डॉक्टर धारा बल्लभ पांडेय 'आलोक' अल्मोड़ा, उत्तराखंड

श्रृंगार रस पर मेरी


कविता- मुरली मनोहर


विधा- दुर्मिल सवैया छंद।


 


सिर मोर किरीट मनोहर सी, छवि साँवरिया अति शोभित है।


घन बीच जु दामिनि दंत छटा, मुख बिंब सुचंद्र ‌ सुशोभित है।


सिर बाल घटा मुख में बिखरे, शुभ कानन कुंडल शोभित है।


अधराधर बाँसुरी धारण ज्यों, मुख पुष्प अली मन मोदित है।।


 


कटिबंध मनोहर पैजनि पाद, निहार रहे पथ श्याम हरी।


छवि श्यामल मोहन मोहक सी, पटपीत धरे गलमाल धरी। 


मधु सी मुसकान मनोहर है, हरि सुंदरता अति प्रेम भरी।


यमुना तट श्याम खड़े दरसे, मुरलीधर राधिक ध्यान धरी।।


 


 डॉक्टर धारा बल्लभ पांडेय 'आलोक'


अल्मोड़ा, उत्तराखंड।


दीपक "कविबाबु" मुज०(बिहार

नमन मंच


दिनांक 30 मई 2020


विषय आंखें


 


तुम्हारे आंखों को इंतजार है किसी का


खबरदार! अगर कोई रोका तो


संकुचित विषम परिस्थिति में भावना को


कोमल कली सी खिलती अंतर्मन


इस जग में मेरा भी कोई अपना होता तो


 


मेरी आंखें कुछ निहार रही है


स्वप्न में तुम्हारी चित्र उतार रही है


रोती_ बिलखती तुम्हें पुकार रही है


खुद को खुद ही यह संवार रही है


 


मेरी आंखों से तुम्हारी आंखों तक


अनबुझी पहेली सी एक बातों तक


राहों में तुम्हारी राह देखकर


अपनी पलकों को भींगा रही है


 


उठता प्रश्न आंखों का कसूर कौन है?


अब इस जहां इन वादियों में


अनजान कातिल वह वेकसूर कौन है?


 


दीपक "कविबाबु"


मुज०(बिहार)


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मालिक तेरे हाथ में है जिंदगी की गाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूँ अनाड़ी।।


 


कामी बन घूम रहा हूं मैं तो जग में स्वामी।


मोह जाल में बंधकर भूला अंतर्यामी।।


 


दुर्गम पथ है जीवन के रहूँ न नाथ पिछाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूं अनाड़ी।।


 


सदा मंजिल की ओर बढूं हिय में तेरा नाम।


हार जीत की परवाह नहीं यदि मिलें सुखधाम।।


 


राधा कृष्ण के स्मरण की मिलती रहे दिहाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूं अनाड़ी।।


 


सत्य जीवन के हिय मर्म तुम्हीं हो नारायण।


हर सांस समर्पित कर मैं करूं नाथ परायण।।


 


मनमोहन की मूरत रहे सदा नयन अगाड़ी।


दुःख से रखो या सुख से मैं तो हूं अनाड़ी।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः💐💐💐💐💐👏👏👏👏👏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


माहेश्वरी विष्णु असावा              बिल्सी जिला बदायूँ

आज माहेश्वरी वंशोत्पत्ती दिवस की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं


 


उत्पत्ति का दिवस हमारा प्रभु ने हमें बनाया


हर उत्सव से बढ़कर हमने अपना पर्व मनाया


 


है महेश नवमी की तिथि ये हमें हर्ष है भारी


इसी दिवस से सींची प्रभु ने माहेश्वरी क्यारी


 


हैं सन्तान महेश्वर की महेश्वरी कहलाये


नगर-नगर और देश-देश में विश्व पटल पर छाये


 


इक्यावन सौ त्रेपनवाँ ये बर्ष लगा है आकर


गर्व से फूले नहीं समाते इस समाज को पाकर


 


शिवशंकर हैं जनक हमारे दक्ष सुता महतारी


इनके ही तो आशिष से ये फूल रही फुलवारी


 


बैसे हम भोले भाले सबका आदर करते हैं


आ जाये जब बात मान की नहीं कभी डरते हैं


 


सेवा त्याग अरु सदाचार का रस्ता हम अपनाते


हर बूड़े अरु बड़े वृद्ध को झुककर शीश नवाते


 


उनका जब आशीष मिले हम गद्-गद् हो जाते हैं


प्रेम प्यार के गीत खुशी में मद होकर गाते हैं


 


दीप जलाके लगाके चन्दन हम वन्दन करते हैं


शिवशंकर भगवान तुम्हारा अभिनन्दन करते हैं


 


जय महेश जय महेश्वरी का नारा प्रबल हुआ है


बनी रहे अनुकंपा सब पर प्रभु से यही दुआ है


 


शुभकामनाएं इन शब्दों के साथ-साथ स्वीकारो


सामाजिक बन्धू सब मिलकर अब दीपों को वारो


 


सबसे है अनुराग हमें हर कोई हमको प्यारा


भारत का हर प्राणी अपना भारत देश हमारा


 


🌹🙏🏻🙏🏻🌹🌹🙏🏻🙏🏻🌹🙏🏻🙏🏻🌹


 


           माहेश्वरी विष्णु असावा


             बिल्सी जिला बदायूँ


साहित्य समाचार

 


संस्कार भारती गाजियाबाद द्वारा ऑनलाइन अखिल भारतीय कविसम्मेलन विभाग संयोजक डॉ राजीव पाण्डेय के संयोजन में किया गया जिसकी अध्यक्षता दिल्ली के जाने माने गीतकार श्री ओंकार त्रिपाठी ने की।


श्रीमती कल्पना कौशिक की माँ वाणी वंदना से कवि सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। उसके बाद उनकी कविता की कुछ पंक्तियां इस प्रकार रहीं


मैं समय हूँ तुम्हारा संभालो मुझे।


घट रहा हूँ मैं पलपल बचालो मुझे।


कविसम्मेलन के संयोजक डॉ राजीव पाण्डेय ने देश भक्ति से ओतप्रोत मुक्तक पढ़ा


नासूर मिटाया है फिर भी, प्रश्न अधूरा लगता है।


झंडा शासन अपने पर भी, जश्न अधूरा लगता है।


जब से हटी तीन सौ सत्तर,अन्तर्मन है खुश लेकिन,


पाक अधिकृत कश्मीर बिना,स्वप्न अधूरा लगता है।


पिलखुआ से श्री अशोक गोयल ने कोरोना विषय पर पढ़ा


कोरोना घातक है लेकिन घबराना तो ठीक नहीं, 


लापरवाही से यहाँ वहाँ पर आना जाना ठीक नहीं l


कवि सम्मेलन के अध्यक्ष श्री ओंकार त्रिपाठी ने विशुद्ध साहित्यिक गीत पढ़ते हुए कहा


जलधि में डूबने का नाम जीवन है। 


जलधि के ज्वार-भाटे मत गिनाकर तू।


युवा कवयित्री गार्गी कौशिक ने माँ विषय पर गीत में भाव व्यक्त किये


जब से तुझको देखा दिल मे प्यार पले।


तेरे आ जाने से दिल के द्वार खुले।


नोयडा के दीपक श्रीवास्तव की इन पंक्तियों पर काफी प्रशंसा मिली


जाने क्यों ढूंढे अनन्त को,


जब तक है प्राणों का बन्धन।


बड़ौत से सुरेन्द्र शर्मा 'उदय' की इन सारगर्भित पंक्तियों को काफी सराहना मिली


नदियाँ थी मेरी सूखकर तालाब हो गई।


आदमी की सोच ही खराब हो गई।


पिलखुआ से इंद्रपाल सिंह ने कहा


दूर है मंजिल अभी पर हौसला जाने न पाए ।


रात काली है ये माना ग़म कहीं छाने न पाए।


हैदराबाद से मंजू भारद्वाज की श्रृंगार में पढ़ा


प्रेम की हद पर एक लकीर खींच दी हमने,


उस हद से गुजरने की कोशिश न करना।


शामली के कवि पंडित राजीव भावज्ञ का मुक्तक की दो पंक्तियां दृष्टव्य हैं


 वाणी में अभिव्यक्ति का संसार है।


डूबते-मन के लिए पतवार है।।


गाजियाबाद के ग़ज़लकार श्री सुरेन्द्र शर्मा के शेर काफी सराहे गये।


हरिद्वार,मक्का,ननकाना जो जाते हैं जाएं वे


हमको तो बच्चों की आंख में सारे तीर्थ दीखें हैं।


संस्कार भारती मेरठ प्रांत के सह महामंत्री श्री चन्द्रभानु मिश्र, जिला संयोजक डॉ जयप्रकाश मिश्र, महासचिव डॉ अनिल वशिष्ठ, सह सचिव सोनम यादव, ममता राठौर,अतर सिंह प्रेमी, लोनी रीता जयहिंद,रचना वानिया, मेरठ, राजेश मंडार,बागपत,शशि त्यागी अमरोहा आदि कवियों के गीत ग़ज़ल छंदों ने कवि सम्मेलन में चार चाँद लगा दिए।


कवि सम्मेलन का संचालन अनुपमा पाण्डेय भारतीय और नन्द किशोर सिंह 'विद्रोही' ने संयुक्त रूप से किया। कार्यक्रम के संयोजक डॉ राजीव पाण्डेय ने धन्यवाद ज्ञापित किया।


प्रेषक


 डॉ राजीव पाण्डेय


विभाग संयोजक


संस्कार भारती गाजियाबाद


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बासुरी बेसुरी हो गयी ,पंखुड़ी गुलाब कि कटीली हो गयी ।      


सुर बेसुरा हो गया ,साज सब सजा हो गयी ।।                    


गीत ,ग़ज़ल , संगीत उबाऊ हो गयी । इंसान बेजार ,जिंदगी बंजर हो गयी।।                         


 


जिन्दा है रिश्तों कि बेवफाई हो गयी।


कहर का करिश्मा रिश्ते, नाते जहाँ ,जमाना हो गया बेगाना ।


पास नहीं क़ोई आता जिस्म को हाथ नहीं क़ोई लगाता । 


 


पैदाइश बेकार हो गयी जिंदगी जान कि बेजान हो गयी।।       


 


खौफ है ख़ास का ही खास से मिट जाना। तन्हाई कि परछाई मौत से बड़ी हो गयी । इंसा ,इंसा का कातिल कभी हथियार कि धार से कभी जबान कि तलवार से करता एक दूजे का कत्ल ।                            


इंसा दो धार हो गया जिंदगी जज्बात कि मार हो गयी।।


जिन्दा जिस्म से क़ोई रिश्ता नहीं निभाता।                                  


रिश्तों का मिज़ाज़ बदल गया है रिश्तों का समाज बदल गया है। इंसान खुद का जिन्दा लाश ढो रहा है, जिंदगी बोझ बन गयी है।।


 


कितना बदल गया है इंशा,और क्या बदलना है बाकी ।     


 


इंसान बदलने का रियाज कर् रहा है। दिलों के दरमियां प्यार ,मोहब्बत का एहसास अभी बाक़ी। 


 


मिलने जुलने का रस्म ,रिवाज हुआ ख़ाक । एहसास ही रह गया बाक़ी 


व्यवहार हुआ साफ़। 


इंसा फड़फड़ा रहा निन्दगी जंजाल बन गयी है।।


 


एहसास अजीब जज्बा इंसा हैरान परेशान है । बदल रहे मिज़ाज़अब शक्लों के बदल गए शाक ।     


इंसा ताकत कि साक कि तलाश में भटकता। बैठ रहा शाक कि ख़ाक पर यकीन एतबार लूट रहा है।  


 


इंसान का मौजू बदल गया जिंदगी मायने ढूढ़ती है।।


                            


 


