ग़ज़ल---
क्यों अकारण कर रहा मनुहार है
बात तेरी हर मुझे स्वीकार है
मेरे होंठो पर तुम्हारी उंगलियाँ
मैं समझता हूँ यही तो प्यार है
तेरा यह कहना तुम्हें मेरी क़सम
मुझ अकिंचन को यही उपहार है
बात तेरी मान तो लूँ मैं मगर
सामने मेरे अभी संसार है
दे दिया जीने का मुझको रास्ता
तेरा यह कितना बड़ा उपकार है
है तुम्हारा नाम ही हर श्वाँस पर
अब तो जीवन का यही आधार है
मन की बातें मानूँ या मष्तिष्क की
हर तरफ़ मेरे लिए मझधार है
मैं तुम्हारा नाम लेना छोड़ दूँ
मन पे *साग़र* अब कहाँ अधिकार है
🖋विनय साग़र जायसवाल
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