कविता:-
*" अतिथि"*
"अतिथि तुम अतिथि हो ,
मत आना अभी तुम-
कर न पायेगें सत्कार तुम्हारा।
अपनी और अपनो की रक्षा को,
अतिथि अभी घर में ही रहना-
सुरक्षित रहना होगा उपकार तुम्हारा।
कुछ दिनों की बात हैं साथी,
बदलेगे हालात-
मिलन होगा हमारा तुम्हारा।
दूर रहकर भी साथ है ,
मिलन की रहे आस -
हृदय हो प्रभु वास तुम्हारे।
सत्य है साथी अतिथि देव तुल्य,
देवत्य की खातिर.ही -
घर में रहना जरूरी अतिथि तुम्हारा।
अतिथि तुम अतिथि हो,
मत आना अभी तुम-
कर न पायेगे सत्कार तुम्हारा।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःः
29-04-2020
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
▼
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511