खौफ मंडरा रहा है ,इंसान इधर उधर भाग रहा है।   


 


शहर छोड़ कर गांव में आया ,गावँ छोड़ कर अब जाना किधर है। इंसा मझधार में फंस गया है जिंदगी तूफ़ान में जनजाल बन गयी है।।


 


कायनात भी खामोश गवाही दे रही है जहाँ में इंसा कि तबाही देख रही है ।                      


जन्नत ,दोजख दोनों ही जहाँ में इंसान के करम का करिश्मा कह रही है। चमन में बहार बागों में फलों से लदे डाल । सुबह भौरों का फूलों कलियों कि गली में गुंजन गान ।            


कोयल कि कु कु मुर्गे कि बान कहानी लग रही है। दहसत में है इंसा जिंदगी खुद के जाल में फंस गयी है।   


 


सुबह सूरज कि लाली कि चमक दमक दब रही है।                


 


कागा ,श्वान ही दीखते है आम जहाँ में रौनक कि सुबह शाम।


 


च्मगाधड़ कि मार पड़ रही है। इंसान है घायल जिंदगी कराह रही है।।


                                                                            शेर हुये ढेर अब गीदड़ ही शेर बहुत है शोर।   


 


जिंदगी थम गयी है सांस धड़कन की जिंदगी कट रही है। 


 


फिजाओ कि हवाओ में है जहर जहर ही जान बन गयी है।    


 


इंसान हो गया जहरीला जिंदगी ठहर गयी है ।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


निशा"अतुल्य"

*राधिका*


31.5.2020


 


राधिका तूने सृष्टि रचाई 


सृष्टि रचाई तूने तेरे मन भाई ...2


सृष्टि रचा के तू मेरे मन भाई 


राधिका तूने सृष्टि रचाई 


 


सुन्दर चाँद तारे,धरती निहारें


सूरज की बिंदिया झलकारे


फिर हो सब के आधीन,मेरे मन भाई


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


अन्न उपजाती फूलती फलती


धीर गम्भीर तुम हो पृथ्वी सी


पालन किया तूने,मेरे मन भाई 


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


निर्मल जल बन बहती रहती 


कभी यमुना सी कभी गंगा सी


प्यास बुझाई तूने मेरे मन भाई


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


प्राण वायु सी बन कर बहती 


निर्मल चित तन सुन्दर करती 


जीवन प्राण दिया तूने, मेरे मन भाई


राधिका तूने सृष्टि रचाई ....


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


डॉ हरिनाथ मिश्र

एक प्रयास 


क़ुदरत का है कमाल या इंसान का फ़ितूर।


होता है प्यार कैसा बता दो मेरे हुज़ूर??


          मत तोड़ना कली को चटका के मेरे यार।


          है क़ाबिले दीदार कोमल कली का नूर।।


जीवन का रंग बसंती हो जाए तो बेहतर।


इसकी ही है जरूरत यही मुल्क़-ए-ग़ुरूर।।


         होता नहीं हासिल है कुछ,आँसू बहाने से फ़क़त।


         जंग-ए-आज़ादी का बस है त्याग ही दस्तूर।।


माली बग़ैर गुलशन तो रहता नहीं है खाली.


डूबा हुआ ये सूरज निकलेगा फिर जरूर।।


         कहता है छोटा दीपक सुन लो ऐ आफ़ताब।


         रहता मेरा है क़ायम बदली में भी सुरूर।।


देके ज़रा सा ध्यान अब तो सुन लो नामदार।


चहिए अमन व चैन को बस एकता भरपूर।।


                           ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                              9919446372


संजय जैन (मुम्बई

*रात हो या सवेरा*


विधा: कविता


 


दर्द की रात हो या, 


सुख का सवेरा हो...।


सब गंवारा है मुझे, 


साथ बस तेरा हो...।


प्यार कोई चीज नहीं,


जो खरीदा जा सके।


ये तो दिलो का,


दिलो से मिलन है।।


 


प्यार कोई मुकद्दर नहीं,


जिसे तक़दीर पे छोड़ा जाए।


प्यार यकीन है भरोसा है,


जो हर किसी पर नहीं होता।


मोहब्बत इतनी आसान नहीं,


जो किसी से भी की जाएं।


ये तो वो है जिस पर,


दिल आ जाएं।।


 


चूमने को तेरा हाथ,


जो में तेरी ओर बढ़ा।


दिलमें एक हलचल सी,


मानो मचलने लगी।


क्या पता था आज,


की क्या होने वाला हैं।


ये तो अच्छा हुआ,


कि कोई आ गया।।


 


वरना दो किनारों का,


आज संगम हो जाता।


और मोहब्बत करने का,


अन्जाम सभी को दिखता।


दर्द का इलाज यारो,


दर्द ही होता है।


जो दर्द को सह जाते है,


वो ही मोहब्बत कर पाते है।।


 


पता नहीं लोग मोहब्बत को,


क्या नाम देते हैं…।


हम तो तेरे नाम को ही,


मोहब्बत कहते हैं…।


हर उलझन के अंदर ही,


उलझन का हल मिलता है।


कोशिश करने से ही,


सुंदर कल मिलता है।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


31/05/2020


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

"मन ठहरा मन बहता"


मन की गति न जाने कोई


जो जाने सो योगी होई


मन्थर चले पवन ज्यों बहती


मन भी उड़े संग ज्यों तितली


मन पर चले न कोई शासन


ध्यान, योग लाये अनुशासन


मन बहता सरिता सम पल-पल


ठहरे तो बन जाये जड़ सम


चंचल, चपल है मन अभिमानी


कसै डोर तो बने वो ज्ञानी


इत -उत उडै फिरै भँवरा सा


एक पल ठहर होए पगला सा


बहता मन प्रतिपल सुख बाँटे


ठहरा मन देखे न आगे


बहता मन स्वच्छन्द विचरता


ठहरे मन प्रभु भजन मैं रमता


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--दो काफ़ियों में


 


अगरचे इक घड़ी को मेरी यह तदबीर सो जाती 


किसी की ज़ुल्फ़ ही मेरे लिए ज़ंजीर हो जाती 


 


कहीं भी चैन से रहने नहीं देती है यह ज़ालिम


ये तेरी याद जो हर दिन नई इक पीर बो जाती


 


हमारे प्यार का छप्पर कभी यह गिर नहीं पाता 


निगाह-ए-यार गर  बनकर खड़ी शहतीर हो जाती 


 


ये आहों की नदी बहने न दी आँखों से यूँ हमने 


क़िताब-ए-दिल पे यह लिक्खी हुई तहरीर धो जाती 


 


किसी के हुस्न की रानाइयों में यूँ नहीं डूबे 


यही था डर हमें तेरी कहीं तस्वीर खो जाती


 


हमीं ने तोड़ दी तक़दीर की ज़ंजीर ऐ- *साग़र*


वगरना उम्र भर  इंसान की तदबीर सो जाती 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल         महराजगंज, उत्तर प्रदेश

शीर्षक - नशा 


 


नशा करे जो आह भरे,


लग जाये जीवन पे विराम


प्रेम पिलाया जो पिये


नशा करे हर सुबहे शाम।


 


कश लेने पे लगाओ विराम,


जप रघुपति राघव राजा राम।


 


क्यों करते हो नशा डटकर,


लिये हाथ में लिये साथ।


संकट जब बढ़ जायेगा


कैसे दोगे अपनों का साथ।


 


जीवन से मुक्त हो जाओगे,


साथ नहीं देंगे ऐसे में राम।


 


परिवारों पर दो तुम ध्यान, 


रटते रहो राम का नाम।


लेते रहोगे जब कश पर कश


नहीं मिलेगा कहीं सम्मान।


 


नहीं करोगे ढंग से काम,


बदहाली धायेगी हर सुबहे शाम।


 


जीवन है अनमोल तुम्हारा


बनो किसी का तुम सहारा


छोड़ो अपनी बुरी आदतें


नशा न हो अब तुमको प्यारा।


 


फ्री में हो जाओगे ऐसे बदनाम,


मिलेगा नहीं फिर कभी सम्मान।


 


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


 


        महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" नई दिल्ली

दिनांकः ३१.०५.२०२०


दिवसः रविवार


विधाः गज़ल


शीर्षकः कमसीन ख्वाव


तुम मेरी ख्वाईशें अरमान मेरे,


तुम नशा जीवन बनी गुल्फा़म मेरे,


कर मुहब्बत मुझी से इतरा रही हो,


बफाई मझधार में तरसा रही हो।  


 


पड़ी थी दिनरात प्रिय के विरह में,


बन चकोरी सावनी अश्रु भर नयन में,


बिन पानी मीन सम तड़पती रही हो,


प्यार की रुख्सार समझती नहीं हो।


 


 माना तुम कमसीन ख्वाव हो मेरे,


 कुदरती नूर दिली दिलदार हो मेरे,


 पिलाई नशीली जाम जानती हो,


 इश्क के शागिर्द हम तुम मानती हो। 


 


 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक (स्वरचित)


नई दिल्ली


प्रखर दीक्षित* *फर्रुखाबाद

*मुक्तक*


 


*ये बाट कौन सी*


 


भाव उर में प्रवर प्रेम शब्दों में भर, लेखनी तव गढ़े क्या श्रृंगार ये ।


दृग मदिर अधखुले नेह उर में पले, तिय अधर पिय पढ़े क्या उद्गार ये।।


स्वप्न दिन में दिखें गीत प्रणयन लिखें, अंध पथ पग बढ़े ये बाट कौन सी,


कोई सुने जो कहे प्रीत पिऊ संग बहे, हम विलोमित लड़े क्या प्रतिकार ये।।


 


*प्रखर दीक्षित*


*फर्रुखाबाद*


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

*नहा रही है चिड़िया*


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बरखा रानी जम कर बरसों


देखो नहा रही है चिड़िया


जोर जोर से चू चू करती


खुशियां मना रही है चिड़िया।


 


इस चिड़िया की यही कहानी


जब भी बरसे जरा सा पानी


उड़ कर जल्दी से छत पर जाती


झट से नहा कर तुरन्त आ जाती।


 


मेघ गरजे मोर भी नाचे


सब खुशियों के गीत भी गाए


चिड़िया भी अपना गान सुनाएं


झट पट -झट पट चिड़िया नहाएं।


 


आज प्यासी धरा भी खुश है


पेड़ पौधे सभी सभी खुश हैं


जब भी सब चिड़िया को देखें


सभी कहे नहा रही है चिड़िया।


 


कितनी सुन्दर लग रही है


यह धरती और अम्बर


काले काले मेघों में भी


देखो नहा रही है चिड़िया।।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


अविनाश सिंह* *लेखक*

🌱🌱 *हाइकु*🌱🌱


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धरती माता


होती अन्न की दाता


क्यों बेच खाता।


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कोरोना युद्ध


परमाणु है फैल


प्रकृति खेल।


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सबने कहा


सब कुछ है पास


शांति विनाश।


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धन की भूख


तन से मिले सुख


रहना दूर।


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मन की शान्ति


खुले आसमान में


न शहर में।


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ट्रैन में मौत


सब ओढ़े चादर


है बेखबर।


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वर्षा का जल


दे मन को शीतल


जग निर्मल।


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दुर्गा पूजते


घर में है पीटते


मर्द बनते ₹।


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बेटी का जन्म


फैल गया सन्नाटा


चिंता सताता।


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दिया है सोना


फिर भी जोड़े हाथ


बेटी का बाप।


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दहेज भय


पिता को है सताये


उम्र घटाए।


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बेटी का दर्द


समझती है अम्मा


वह भी बेटी।


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मन मंदिर


होते है स्वच्छ द्वार


भर दो प्यार।


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*अविनाश सिंह*


*लेखक*


रवि रश्मि 'अनुभूति 'मुंबई

9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


 


   🙏🙏


 


  श्रीपद छंद 


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परिचय --- द्वादशाक्षरावृत्ति ( जगती )


