्रीमती ममता वैरागी.तिरला धार
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
श्रीमती ममता वैरागी.तिरला धार
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