लोग सतही रहे हैं....
वक़्त की मार से असि रहें हैं.
गुजरते लम्हों में जी रहें हैं.
बहुत दंश झेले हैं अब तलक,
हर पल अपने अश्क़ पी रहें हैं.
अब वो दूर से निकलते हैं,
जो अपने करीब कभी रहें हैं.
हम ही क्यों गुनहगार बन गए,
गुनाह के साथी तो सभी रहें हैं.
मौके पर लोग बदलने लगे,
रिश्ते भी जैसे मौसमी रहे हैं.
किस बात पर तनी पता नहीं,
कुछ वाकये गलतफहमी रहे हैं.
आदतों से पता नहीं चलता,
कहने को तो आदमी रहे हैं.
ऊपर से निगाह डाली तो क्या,
वो स्वभाव से सतही रहे हैं.
तुम ही गलत हुए हो "उड़ता ",
बाकी तो लोग सही रहे हैं.
स्वरचित मौलिक रचना.
द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता "
झज्जर (हरियाणा )
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