गण संयोजन ----


   न त ज य


यति ---- 4 , 8 


विशेष ---- प्रति दो चरण समतुकांत ।


111 2 , 21 121 122


 


जग सखा , आज सुनो विनती भी ।


कर सको , तो कर लो गिनती भी ।।


दर खड़े , लो अब आकर सारे ।


चख सकें , आज सुधा रस धारे ।।


 


सफ़र में , साथ सदा हम पायें ।


मन कहे , गीत सुनो हम गायें ।।


दुख करो , दूर कहें अब सारे ।


मिल सकें , आज सभी सुख न्यारे ।।


 


सुमन - सा , कोमल भाव जगायें ।


जगत में , प्यार सभी हम पायें ।।


सुन सुना , दें हम आज कहानी ।


सुख मिले , देख न दीप निशानी ।।


 


चमकते , देख न दीप हमारे ।


जल रहे , दीप सभी उजियारे ।। 


जगमगा , रात रही मतवाली ।


 चमकती , रात रहे अब काली ।।


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(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


30.5.2020 , 7:49 पीएम पर रचित ।


 


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

परिचय डॉ अर्चना प्रकाश का जन्म ग्राम परौरी जिला उन्नाव में हुआ।गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय से विद्यार्जन शुरू किया तो शिक्छा के उच्चस्तरो को प्राप्त करते हुए एम ए , बी एड , व एम डी एच् होम्यो की उपाधि प्राप्त की । ग्रहणी के दायित्वों के साथ कान्वेंट विद्यालयों में प्रधानाचार्या के पद को सुशोभित किया है । सार्थक लेखन सन 2000 से शुरू हुआ । पहली पुस्तक अर्चन करूँ तुम्हारा 2008 में प्रकाशित हुई ।अब तक आपकी कविता कहानी व भक्ति काव्य की सोलह किताबे प्रकाशित हो चुकी है।विभिन्न संस्थाओं से अब तक लगभग पैंतालीस पुरस्कार प्राप्त हो चुके है ।सन 2020 के चार पुरस्कार लॉक डाउन में रुके हुए है ।  


 


       कविताएँ -


 1- लॉक डाउन -; 


लॉक डाउन सुना रहा , मौन का सम्वाद हमें । सड़को पर बिखरे सन्नाटे , 


बाजार मॉल्स आहट को तरसे ! 


ऑफिस चौराहे सुनसान ,


हर तरफ पुलिस परेशान !


गोमती लेती उबासियां ,


नावों पतवारों का इंतजार !


पार्क स्टेडियम भी वीरान,


रेल पटरियां पूछे स्टेशन से ,


कब गूंजे गी रेल सीटियां ?


हो गा कब मुसाफिरों का आगाज ? 


सुनहली सांझ में भी ,


प्रेमियों की जिंदादिली क्यू मौन ।


  ये सब करते मुखर सम्वाद ,


सन्नाटे देते है नई उम्मीदें. 


 ये जगाते है नए विश्वास ,


 दौड़ेगा फिर से ये देश ,  


 विजय की हो गी झंकार !


 देश का हर कोना गुलशन हो गा ,


कोई न कहीं बंदिश हो गी ! 


गाँव शहर फिर दौड़ेगा ,


हर चेहरे पर खुशियां होंगी । 


अर्चना प्रकाश


 


कविता -2 


सैन्य वेदना ; 


तपती रेती सा मन ,


दहके अंगारो सा मन ! 


कब तक सहते रहेंगे , 


जेहादी के थप्पड़ !


सैनिक हम भारत माँ के ,


सत्ता ने दी है लाचारी !


हाथों में शस्त्र लिए , पत्थरबाजों से पिटते ।


दो कौड़ी के आतंकी ,


वर्दी अपमानित करते ।


अजब वेदना सेना की ,


मजबूरी मर मर जीने की ।वीर जवानों की निराशा ,


 फूटेगी बन कर ज्वाला ।


जागेगा जब शूर वीर देश का ,


जेहादी बच न पाएंगे ।


सत्ता के भूखे जेहादी कश्मीर न तुम पाओगे ,


ये सैनिक है भारत माँ के ,


 कश्मीर है इनकी आन!


 कश्मीर है भारत की शान ।


 अर्चना प्रकाश लखनऊ


 


कविता -3


युद्ध के अभियान में ;


 


नारियां अब चल पड़ी हैं यद्ध के अभियान में ।           


हौसलों के तरकश धरे ,         


रूढ़ियों पर सर सन्धान है बन्दिशों की ओढ़नी ले ,       


सुलगते प्रश्न मन मे भरे ।।        


बेड़ियों के जख्म है पाँव में ।


ठोकरों से हो निडर अब ,  


बढ़ रहीं मान के संग्राम में ! 


नारियां अब चल पड़ी है , युद्ध के अभियान में ।।             


अस्मिता के दंश गहरे ,    


दर्द देते कुटिल चेहरे ।             


जीवन के इस हिसाब में ,   


बदले नियम गुणा भाग के,


रुके गा नहीं अब ये समर ,


सपनों की बुलन्द कमान में ।


नारियां अब चल पड़ी है , 


युद्ध के अभियान में ।              


साथ कोई हो न हो ,                   


रिश्तों की सांकल न हो ।  


छल छद्मद्वेष व्यूह तोड़े ,    


राहें कठिन से मुँह न मोड़े,


त्योरियों पर सिंहनी की शान है ,


कोमल उमंगें ढली चट्टान में । 


नारियां अब चल पड़ी है ,


युद्ध के अभियान में !


 


     डॉ. अर्चना प्रकाश


 


कविता - 4, 


अभावों में ;        


अभावों में भाव बहुत हैं , निर्धनता में आस बहुत है । निम्न मलिन बस्तियों में , स्वप्निल पंख उड़ान बहुत है। सोने चांदी के सिक्कों में , अपनेपन का राज़ बहुत है । फ़टे चीथड़ों में पलने वाले , इस युग में गोपाल बहुत है ।जर्जर वृद्ध अस्थियों में , अतीत का अभिमान बहुत है ।पीड़ाओं के सागर में , खुशियों की आस बहुत है । उजड़े वीरान खण्डहरों में , सुन लो तो चीत्कार बहुत है ।बच्चों की अटपट बोली में , सच्चे मन का प्यार बहुत है ।मैली अधनंगी नारी में , सुंदरता का सार बहुत है । अर्चना प्रकाश लखनऊ


 


कविता 5 -


दिल वालों की बस्ती में -; दिल वालो की बस्ती में , 


ऊँचे लोगों का काम नहीँ । सरस् विनोदी बतकही में , कसमें वादों का नाम नहीँ । सीधी सरल जिंदगी में , सोने चांदी का काम नहीँ । प्यार के हर पैमाने पर, ऊँची हस्ती नाकाम रही । 


 टूटे सपनों की बस्ती में , उम्मीद की नन्हीं आस रही । कुछ बातें लोगों से आयीं , इन बातों के सिर पैर नहीँ । मुद्दतों में दिल मिलते है ,   


 ये मंजिल आसान नहीँ । जिस जग में रहते हम , छल प्रपंच बिन शाम नहीँ ।  


अर्चना प्रकाश लखनऊ ,


मो 9450264638 ।


विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--


 


अपनों से मेरा अब तो रहा सिलसिला नहीं


मुझको तो एक ख़त भी कोई भेजता नहीं


 


भटका कहाँ कहाँ मुझे ख़ुद पता नहीं


इस ज़ीस्त के नसीब में इक रहनुमा नहीं 


 


पहुँचा हूँ मैं कहाँ कि जहाँ रास्ता नहीं 


मेरा ही मुझसे अब तो कोई वास्ता नहीं


 


अब तो मेरे ख़याल में आजा मेरी ग़ज़ल


कमरे में मैं ही मैं हूँ कोई दूसरा नहीं


 


इतना करम न मुझपे करो मेरे दोस्तो


मैं भी तो आदमी हूँ कोई देवता नहीं


 


काँटों से अपने घर को सजाने की आरज़ू


फूलों की बात क्यों ये बशर सोचता नहीं 


 


ऐसे जले चराग़ कि दुनिया ही जल उठी 


हँसते हुए किसी को कोई देखता नहीं 


 


मेरी हँसी उड़ाओ न ऐसे भी दोस्तो


तुम बादशाहे-वक़्त हो लेकिन ख़ुदा नहीं


 


इतना चला हूँ धूप में चेहरा झुलस गया 


साये का दूर दूर भी कोई पता नहीं


 


मजबूरियों के बोझ से बिकता रहा हूँ मैं 


*साग़र* ज़मीर मेरा बिका है मरा नहीं 


 


🖋विनय साग़र जायसवाल


 


 


जुलाई 1996


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

जाड़े में ठिठुरता, तपिस तपन झुलसन बरसात कि मार ।   


 


आंधी हो या तूफ़ान लोक तंत्र का चौथा स्तम्भ प्राण ।।


                                               जन ,जन तक पहुँचता पल, प्रहर कि सूचना खबर का ब्रह्माण्ड ।                         


 


 जज्बा जवान राष्ट्र के स्वाभिमान कि पहचान ।।                      


 


इरादे बुलंद चाहे देश कि सीमा हो या खतरों का बवाल ,जंजाल ।।   


 


हर जगह प्रथम उपस्थिति ,स्तिति परिस्तिति कि बाज दृष्टि का जाबांज़।                           


 


भाषा कि मर्यादा हिंदी हिंदुस्तान का सत्कार ।।                      


 


चली जाए चाहे जान बिकने नहीं देता ईमान।


                  


खतरों में भी सयंम संकल्प कि परिभाषा सम्मान ।।


 


साहस शौर्य ,हिम्मत कवच दृढता का अडिग चट्टान।             


 


झुकता नहीं ,टूटता नहीं ,नहीं करता विश्राम ।।                   


 


सच का साथी अन्याय,अत्यचार का प्रतिकार ।     


 


 मजबूर ,मज़लूमो ,का दुःख ,दर्द बांटता हिंदी का संस्कृति संस्कार।।      


                       


 ओजस्वी तेजस्वी हिंदुस्तान का पत्रकार।।                           


 


हिंदी पत्रकारिता दिवस पर ढेर सारी बढ़ाई एवम् शुभ कामनाएं


 


           


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


 


 


डॉ. सुषमा कानपुर

*अक्षयपात्र*


घर में बांस की खटिया पर बैठी भाभी के हाथ की कटहल की पकौड़ी खाते हुए याद आया कि बेटे ने कुछ खाया होगा या नही!यही सोचकर फोन मिला दिया।


फोन बेटे की जगह उसके सहपाठी मित्र ने उठाया,"आंटी जी अभी वो पकौड़ी बना रहा है,और हम तीनों खा रहे हैं, आज पकौड़ा पार्टी हो रही है।


हमने फोन काट दिया और शकून से खाने लगी।


थोड़ी देर बाद बेटे का फोन आया।


मम्मी ये बेसन डिब्बे में तो थोड़ा सा दिख रहा था,पानी डालने के बाद बहुत हो गया,चार प्याज डाली तो पता ही नही चला फिर हमने छः प्याज हरी धनिया जीरा और मिर्च और डाल लिया।आधी परात भर गई ।


इतने पकौड़े बनते गए कि जैसे परात न होकर #अक्षयपात्र हो।


इसीलिए तीनों दोस्तो को बुला लिया। पकौड़ी हमने बनाई बर्तन इन लोगों ने धोया और किचन भी साफ कर दिया।


हमको कोई काम नही करना पड़ा।


"बेटा वो एक किलो बेसन था जिसमे से केवल एक दिन कढ़ी बनाई गई थी।"


हँय🤔


@


*अक्षयपात्र*


घर में बांस की खटिया पर बैठी भाभी के हाथ की कटहल की पकौड़ी खाते हुए याद आया कि बेटे ने कुछ खाया होगा या नही!यही सोचकर फोन मिला दिया।


फोन बेटे की जगह उसके सहपाठी मित्र ने उठाया,"आंटी जी अभी वो पकौड़ी बना रहा है,और हम तीनों खा रहे हैं, आज पकौड़ा पार्टी हो रही है।


हमने फोन काट दिया और शकून से खाने लगी।


थोड़ी देर बाद बेटे का फोन आया।


मम्मी ये बेसन डिब्बे में तो थोड़ा सा दिख रहा था,पानी डालने के बाद बहुत हो गया,चार प्याज डाली तो पता ही नही चला फिर हमने छः प्याज हरी धनिया जीरा और मिर्च और डाल लिया।आधी परात भर गई ।


इतने पकौड़े बनते गए कि जैसे परात न होकर #अक्षयपात्र हो।


इसीलिए तीनों दोस्तो को बुला लिया। पकौड़ी हमने बनाई बर्तन इन लोगों ने धोया और किचन भी साफ कर दिया।


हमको कोई काम नही करना पड़ा।


"बेटा वो एक किलो बेसन था जिसमे से केवल एक दिन कढ़ी बनाई गई थी।"


हँय🤔


@


डॉ0 सुषमा


 कानपुर


डॉ. हरि नाथ मिश्र

बाँसुरी-


बाँसुरी बेसुरी हो गयी है।


पंखुरी खुरदुरी हो गयी है।।


         ऐसी घड़ियाँ न थीं कभी पहले,


         ऐसी बातें न थीं कभी पहले।


          बात कैंची-छुरी हो गयी है।।


                           बाँसुरी बेसुरी...


