कविता:-
*"लहज़ा"*
"दौलत के अभिमान में साथी,
बदल जाता-
अपनो का लहज़ा।
अपने-बेगाने बन जाते साथी,
बेगाने अपने-
दौलत का नशा और लहज़ा।
भूल जाता जीवन साथी,
कौन-अपना-बेगाना-
बस अपनी-अपनी कहता।
मैं ही मैं में खोया रहता साथी,
कटुता होती वाणी में-
भूल जाता सभ्यता का लहज़ा।
सभ्यता की दहलीज़ पर साथी,
हो मृदु वाणी-
सार्थक हो जीवन और लहज़ा।
दौलत के अभिमान में साथी,
बदल जाता-
अपनो का लहज़ा।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunil 02-04-2020
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनील कुमार गुप्ता
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