ग़ज़ल-दो काफ़ियों में---
आजकल इंसान में हैवानियत होने लगी
देखकर यह माजरा इंसानियत रोने लगी
जिस तरफ़ देखो उधर ही वहशियों की बाढ़ है
कैसे-कैसे बीज यह शैतानियत बोने लगी
धर्म की चादर लपेटे घूमते हैं सरफिरे
अब तो अपनी आकबत रूहानियत खोने लगी
प्यार की सौगात भी लेना समझ कर दोस्तो
पाप की अब गठरियाँ रूमानियत ढोने लगी
ज़ुल्म पर उंगली उठाता ही नहीं कोई यहाँ
आबरू अपनी ही ख़ुद वहदानियत खोने लगी
जो हैं ज़िम्मेदार वो अपनी ख़ुदी में हैं लगे
रफ़्ता-रफ़्ता हर तरफ़ मूमानियत सोने लगी
इस कदर बदली हुई है मौसम-ए-नौ की फ़िज़ा
उम्रे-नौ की परवरिश मासूमियत खोने लगी
तेरी ग़ज़लें पढ़ के *साग़र* बंद आँखें खुल गईं
अपने सर का मैल अब इंसानियत धोने लगी
🖋विनय साग़र जायसवाल
वहदानियत--एकतत्व ,अद्वैतवाद
आकबत--मृत्यु पश्चात प्राप्त होने वाला लोक ,मृत्युलोक
12/10/2005
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