प्रेम के बोल थे तब सुहावन,


नाते-रिश्ते भी थे बहु लुभावन


दोस्ती अब बुरी हो गयी है।।


                बाँसुरी बेसुरी....


आबो-हवा से सँवरती थी सेहत,


करती नफ़रत नहीं थी यह कुदरत।


अब वही आसुरी हो गयी है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


आस्था की शिला की वो मूरत,


जिसकी मजबूत थी हर परत।


रेत सी भुरभुरी हो गयी है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


ठोस थी नीवं इल्मो-हुनर की,


अपनी तहज़ीब की ,हर चलन की।


आज वो बेधुरी हो गई है।।


                  बाँसुरी बेसुरी....


अपनी धरती जो थी स्वर्ग जैसी,


पाप बोझिल जहन्नुम-नरक की-


अब मुक़म्मल पुरी हो गयी है।।


                बाँसुरी बेसुरी....


हो जाती थी नम आँख जो तब,


ग़ैर की हर ख़ुशी-ग़म में वो अब-


किस क़दर कुरकुरी हो गयी है।।


                    बाँसुरी बेसुरी....


                                      ©डॉ. हरि नाथ मिश्र


                                           9919446372


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 

'हिन्दी पत्रकारिता दिवस' 


           30 मई पर एक कविता 


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आज ही का शुभ दिन जब 


पहला हिन्दी अखबार छपा, 


हिन्दी भाषी लोगों में जब 


जुगुल किशोर का प्यार छपा। 


 


हिन्दी पत्रकारिता दिवस की 


हिन्दी जगत् को बहुत बधाई, 


हिन्दी के दुर्दिन काल में तब 


हिन्दी का सूरज दिया दिखायी। 


 


पराधीन उस काल खण्ड में 


जन-जन का उद्गार छपा।....... 


 


तीस मई अट्ठारह सौ छब्बीस 


हिन्दी का परचम लहराया, 


"उद्दन्त मार्तण्ड " नाम पड़ा 


साप्ताहिक अखबार छपवाया। 


 


भ्रष्ट, क्रूर, व्यभिचारी, हिंसक 


अंग्रेजों का अत्याचार छपा।....... 


 


कोटि-कोटि नमन करता हूँ 


लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ का, 


उस सत्य के सत्यार्थी का 


प्रहरी, अन्वेषक आलम्ब का।


 


विचार विनिमय सफल हुआ, 


स्वतंत्रता का संचार छपा।.... 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


सत्यप्रकाश पांडेय

गोविन्द मेटों शूल.....


 


रास रचैया कृष्ण कन्हैया


माँ यशोदा के लाल


गोप बधुओं की जीवन पूंजी


नन्दनन्दन गोपाल


 


पाकर के तेरा प्रेम आश्रय


छोड़ दई लोक लाज


कृष्ण रंग में रंगी सांवरे


तेरी हो गईं आज


 


डार मोहिनी चित्त हर लीन्हों


मनुवा हुओं बेहाल


बिन देखे जलें विरह अनल में


लता पता लगें काल


 


आलिंगन कर अधरपान करो


माधव बनो अनुकूल


गोप बाला हो गईं बाबरी


गोविन्द मेटों शूल।।


 


श्रीकृष्णाय नमो नमः


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


 


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बुझे दिए जला दे ,अंधेरों में कर दे उजियारा। दिशा ,दृष्टि,दृष्टिकोण बता दे समझो कवि कि कविता है।।


 


 जीवन कि आपा धापी मृग मरीचिका । जीवन का उद्देश्य बता दे। समझो कवि कि कविता है ।।   


                                          गिरते, उठाते ,उलझे ,सिमटे जीवन कि राहों का । अवरोध हटा दे । समझो कवि कविता है।।                    


 


कायर में पुरुषार्थ जगा दे हतोत्साहित में उत्साह जगा दे।


समझो कवि कि कविता है ।।


 


थके हुये में उमंग का तरंग जगा दे पराजित को पथ विजय बता दे। समझो कवि कि कविता है।।    


 


युवा ओज का तेज बना दे युग को मूल्य मूल्यवान बना दे ।समझों कवि कि कविता है।।


 


 


मरुस्थल में दरिया ,झरना ,झील बहा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


 


खुली आँखों के सोये मन में चेतना कि जागृति ,जागरण जगा दे।


 समझो कवि कि कविता है।।


 


 पत्थर को मोम् बना दे ,लोहे के शस्त्र पिघला दे । समझो कवि कि कविता है ।।   


 


रक्त रंजीत तलवारों फूलों की बारिस करवा दे । फुलों को शूल ,शूल बना दे ,शूलों को फूल बना दे।     


समझो कवि कि कविता है।।


 


नदियां ,झरने, प्रकृति, प्राणी पशु ,पक्षी को श्रृंगार के आभूषण का आवाहन कर दे। समझों कवि कि कविता है।।


 


मजबूर ,मजलूम को अंतर मन कि शक्ति का आभास करा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


भटके को उद्देश्य बता दे मानव को मानवता मूल्य मूल्यवान बना दे।                                  


समझो कवि कि कविता है ।।


 


युग, समाज का संस्कृति ,संस्कार अतीत के दर्पण में वर्तमान कि शक्ल दिखा दे ।                


 


समझो कवि कि कविता है।।


 


 आत्मा का परम् सत्य ,परमात्मा में विलय करा दे । सूर ,तुलसी ,मीरा ,कबीर,रासखान


 कि भक्ति का भाव जगा दे।


 सिद्धार्थ को बुद्ध बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 साधारण को 


असाधारण वर्तमान कि चुनौती बना दे । इतिहास का निर्माण करा दे पृथ्वी ,बरदायी का राग सुना दे। समझो कवि कि कविता है ।    


 


सूने मन में प्रेम के भाव जगा गोपी,राधा, कान्हा के प्रेम जगत का सार बता दे । समझो कवि कि कविता है ।।


 


कृपण, क्रोध को दांनबीर और सौम्य बना दे । कुटिल ,कठोर में दया , छमाँ का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


जीवन के कुरुक्षेत्र के संग्रामो का विजयी का शत्र शास्त्र बना दे। समझो कवि कि कविता है ।।


 


अज्ञान में ज्ञान का प्रकाश जला दे काली को कालिदास, हुलसी के तुलसी को तुलसी दास बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


मानव मन ,मस्तिष्क, ह्रदय में स्वतंत्रता के अस्ति ,अस्तित्व का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है ।।  


 


खंड ,खंड को अखंड बना दे चाणक्य का चंद्र गुप्त बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 परतंत्रता से लड़ते स्वतंत्रता के महारथियों को धरती माँ के स्वाभिमान में । रंग बसंती चोला केशरिया बाना पहना दे । समझो कबि कि कविता है ।।


 


पराक्रम ,त्याग ,तपश्या ,बलिदानों के अतीत का वर्तमान जगा दे। समझो कवि कविता है।।      


 


उदासी ,गम मायूसी में हास्य्, परिहास ,व्यंग ,मुस्कान कि फुहार वर्षा दे ।


समझो कवि कि कविता है।।


 


रस ,छन्द ,अलंकार से गीत, ग़ज़ल संगीत समारोह कि अलख जगा दे ।                           


समझो कवि कि कविता है।।


 


काल को मोड़ दे ,राह सारे खोल दे ,विकट ,विकराल को बौना बना दे । बौने को कराल महाकाल बना दे । समझो कवि कि कविता हैं।।


                                    


 कल्पना का सत्यार्थ प्रकाश शब्द शिल्पी के शब्दों का चमत्कार । समझो कवि कि कविता है।। 


 


नीर ,नदी ,का निर्झर ,निर्मल अविरल ,प्रवाह । सागर कि गहराई से उठता ज्वार भाँटा तूफ़ान का समय समाज कवि के धर्म ,कर्म कि बान।                               


 


कर्तव्य दायित्व बोध के कवि का शंखनाद भाषा साहित्य का साहित्य कार।


 


 युग ,समय ,समाज का संचार संबाद । कवि कीमकर्तव्य बिमुड़ हुआ यदि समझो लूट ,मिट गया। 


 


युग, समय समाज वर्तमान इतिहास।।                         


 


 कवि समय युग समय कि आवाज़ त्रेता का वाल्मीकि द्वापर का वेदपव्यास कलयुग का सुर,कबीर ,मीरा,बिहारी,रहीम वरदायी तुलसीदास।।       


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बरबुझे दिए जला दे ,अंधेरों में कर दे उजियारा। दिशा ,दृष्टि,दृष्टिकोण बता दे समझो कवि कि कविता है।।


 


 जीवन कि आपा धापी मृग मरीचिका । जीवन का उद्देश्य बता दे। समझो कवि कि कविता है ।।   


                                          गिरते, उठाते ,उलझे ,सिमटे जीवन कि राहों का । अवरोध हटा दे । समझो कवि कविता है।।                    


 


कायर में पुरुषार्थ जगा दे हतोत्साहित में उत्साह जगा दे।


समझो कवि कि कविता है ।।


 


थके हुये में उमंग का तरंग जगा दे पराजित को पथ विजय बता दे। समझो कवि कि कविता है।।    


 


युवा ओज का तेज बना दे युग को मूल्य मूल्यवान बना दे ।समझों कवि कि कविता है।।


 


 


मरुस्थल में दरिया ,झरना ,झील बहा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


 


खुली आँखों के सोये मन में चेतना कि जागृति ,जागरण जगा दे।


 समझो कवि कि कविता है।।


 


 पत्थर को मोम् बना दे ,लोहे के शस्त्र पिघला दे । समझो कवि कि कविता है ।।   


 


रक्त रंजीत तलवारों फूलों की बारिस करवा दे । फुलों को शूल ,शूल बना दे ,शूलों को फूल बना दे।     


समझो कवि कि कविता है।।


 


नदियां ,झरने, प्रकृति, प्राणी पशु ,पक्षी को श्रृंगार के आभूषण का आवाहन कर दे। समझों कवि कि कविता है।।


 


मजबूर ,मजलूम को अंतर मन कि शक्ति का आभास करा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


भटके को उद्देश्य बता दे मानव को मानवता मूल्य मूल्यवान बना दे।                                  


समझो कवि कि कविता है ।।


 


युग, समाज का संस्कृति ,संस्कार अतीत के दर्पण में वर्तमान कि शक्ल दिखा दे ।                


 


