सुबोध कुमार

करोना बनाम मनुष्य


अब मृत्यु की आहट घेर रही है
पल-पल  इस  अवनी तल को


घनघोर घटा है फैली  भय  की
कैसा शोर डरा रहा है जल को


 ह्रदय कंपकंपा गए अब वीरों के
देख कर आज ऐसे दृश्य भयावह


अंबर भी  भयभीत  है  इस पल
देखकर  मृत्यु के  इस  बल  को


क्यों  चिंतित  सी है चारों  दिशाएं
लपट देती हवाएं आज अनल को


किसने किया  घायल आज लहू से
इन माताओं की ममता के आंचल को


कांपती है धरा  पाप के  बोझ से
सुनते तो आए थे किंबदंतीयों में


आज  धरती भी थकी है शायद
 ढोते  ढोते मानवता के छल को


आश्वस्त था मानव मादकता में
आंक रहा था विराट अपने बल को


प्रकृति ने दूर दंभ किया है उसका
बिन शास्त्रों माप रही है मानव दल को


कितना निर्बल अनुभव कर रहा है
आज मनुष्य ढूंढता है एक संबल को


यम कर रहे हैं अब तो आह्वान
मृत्यु के घनघोर इस तांडव का


भ्रमित  कर रही है अबतो  प्रकृति
मानव  विज्ञान और बुद्धि बल को


आओ  मिलकर संकट की इस बेला में
शीष नवाएं अपने और करे प्रार्थना


महादेव ही पी सकते हैं  अब  यह
प्रकृति मंथन के इस महा गरल को


             सुबोध कुमार


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