समझो कवि कि कविता है।।


 


 आत्मा का परम् सत्य ,परमात्मा में विलय करा दे । सूर ,तुलसी ,मीरा ,कबीर,रासखान


 कि भक्ति का भाव जगा दे।


 सिद्धार्थ को बुद्ध बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 साधारण को 


असाधारण वर्तमान कि चुनौती बना दे । इतिहास का निर्माण करा दे पृथ्वी ,बरदायी का राग सुना दे। समझो कवि कि कविता है ।    


 


सूने मन में प्रेम के भाव जगा गोपी,राधा, कान्हा के प्रेम जगत का सार बता दे । समझो कवि कि कविता है ।।


 


कृपण, क्रोध को दांनबीर और सौम्य बना दे । कुटिल ,कठोर में दया , छमाँ का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है।।


 


जीवन के कुरुक्षेत्र के संग्रामो का विजयी का शत्र शास्त्र बना दे। समझो कवि कि कविता है ।।


 


अज्ञान में ज्ञान का प्रकाश जला दे काली को कालिदास, हुलसी के तुलसी को तुलसी दास बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


मानव मन ,मस्तिष्क, ह्रदय में स्वतंत्रता के अस्ति ,अस्तित्व का भाव जगा दे । समझो कवि कि कविता है ।।  


 


खंड ,खंड को अखंड बना दे चाणक्य का चंद्र गुप्त बना दे। समझो कवि कि कविता है।।


 


 परतंत्रता से लड़ते स्वतंत्रता के महारथियों को धरती माँ के स्वाभिमान में । रंग बसंती चोला केशरिया बाना पहना दे । समझो कबि कि कविता है ।।


 


पराक्रम ,त्याग ,तपश्या ,बलिदानों के अतीत का वर्तमान जगा दे। समझो कवि कविता है।।      


 


उदासी ,गम मायूसी में हास्य्, परिहास ,व्यंग ,मुस्कान कि फुहार वर्षा दे ।


समझो कवि कि कविता है।।


 


रस ,छन्द ,अलंकार से गीत, ग़ज़ल संगीत समारोह कि अलख जगा दे ।                           


समझो कवि कि कविता है।।


 


काल को मोड़ दे ,राह सारे खोल दे ,विकट ,विकराल को बौना बना दे । बौने को कराल महाकाल बना दे । समझो कवि कि कविता हैं।।


                                    


 कल्पना का सत्यार्थ प्रकाश शब्द शिल्पी के शब्दों का चमत्कार । समझो कवि कि कविता है।। 


 


नीर ,नदी ,का निर्झर ,निर्मल अविरल ,प्रवाह । सागर कि गहराई से उठता ज्वार भाँटा तूफ़ान का समय समाज कवि के धर्म ,कर्म कि बान।                               


 


कर्तव्य दायित्व बोध के कवि का शंखनाद भाषा साहित्य का साहित्य कार।


 


 युग ,समय ,समाज का संचार संबाद । कवि कीमकर्तव्य बिमुड़ हुआ यदि समझो लूट ,मिट गया। 


 


युग, समय समाज वर्तमान इतिहास।।                         


 


 कवि समय युग समय कि आवाज़ त्रेता का वाल्मीकि द्वापर का वेदपव्यास कलयुग का सुर,कबीर ,मीरा,बिहारी,रहीम वरदायी तुलसीदास।।       


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज

💐🌅सुप्रभातम्🌅💐


 


दिनांकः २९.०५.२०२०


दिवसः शुक्रवार


छन्दः मात्रिक


विधाः दोहा


शीर्षकः नया सबेरा जिंदगी


पुलकित है पा अरुणिमा ,निर्मल चित्त निकुंज।


उठी कलम नवलेख को , देश प्रेम की गुंज।। 


देश बने जीवन कला , देश बने अरमान।


राष्ट्र प्रगति समझें प्रगति, देश आत्म सम्मान।।


बिना राष्ट्र नौका समा, जीवन बिन पतवार।


दिशा दशा निर्भर वतन , एक राष्ट्र परिवार।।


जीएँ हरपल जिंदगी , मानव जन कल्याण।


देशभक्ति अर्पण वतन, सदा राष्ट्र निर्माण।।  


ध्वजा तिरंगा शान हो , हो जीवन सम्मान। 


नया सबेरा जिंदगी , रोग शोक अवसान।।


हरी भरी धरती रहे , स्वच्छ प्रकृति संसार।


रोग मुक्त जन मन वतन, सकल विश्व परिवार।।


भारत हमारी आत्मा , हम भारत शृङ्गार।


सौ जन्म बलिदान भी , कम भारत उद्धार।।


कवि निकुंज अभिलाष मन,अर्पण जीवन देश। 


फैले खुशियाँ चहुँदिशा , समरसता संदेश।। 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"


रचनाः मौलिक(स्वरचित)


नई दिल्ली


संजय जैन (मुम्बई

*टूट गये परिवार*


विधा : कविता


 


मान अभिमान के चक्कर में,


उजड़ गए न जाने कितने घर।


हंसते खिल खिलाते परिवार,


इसकी भेंट चढ़ गये।


फिर न मान मिला, 


न ही सम्मान मिला।


पर पैदा हो गया अभिमान,


जिसके कारण टूट गये परिवार।।


 


हमें न मान चाहिए,


न सम्मान चाहिए।


बस अपास का,


प्रेम भाव चाहिए।


मतभेद हो सकते है,


फिर भी साथ चाहिए।


क्योंकि अकेला इंसान,


कुछ नही कर सकता।


इसलिए आप सभी का,


हमें साथ चाहिए।।


 


यदि आप सभी आओगे,


एक साथ एक मंच पर।


तो मंच पर चार चांद,


निश्चित ही लग जायेंगे।


अनेक भाषाओं और जाती, 


होने के बाद भी।


जब एक साथ मिलेंगे,


तभी हम हिंदुस्तानी कहलायेंगे।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


29/05/2020


सत्यप्रकाश पाण्डेय

तुम ही जीवन रवि........


 


ये नक्शेकदम मुझको रिझाते है।


आकर्षक चितवन मुझे बुलाते है।।


 


हैं लोल कपोल लिए गात सौम्यता।


अनुपम सौंदर्य अपरिमेय दिव्यता।।


 


कजरारी आँखों का मोहक काजल।


केश पुंज लगें जैसे घने बादल।।


 


तुमसे बतरस का आनन्द अनौखा।


गोरे वदन प्रिया शोभित तिल चोखा।।


 


आहें भरें देखकर दिलवर तुमको।


बलात खींच रही हो सत्य हृदय को।।


 


मधुमास की मधुर मकरन्द प्रियतमा।


तुम मेरे बदन में हो बसी आत्मा।।


 


डाल गले में बाहों का बंधन सजनी।


तुम ही जीवन रवि वरना तो रजनी।।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त

एक कविता... "पुनर्मिलन"


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कुछ असर नहीं करती


ज्येष्ठ की दुपहरी 


तर नहीं करती...


पूस की शीतलता 


क्षण-प्रतिक्षण 


स्मृति में वो....और उनकी छाया


उनका प्रिय सम्भाषण 


खिल-खिलाकर हँसना।...


कौन जानेगा? 


गुप-चुप नयनों की भाषा 


घुटी-घुटी सी 


संचित अभिलाषा .....


तनहा मन... 


अपनी आकुलता... 


अपनी अनुरक्तता 


व्यक्त नहीं करता


किन्तु 


हाय रे.. भावनाओं का प्रवाह 


थकता ही नहीं। 


फिर भी.... 


संयम नहीं टूटता 


चेतना बेसुध नहीं होती 


व्याकुल नहीं होती साँसें.... 


नेत्र यात्रा नहीं करते 


धड़कनें आतुर नहीं होतीं.... 


जीने का साहस नहीं छूटता.. 


क्योंकि....


निश्चित है उनका पुनर्आगमन 


पुनर्मिलन।......


 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


प्रिया सिंह

बहर:- 1222122212221222


 


 


मज़ा परदेश में क्या है उसे समझा नही सकता


सुकूँ जो घर में मिलता है कहीं वो पा नही सकता


 


सुनो ऐ बाग़बाँ गुलशन पे अपने तुम नजर रखना


ये मत समझो खिला जो फूल वो मुर्झा नहीं सकता


 


बुढ़ापे की थकन कर लो जवानी मे ज़रा महसूस


जो लम्हा बीत जाता है वो वापस आ नहीं सकता


 


मेरे कदमों में गिर कर आज मुझ से कह रहे थे वो


मेरे दिल में फक़त है प्यार जो दिखला नहीं सकता 


 


खता क्या हो गई मुझ से जो लोगों से वो कहता है


मै उस की बात को दिल में कभी दफना नहीं सकता


 


वो बुज़दिल हैं लडाई से जो पहले हार जाते हैं


अगर है अज्म दिल में फिर कोई सर्का नहीं सकता


 


मुकद्दर में लिखा था जो वो प्रिया हमने पाया है


है गुत्थी ज़ुल्फों सी उलझी कोई सुलझा नही सकता


 


प्रिया सिंह


कालिका प्रसाद सेमवाल

*प्यार जीवन की धरोहर है*


*******************


प्यार जीवन का सार है


इसकी अनुभूति


किसी योग साधना


से कम नहीं है,


इसके रूप अनेक हैं


लेकिन


नाम एक है प्यार।


 


प्यार रिश्तों की धरोहर है


और इस धरोहर


को बनाये रखना


हमारी संस्कृति


और जीवन का सार है,


यह मानवता का अंश है


इसी से जीवन में


आनन्द की अनुभूति होती है


यह अनमोल है।


 


प्यार जीवन की धरोहर है


निर्झर झरनों की तरह


हमारे दिलों में


बहता रहे,


एक दूसरे के निकट लाता है


यही जीवन की


सच्ची धरोहर है। 


 


जिस प्रभु की कृपा से 


हमें यह जीवन मिला है,


उस परम पिता परमात्मा


को हमेशा प्यार से


सुमिरन करें,


जिसने हमें 


जीवन दिया है,


इस धरा धाम 


पर हमें प्यार से लाया है।


 


प्यार सब प्राणियों से करे


उन बेसहारा


बच्चों से करें


जो अभाव में अपना 


जीवन यापन कर रहे है,


उन नन्हे-नन्हे बच्चों से भी


प्यार करो


जो कुपोषण के शिकार हैं


और जो अनाथ है।


 


आओ कुछ अच्छा करें


हम सब संकल्प लें,


हम सभी के प्रति


प्यार का भाव रखेंगे


किसी के प्रति


बुरे विचार गलत दृष्टि


नहीं रखेंगे,


तभी यह जीवन सफल हो सकता है।


*************************


कालिका प्रसाद सेमवाल


           प्रवक्ता


जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थान रतूड़ा


 रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


सुनीता असीम

हुए हैं रात के साए भले घनेरे भी।


चले चलो कि मिलेंगे तुम्हें सबेरे भी।


***


समझ नहीं पा रहे हम हिसाब तुम्हारा।


बनाए हमने तो थे प्यार के जजीरे भी।


***


ढली हुई ये जवानी लिए चलोगे जब।


तुम्हें ज़रा भी दिखेंगे नहीं सहारे भी।


***


निकल रहा ही नहीं नाग का जहर बिल्कुल।


लगे हुए हैं हजारों यहां सपेरे भी।


***


नहीं तुम्हें आ रही नींद क्यूं बताओ तो।


कि आसमाँ में सभी सो रहे सितारे भी।


***


सुनीता असीम


२९/५/२०२०


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः.....*बारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


दोहा-जदि अभ्यास न करि सकहु, करउ कर्म निःस्वार्थ।


        कर्म परायण होइ मम,पावहु सिद्धि गुढ़ार्थ।।


जदि करि पुनः अइस अभ्यासा।


समुझि सकेउ नहिं मर्म खुलासा।।


      तब मम ग्यान परोक्ष श्रेयस्कर।


      त्याग कर्म-फल इच्छा बेहतर।।


देवहि त्याग सांति तत्काला।


मोरि प्राप्ति कै नहीं निठाला।।


     सांत चित्त जन परम दयालू।


     मद अरु द्वेषयि रहित कृपालू।।


निर्मोही, सुख-दुख समभावा।


छिमासील अस जनहिं सुभावा।।


     ध्यानहिं योग युक्त जे योगी।


     तन-मन-इंद्रिय-बसी जे भोगी।।


निस्चय दृढ़ी व मन-बुधि-अर्पित।


भगत मोर अस मोंहि समर्पित।।


     अस मम भगत परम प्रिय मोरा।


      अति सहिष्णु सुनु कुंति-किसोरा।।


मम प्रिय भगतहि मन नहिं खिन्ना।


हर्ष-अमर्ष नहीं उद्बिगना ।।


      कर्तापन त्यागी प्रिय मोंहीं।


      भक्त अनिच्छ साँच सुनु तोहीं।।


सुभ अरु असुभ सकल फल त्यागी।


सोच-कामना रहित सुभागी ।।


      मम प्रिय भगत अहहि ऊ मोरा।


      करै भजन मम भाव-बिभोरा।।


मित्रइ- सत्रु,मान-अपमाना।


सरद-गरम सभ एक समाना।।


     सुख-दुख-द्वंद्वासक्ति बिहीना।


      भक्ति-भाव मन जासु न छीना।।


अस जन मोंहें बहु प्रिय लागहिं।


अस मम भगतहिं परम सुभागहिं।।


दोहा-जे निष्कामइ भाव से,करै अमृतइ पान।


        धर्ममयी रस जासु कै,अस मम भगत महान।।


        श्रद्धामय रह ततपरइ,मोरि प्राप्ति जे नर।


         पावै ऊ मम परम गति,औरु आश्रयइ घर।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


                   बारहवाँ अध्याय समाप्त।


डॉ0हरि नाथ मिश्र            

1 *सुरभित आसव मधुरालय का*


ढुरे पवन हो मस्त फागुनी,


ऋतु ने ली अँगड़ाई है।


एक घूँट बस दे दे साक़ी-


आसव की सुधि आई है।।


           भरा हृदय है कड़ुवापन से,


            रीति भली नहीं लगती है।


            चिंतन-कर्म में अंतर लगता-


            उभय बीच इक खांई है।।


अमृत सम मधुरालय-आसव,


जिसको चख जग जीता है।


व्यथित-विकल तन-मन की हरता-


आसव द्रव अकुलाई है ।।


            मधुरालय को तन यदि मानो,


             साक़ी प्राण-वायु इसकी।


             बिना प्राण के तन है मरु-थल-


             साक़ी,पर,भरपाई है ।।


सागर-साक़ी का है रिश्ता,


प्रेमी-प्रेयसि के जैसा ।


दोनों मिल बहलाते मन को-


जब-जब रहे जुदाई है।।


            मधुरालय मन-शुद्धि-केंद्र,


            तो साक़ी पूज्य पुरोहित है।


            धुले हृदय की कालिख़ सारी-


             हाला सद्य नहाई है ।।


धारण कर लो पूज्य मंत्र यह,


यहीं से सुख का द्वार खुले।


अब विलम्ब मत करना भाई-


सुर-शुचिता यह पाई है।।


            डॉ0हरि नाथ मिश्र


            9919446372


अमायन भिंड मध्यप्रदेश 

राम की महिमा


राम की महिमा सबने गाई ।


वाल्मीक रामायण बनाई ।


सीता मां की कीन्ह सहाई ।


प्रथम कबि वाल्मीक कहाई ।


जग मे आदर्श नीति बनाई ।


राम चन्द्र को पात्र बनाई ।


सारे जग मे पुज गये भाई ।


उल्टे नाम से महिमा पाई ।


दया नाम ने दई दिखाई ।


डाकू से दये कबी बनाई ।


बालकृष्ण प्रभू महिमा गाई ।


हनुमंत रक्षा करते भाई ।


राम की महिमा जग को दिखाई ।


सागर ऊपर छलांग लगाई ।


लंका को बर्बाद कराई ।


रावण को दिए धूल मिलाई ।


धर्म की रक्षा जग मे कराई ।


राम की महिमा सबने गाई ।


     पंडित बालकृष्ण पचौरी 


  


अमायन भिंड मध्यप्रदेश 


मोबाइलनंबर 9926246192


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार

श्रीमती आशा त्रिपाठी


पत्नी-श्री शशिकान्त त्रिपाठी


मूल निवासी-ग्राम अकबरपुर,पो० केराकत जिला जौनपुर उ०प्र०


कार्यरत- जिला कार्यक्रम आधिकारी,सहारनपुर।(वर्तमान)


दूरभाष-9412968923


परिचय-1999 की लोक सेवा आयोग से चयनित क्लास द्वितीय अधिकारी।


शिक्षा-एमए अर्थशास्त्र व अंग्रेजी,


       बी०एड०.


कृत्य-आशा के गीत पुस्तक का प्रकाशन।


रेडियो नजीबाबाद मे बक्तत्य ,


समाचार पत्रों मे नियमित सामाजिक लेखन,पत्र पात्रिकाओं मे कविताओ का प्रकाशन।


1999 से पूर्व कविसम्मेलन में भाग।


गोरखपुर रेडियो में लोकगीत गायन भोजपुरी मे (1995-1998 तक)


प्रशासनिक आयोजनो में मंच संचालन,


*कवितायें*


1-शाश्वत प्रेम रुप छवि निर्मल


 सकल जगत सुखदायक श्याम।।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।।* 


मृदुल बॉसुरी की धुन प्यारी।


राधा भूलें सुध वुद्ध सारी।


बरसाने का कण-कण पुलकित


रास रचैया हे गिरधारी।


भक्ति भाव से मीरा नाची।


त्यागा राज भोग सब काम।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।।* 


कुँज बिहारी ,हे वनवारी


नटवर नागर हे गिरधारी।


माखनचोर,बने रण छोड़,


तुमने प्रभु सब बात विसारी।


तुम्हे ही ध्यायू तुम्हे पुकारूँ।


निशिदिन आठों याम।।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।।* 


नाग नथैया जगत खिवैया,


यशुमति प्रिय बलदाउ भैया।


कंस विदारे द्रोपदी को तारे।


मन मोहन तुम जगत रचैया।।


राधा-श्याम मोहक मनभावन,


युगल छवि नयन सुखधाम।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या* 


 *मीरा के घनश्याम।*


जन मन रंजन प्रभु भय भंजन,


प्रीत रीति रस मंगलकारी।।


मुरलीधर ,हे नटवर नागर,


गोपियन राधा कृष्ण मुरारी।।


राधा रमणा , मन ब्रजधाम।


 *राधा के प्रिय तुम्हे कहूँ या*


*मीरा के घनश्याम*।।


2- 


*मेरे हमदम साथ निभाना*


मै दीपक तू नेह की बाती,


मै खूशबू तू गेह की थाती।


प्रीत जिया की ना विसराना।


*मेरे हमदम साथ निभाना*।।


 


आलम्ब प्रीत हिय मंजुल दर्पण,


शिखर बंध मन आत्म समर्पण।


मै राधा तू मोहन मेरा


शाश्वत तन-मन लौकिक अर्पण।।


मधुर प्रीत रस गंग बहाना।।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


 


मधुरिम भाव सुरभित निज यौवन,


कुसुमित मन उपवन नव जीवन।


नवल रुप श्रीगाँर तुम्ही से।


पुलकित हृदय ,पल्लवित घर आँगन।।


गृह उलझन बहुविधि सुलझान।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


 


बंधन पूर्ण ,उर्मिल भव आशा।


 मर्यादा वंदित कुल भाषा।


 निखिल गेह की आभा तुमसे,


  पुण्य प्रेम की तुम परिभाषा।।


  कर्म योगी बनके दिरवलाना।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


 


मै छाया तुम दर्पण प्रियतम,


विरत रहे जीवन से दुःख तम।


तुझ संग पार भँवर से जाऊँ।


एक पल तुझको ना विसराऊँ।।


सात जनम तक साथ निभाना।


*मेरे हमदम साथ निभाना*


3- 


*तेरी याद मुझको सताती बहुत है*।


ख्वाबों में मेरे खयालों मे तुम हो,


धड़कते दिलो की पनाहों में तुम हो।


तुम्ही मेरे आँखों के नूर प्रियतम।


छवि तेरी प्रीतम रुलाती बहुत है।।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


वो कागज कलम नेह की रोज पाती,


वो नीदें चुराना,दिल की अमिय थाती।


पलको की गहरी लरज रोज निरखूँ।


हृदय रुह मिलने को पल पल सताती।


अल्हड़ प्रेम पाती लुभाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


वो चोरी से मिलना,वो मिल के सताना,


निगाहों-निगाहों मे सब कुछ सुनाना।


मै हूँ बस तुम्हारी यही राग गाना।


 प्रति पल जिया मे तेरा ही तराना।


तेरी प्रीत आतुरता जगाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


तुम्ही प्रीत-संगीत जीवन सुधा हो,


तुम्ही भाव-धड़कन कवित की विधा हो।


तुम्ही मीत मोहन हरित नद्य मन में।


तुम्ही प्राण मेरे तुम सबसे जुदा हो।।


तुम्हारी अदा मुझको भाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है।


ये सावन सुहाना ये मधुरिम फिजांये।


रिमझिम सी बारिश ये शीतल हवाँए।


अमवा की डारी पे बोले कोयलियाँ,


चातक है चपल पपिहा मुस्कुराये।


ये सावन अगन भी लगाती बहुत है।


तेरी याद मुझको सताती बहुत है


 


4- भारत माँ मुसकाई है।


रीत गीत नवगीत की धरती,


राम-कृष्ण मधुप्रीत की धरती।


अखण्ड देश आर्याव्रत की,


  वीरों ने अलख जगाई है।


भारत मॉ मुसकाई है।।


 


सुमधुर-सुरभित कश्मीर की घाटी।


गुलमोहर केशर की माटी।


 संस्कृति सुभग सुगंधित परिपाटी,


  दुर्योधन की कुटिल चाल से,


  स्वर्ग ने मुक्ति पाई है।


भारत माँ मुसकाई है।


 


  आजाद ,भगत सिंह की कुर्बानी,


  विवेकानन्द की अमृत वानी।।


  अमर शहीद झाँसी की रानी।


  अमर वीर गौरव गाथा की।


  मोदी ने शान बढ़ाई है।


भारत माँ मुसकाई है।


 


  भारत भाल मुकुट अभिनन्दन,


  कश्मीर खण्ड वसुधा का चन्दन।


  हृदय कोर से शत शत वन्दन।


  नवल सुधारस से सिंचित हो,


  नवल चेतना आई है।


भारत माँ मुसकाई है।


 


  5 अगस्त की अमर क्रान्ति,


  दो सिंहों ने इतिहास लिखा।


  एकता देश की खण्डित की


  उस धारा का ही नाश लिखा।


  यह धरती आज निहाल हुयी,


   केसर ने ली अँगड़ाई है,


भारत माँ मुसकाई है।


अद्भुत अलौकिक आल्हादित जन,


चहुँ ओर खुशी से पुलकित मन।


उत्साह चरम पर विजय प्रखर।


गौरव गरिमा से गर्वित तन।


डल का उपवन फ़िर महक उठा ।


घाटी फिर से हर्षायी है।


भारत माँ मुसकाई है


5-


भारत का अभिमान है हिन्दी।


 


सरस ,सहज,नवरस अभिलाषा,


जन-मन- गण की सुरभित भाषा।


शुभग कलश पूरित नव आशा।।


ओज परम् शुभ गान है हिन्दी।


सहज कण्ठ मृदु बान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


शुभग ,मुदित,मकरन्द यही है,


भाव,भक्ति,कवि छन्द यही है।


भारत भू की विस्तृत भाषा।


संपूर्ण धरा की गंध यही है।।


संस्कृति देश प्रतिमान है हिन्दी।।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


प्रेमचन्द्र की अद्भुत रचना,


अभिव्यक्ति की सरल संरचना।


गरल काव्य नव छ्न्द विपुल हो,


हिन्द प्राण प्रण शब्द अतुल हो।


प्रेम प्रीति रसगान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


मीरा के भावों की गागर,


महादेवी का अविरल सागर।


रामकथा शोभित तुलसी की।


नानक ,कबीर,रसखान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


हृदय कुंज ,भव पुंज सहजता,


अस्तित्व हिन्द, तम तेज सरसता।।


अमिय प्रीति से पूर्ण विधा यह,


मातृभूमि की प्राण सुधा यह।


आन बान और शान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


हिन्द देश की प्राण प्रिया यह,


वन्दनीय जन-मान जिया यह।।


काव्य ,ग्रन्थ,पुराण आत्म भव,


गीत ,रीत ,संगीत छन्द नव।


शारदा सृत वरदान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी।


विश्व पद्म पद पावन हिन्दी,


सरस,सहज मनभावन हिन्दी।


शाश्वत मृदुल लुभावन हिन्दी।।


जन मन रंजन गायन हिन्दी।।


"आशा" की पहचान है हिन्दी।


भारत का अभिमान है हिन्दी


✍आशा त्रिपाठी


.


 


 


राम कुमार झा "निकुंज"

कवि ✍️परिचयः डॉ. राम कुमार झा " निकुंज "


राष्ट्रवादी कवि डॉ. राम कुमार झा ,पिता- विद्यावारिधि वैयाकरण कवि स्व. पं शिव शंकर झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास, अंकुर विहार लोनी(एन. सी. आर. दिल्ली),गाजियाबाद, (उ. प्र )में है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला,नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, कुरुक्षेत्र वि. वि.), एम. ए. ( संस्कृत,इतिहास,पटना वि. वि.) बी.एड.,एल.एल.बी. (पटना वि. वि.),पीएच-डी. (दि.वि. वि.)और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र -वरिष्ठ अध्यापक ,केन्द्रीय विद्यालय, पुष्पविहार,साकेत, नई दिल्ली (मा.सं.वि.मं.,भारत सरकार) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में २५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर माँ भारती सह हिन्दी भाषा साहित्य के महिमामंडन में अपनी चारुतम अनमोल लेखिनी के माध्यम से विगत चालीस वर्षों से सक्रिय हैं। सारस्वत काव्यमय परिवार प्रसूत डॉ. झा की लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में चार काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली, कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में "महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च" (समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं "सूक्ति-नवनीतम्" "काव्य-मंजरी" और मैथिली भाषा में "आउ बचाउ मिथिला के" भी आने वाली है। वर्तमान अंकूर, काव्यस्पदन, हरियाणा प्रदीप, साझा गीतिका संकलन, ,श्री सुदर्शनिका साहित्यिक मंच, हौंसलों की उड़ान, प्रभा श्री, म ग स म रविवार , साहित्य रचना गुजरात , काव्य कलश, साहित्य किरण मंच, प्रभा श्री मंच, दिल्ली कवि सम्मेलन , काव्यगंगा, साहित्य गंगा , साहित्य सुगम संस्थान, साहित्य सागर, काव्यांचल, भावांजलि ,हिन्दी भाषा.कॉम , निःशब्द, भावांजलि, काव्यांजलि, भावसरिता , बज़्म -ए -हिन्द , हंस, आराध्या, परख, साहित्यांकुर, नवांकुर, दोहा समीक्षा मंच, साहित्योदय, रचनाकार मंच दिल्ली, काव्य रंगोली पचास से अधिक काव्य संकलनों , बिहार नवभारत टाइम्स,अन्तर्राष्ट्रीय शोध पत्रिका सूर्यप्रभा जैसे प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं और अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित होती रही हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य , संरक्षक,मानद कवि साहित्य गौरव, देवल पुरस्कारों से पुरष्कृत और ख्यातिलब्ध संस्था "अन्तर्नाद" का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण सह कवि विद्यावारिधि स्व.पं. शिवशंकर झा और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। आपने पटना, जम्मू , गंगटोक सह कोलकाता आकाशवाणी केन्द्रों में प्रखर वार्ताकार ,कवि सह एकांकीकार के रूप में अपनी सक्रिय भागीदारी सह सम्मानित युवा लेखक, राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी साहित्यकार के रूप में सुकीर्ति अर्जित की है। डॉ. झा ने भंगिमा, अरिपण, साहित्य कला मंच, अंतरंग , विशाल जननाट्य मंच (मैथिली ,हिन्दी,और भोजपुरी भाषा से सम्बद्ध )अनेकों रंगमंच को अपने अभिनय से गौरवान्वित किया है। डॉ. झा एक प्रखर वक्ता, राष्ट्रवादी यथार्थ सह प्रगतिपरक कवि, लेखक कथाकार, एकांकीकार सह समालोचक रहे हैं। हिन्दी, संस्कृत,अंग्रेजी,बंगला, असमिया, नेपाली , मैथिली, भोजपुरी आदि भाषाओं के अबाध वाक्पटुता कवि डॉ.निकुंज के बहु आयामी व्यक्तित्व में चार चाँद लगाता है। मिथिलावासी श्रोत्रिय मैथिल द्विजश्रेष्ठ डॉ. झा पटना हाईकोर्ट के अधिवक्ता भी रह चुके हैं। छात्र जीवन से ही पठन-पाठन-वाचन में परम मेधावी स्वावलंबी संघर्षशील डॉ. झा एन.सी.सी, एन.एस.एस और भारत स्काउट्स एवं गाइड्स एवं अनेक सामाजिक , सांस्कृतिक कार्यों में पूर्ण सक्रिय रहे हैं। डॉ. झा वर्तमान में लीडर ट्रेनर (स्काउट संभाग) भी हैं। जीविका वृत्ति के क्रम में विगत २८ वर्षों से डॉ. झा ने सम्पूर्ण भारत वर्ष में अपने शिक्षण द्वारा राष्ट्र निर्माण में अहं भूमिका का निर्वहण किया है। महाभारत की अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और कूटनीति पर संस्कृत भाषा में दिल्ली वि.वि.से पी. एच. डी. करने वाले डॉ. झा इतिहास के प्रखर छात्र रहे हैं। धार्मिक व्यक्तित्व के धनी डॉ. झा भावात्मक संवेदनशील, सरस, सरल, मृदुभाषी, उदारचेता सिद्धान्तवादी स्वाभिमानी गुणों के सम्पूट संगम हैं। दो मेधावी अभियंता पुत्रात्मजा के जनक डॉ. झा की धर्मपत्नी डॉ. निशि कु. झा भी एक मेधावी विज्ञान छात्रा, सुधर्मिणी सह प्राध्यापिका के रूप में दायित्व निर्वहण कर रही हैं। डॉ.झा सदृश बहुगुणोपेत सारस्वत भारती पूत का परिचय देना किसी भी साहित्यकार, पत्रकार या संपादक वा संस्थाओं के लिए गौरव और सम्मान की बात है।


कवि डॉ. निकुंज की साहित्यिक प्रकाशित काव्य संग्रह और 


साझा काव्य संग्रह का विवरण लघु रूप में नीचे दिया जा


 रहा हैः --- 


 


१. युगान्तर- काव्यसंग्रह , काव्या प्रकाशन , इन्दौर 


२. उद्बोधन - काव्यसंग्रह , वर्तमान अंकुर प्रकाशन , नयी दिल्ली


३. शंखनाद- काव्यसंग्रह , नीलिमा प्रकाशन , दरियागंज , नयी दिल्ली 


 ४. नवांकुर - साझा काव्य संग्रह , वर्तमान अंकुर प्रकाशन , नयी दिल्ली


  ५. भाव सरिता , साझा काव्य संग्रह, भोपाल


 ६. भाव से कविता तक - साझा काव्यसंग्रह, पंख प्रकाशन ,मेरठ


 ७. मेरी कलम - सत्यम प्रकाशन , दिल्ली


 ८. नूर ए ग़ज़ल - साझा काव्यसंग्रह ,वर्तमान अंकुर प्रकाशन , नयी दिल्ली


  ९. कारगिल के शहीद - साझा काव्य संग्रह, चित्रगुप्त प्रकाशन,नयी दिल्ली


  १०. मातृ-पितृ विशेष काव्यसंग्रह, चित्रगुप्त प्रकाशन ,नयी दिल्ली


  ११. अश्क प्रीत के - साझा काव्य संग्रह , निखिल प्रकाशन , आगरा


१२. प्रीत मीत से- साझा काव्य संग्रह, निखिल प्रकाशन,आगरा


१३. अश्क मीत से - साझा काव्य संग्रह , निखिल प्रकाशन, आगरा


 


12. सम्मान(यदि हो तो अधिकतम 5)


     १. काव्य गौरव सम्मान , वर्तमान अंकुर ,नोयडा 


     २. साहित्य प्रज्ञ सम्मान , युगधारा प्रकाशन,लखनऊ


     ३. साहित्य देवल सम्मान , वर्तमान अंकुर, नोयडा


     ४. साहित्य काव्य गौरव सम्मान , हरियाणा प्रदीप, गुड़गांव 


     ५. शाश्वत शृङ्गारिक सम्मान - निखिल प्रकाशन ,आगरा 


     6. अनुभव साहित्य सम्मान - अश्क प्रीत से ,मेरठ 


     7. साहित्य गौरव सम्मान - पंख प्रकाशन, मेरठ


     8. काव्य सागर सम्मान,श्री सत्यम प्रकाशन,झुंझूनी     


      (हरियाणा)


प्रकाशनार्थ प्रेसगत ग्रन्थः 


 


१. कराहती सम्वेदनाएँ (काव्य संग्रह)


२. पुकारे माँ भारती (काव्य संग्रह) 


३. गीत प्रीति के मधु मिलन 


 


संस्कृत मेंः 


 


१. महाभारते अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धः कूटनीतिश्च (आलोचनात्मक शोध ग्रन्थ।


 २. सुक्ति नवनीतम्  


 


 राष्ट्र भारत और हिन्दी भाषा प्रेम और भक्ति से ओत प्रोत कवि लेखक साहित्यकार डॉ. का सम्पूर्ण व्यक्तित्व देश और हिन्दी भाषा के प्रति उनके अधोलिखित विचार(दोहा) से प्रकटित हो रहा है --- 


स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।


जिसने दी है जिंदगी , बढ़ा शान दूँ जान॥


ऋण चुका मैं धन्य बनूँ ,जो दी भाषा ज्ञान।


हिन्दी मेरी रूह है , जो भारत पहचान॥


राजेश_कुमार_सिंह

#कविता_के_फूल - 15 


#जो_दर्द_जो_सबको_होता_है l


 


कौन कहता है  


कि आमिर के दिल में,


 दर्द नहीं होता है l 


उसका दिल भी अंतर्मन की पीड़ा से


नहीं रोता है ll


 


फर्क इतना है, कि वह कहता नहीं है 


तनाव तो लगभग बराबर ही रहता है l


भौतिक सुख भी,


कोई कम दुःख नहीं देता है ll


 


गरीब का बच्चा ,


भूख के कारण नहीं सोता l


होने के नशे में 


तनाव के कारण नहीं सोता ll


 


मांगता है ,महंगा ,सूट 


और महगी गाडी,


टूट जाती है ,बड़ी पूजी की कमर l


गरीब का बेटा ,बनियाइन क्या मांग बैठा,


मुश्किल कर दी गरीब बाप की डगर ll  


 


गरीबी के कारण ,


भोजन के लाले पड़ जाते है


अमीर अमीरयत की बीमारियो के चक्कर में ,


  निवाले निगल नहीं पाते हैं ll   


 


#राजेश_कुमार_सिंह


अविनाश सिंह

*हाइकु*


*--------------*


 


द्वार माँ के


खुले रहते रोज


लो आशीर्वाद।


 


माँ का उदर


गरीब या अमीर


रहता गर्म।


 


होंगे साकार


वो दिन के सपने


कर्म अपने।


 


माँ की ममता


दिव्य ज्योति के रूप


दे हमें सुख।


 


नव माह में


होता शिशु का जन्म


माँ क्यों दुश्मन?


 


माँ सूरज है


देती धूप समान


न अभिमान।


 


गले लगाती


गोद मे ही सुलाती


माँ कहलाती।


 


कन्या का दान


है सबसे महान


दहेज दान?


 


दुल्हन दुखी


विदाई वाले दिन


हो गमगीन।


 


तेरा मिलना 


दो फूल का खिलना


संग है जीना।


 


प्रेम का वास


चाहते हो घर में


तो रहो पास।


 


माँ बाप हैं


घर-घर के द्वीप


देव समीप।


 


स्वर्ग के द्वार


है माँ बाप के पास


रखों विश्वास।


 


*अविनाश सिंह*


बलराम सिंह यादव धर्म एवं अध्यात्म शिक्षक पूर्व प्रवक्ता बी बी एल सी इंटर कॉलेज खमरिया पंडित लखीमपुर खीरी

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।


भये नाम जपि जीव बिसोका।।


बेद पुरान संत मत एहू।


सकल सुकृत फल राम सनेहू।।


 ।श्रीरामचरितमानस।


  चारों युगों में,तीनों कालों में और तीनों लोकों में रामनाम को जपकर जीव शोकरहित हो गये।वेदों,पुराणों और सन्तों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल प्रभुश्री रामजी के नाम में प्रेम होना है।


।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।


  भावार्थः---


  चारों युगों अर्थात सत्ययुग,त्रेतायुग,द्वापरयुग व कलियुग में, तीनों कालों अर्थात भूतकाल, वर्तमानकाल व भविष्यकाल में तथा तीनों लोकों अर्थात स्वर्गलोक, पृथ्वीलोक व पाताललोक में प्राणियों का शोकरहित होना केवल रामनाम के जप करने से ही सम्भव हुआ है।वैसे तो तीन लोकों के अतिरिक्त चौदह लोकों का भी उल्लेख मिलता है।इनमें भूलोक,भुवर्लोक,स्वर्लोक,महर्लोक,जनलोक,


तपलोक और सत्यलोक ऊपर के लोक हैं तथा अतल, वितल,सुतल,तलातल,महातल,रसातल और पाताल लोक नीचे के लोक हैं।


 विशोक कहने का भाव यह है कि रामनाम के जप करने से सभी जीव जन्म,जरा,मृत्यु के त्रिताप से मुक्त हो गये।


  वेद,पुराण व सन्त मत कहने का भाव यह है कि ये सभी एक स्वर से इस बात को स्वीकार करते हैं कि सभी पुण्यों का फल रामनाम में प्रेम होना ही है।अर्थात समस्त पुण्यकर्म उसी परमब्रह्म को प्राप्त करने के लिए किये जाते हैं।परमब्रह्म परमात्मा ही सच्चिदानन्द है अर्थात वही सत्य,चेतन और आनन्द स्वरूप है।शाश्वत सुख की प्राप्ति एवं दुःख का विनाश भगवान की भक्ति के बिना सम्भव ही नहीं है।गो0जी ने उत्तरकाण्ड में श्री काकभुशुण्डि जी के मुख से श्रीगरुड़जी को यही उपदेश देने की बात कही है।यथा,,,


सिव अज सुक सनकादिक नारद।


जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद।।


सब कर मत खगनायक एहा।


करिअ रामपद पंकज नेहा।।


श्रुति पुरान सब ग्रँथ कहाहीं।


रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।।


  गुरु व सन्तजनों की सेवा करने से भजन करने की विधि प्राप्त हो जाती है।इससे हृदय में जो प्रकाश हो जाता है उसे ही सभी सुकृत्यों का फल कहा जा सकता है।वास्तव में यही रामस्नेह है।गुरुदेव वशिष्ठजी स्वयं यही बात कहते हैं।यथा,,,


जप तप नियम जोग निज धर्मा।


श्रुति सम्भव नाना सुभ कर्मा।।


ग्यान दया दम तीरथ मज्जन।


जहँ लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।।


आगम निगम पुरान अनेका।


पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।।


तव पद पंकज प्रीति निरन्तर।


सब साधन कर यह फल सुन्दर।।


********************


सोइ सर्वग्य तग्य सोइ पंडित।


सोइ गुन गृह बिग्यान अखंडित।।


दच्छ सकल लच्छन सुत सोई।


जाकें पद सरोज रति होई।।


।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।


।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


मनोज श्रीवास्तव

***.


आम आदमी


 


आम हो गयाआदमी जहां भी समझो उसे लगाओ


 


कच्चे की बन जाये खटाई या अचार बढ़िया बनवाओ


 


पक जाए तो मीठा इतना अमरस बनता और मिठाई


 


मैंगो शेक त्रप्त कर देता स्वाद न उसका याद दिलाओ


 


!


 


वैसा ही है आम आदमी चाहे उसको जहां बुला लो


 


मिल जायेगा आसानी से बस अपने नारे लगवा लो


 


दंगा भी भड़काने वाले मिल जाते हैं आसानी से


 


जगह जगह दारू मिलती है ठेके वाली ही करवा लो


 


!


 


आम आदमी आम पार्टी आम सभा की बात निराली


 


कवि सम्मेलन खत्म हो गये घर पर ही बजवा लो ताली 


!


मनोज श्रीवास्तव


 


 


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' गोरखपुरी

"एक गीत की तरह"


                   एक कविता 


"""""""""""""""""""""""""""""""""""""


 


 


एक गीत की तरह 


कोई आवाज़ आती है 


मीठी सी प्यारी सी 


कदाचित् वह कोयल है जो 


गीत गाती है 


हर सुबह हर शाम.........


 


जगाकर मेरे सुप्त हृदय को 


खो जाती है या 


छिप जाती है नीड़ में 


बस देखता रहता हूँ देर...तक 


उस छायादार बृक्ष को 


हर सुबह हर शाम...... ....


 


फिर जाती है नज़र 


सामने की खिड़की पर जो 


खुलती है ....फिर बन्द हो जाती है फिर खुलेगी जब......


मुझे नींद आने को होगी


देखता रहता हूँ उसी को 


हर सुबह हर शाम ...........


 


कितनी निष्ठावान है


वह कोयल वह चेहरा जो 


छिपाये हुए है हृदय में


कसक, वेदना और पीड़ा को 


और मैं.. ....चौंक पड़ता हूँ


ज़रा सी आहट पर 


कदाचित् वो.... आयें 


जोहता हूँ राह 


हर सुबह हर शाम..........


Q


रचना- डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' गोरखपुरी 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०)


कालिका प्रसाद सेमवाल रुद्रप्रयाग

जीवन नन्दन मंजुल मेला


********************


प्रिय तुम मुझसे दूर न जाओ,


मेरे मन में आज नशा है।


घूंघट खोल रही हैं कलियां,


झूम रही मतवाली अलियां।


नन्दन वन की वायु चली है,


सुरभित दिखी आज गली है।


लगती सुखमय मधुरिम बेला,


जीवन नन्दन मंजुल मेला।


उठती मन में मधुरिम आशा,


मिटती सारी थकित पिपासा।


 


तुम भी हंस दो मेरे, प्रियवर,


आज़ गगन में चांद हंसा है।


 


तुम कुछ लगती इतनी भोली,


जैसे कोयल की मधु बोली,


तुमको पाकर धन्य हुआ मैं,


औरों का तो अन्य हुआ मैं।


तुमसे सारा जीवन हंसता,


तुम पर मेरा मन है रमता।


मेरे मन की तुम्हीं कली हो,


तेरे मन का एक अली हूं।


 


घूम रहा हूं आज चातुर्दिक्


नयनों का यह बाण धंसा है।


 


मेरे मन में आज विवश लाचारी,


तुम पर मैं जाता बलिहारी।


कंचन सी यह तेरी काया,


मेरे मन की सारी माया।


खींच रही है बरबस मन को,


तोड़ रही है सारे प्रन को।


अंचल छोर तुम्हारा उड़ता,


मेरे मन में गान उमड़ता।


 


रिमझिम चलती मधुर बयारें,


मेरे मन में प्यार बसा है।


 


मोड़ चुका जो जीवन मन को,


उसके बिन सम्भव क्या जन को।


लोल लहरियां उर के कोने,


भाव रचाकर जाती सोने।


हंस हंस कर तुम मत मुड़ जाओ।


बिछुड़न की नित रीत निराली,


मिलना संभव दो दिन आली।


 


अंग अंग थिरक रही हैं माया,


वस्त्र सुसज्जित-रूप रूप तुम्हारा।


******************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ हरि नाथ मिश्र

सुंदर सोच-


आँसुओं से भरी जिंदगी,


दर्दे दोज़ख़ से होती है बढ़कर।


बेसमय मौत इसकी दवा है-


करना ऐसा नहीं होता हितकर।।


   लोग कहते हैं फाँसी पे ख़ुद को,


   है चढ़ाना बहुत कायराना।


   ज़िंदगी खूबसूरत सफ़र है,


   ऐसे-तैसे में उसको गवाँना।


गिरना-उठना औ फिर उठ के गिरना, 


बस यही ज़िंदगी का तकाज़ा।


ज़िंदगी के हर इक पल को जीना-


होता सदा जग में सुख कर।।


    आते तूफ़ान जो ज़िंदगी में,


    उनको आना है, आते रहेंगे।


    काम है छोटे दीपक का जलना,


    उसको तूफाँ बुझाते रहेंगे।


ग़म नहीं चाँदनी को भले ढक लिया,


जो छाये रहे नभ में बादल।


देते मौक़ा उसे ही तो बादल-


निकलने का ख़ुद फिर से छट कर।।


   ज़िंदगी के कुरुक्षेत्र में,


   पाण्डु-कौरव सदा ही रहे हैं।


   पांडु साहस औ धीरज से अपने,


  दंड कौरव के सारे सहे हैं।


युद्ध होना था वो तो हुआ ही,


और लड़ना पड़ा अपने लोंगो से।


पर,सफलता मिले बस जरूरी-


सारथी कृष्ण सा होना बेहतर।।


   पतली धारा निकल पर्वतों से,


   करती संघर्ष है जब उतरती।


   धर के आकार विस्त्रित धरा पे,


   वो उमड़ती-घुमड़ती है बहती।


पिलाती जलामृत सभी जंतुओं को,


बहती-जाती अवनि पे निरंतर।


अंत में उसको मिलता मिलन-सुख-


संग सागर जो होता श्रेयस्कर।।


   मुश्किलों में तराशा मुसाफिर,


   अपनी मंज़िल का बनता चहेता।


   बस उसी को नहीं कुछ है मिलता,


   जोखिमों से जो मुँह मोड़ लेता।


लड़ते-लड़ते अखाड़े का अंतिम,


होता योद्धा ही उत्तम विजेता।


घिसते-घिसते शिला पे ही मेंहदी-


सुर्ख़ होती सुनो, मेरे प्रियवर।।


ज़िंदगी के हर इक पल को जीना, होता सदा जग में सुखकर।।


          ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


           9919446372


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

हालात है या हालत ,अवसर है या अवसान ।।                    


 


जिंदगी बन गयी पहेली है खो गया इंसान।।                             


 


 जिंदगी के बोझ में दब गया है इंसान।         


 


जिंदगी के इस दौर में थक गया है इंसान ।।                             


 


क्या करे ,क्या ना करे मध्य उलझ गया है इंसान।                             


 


कर्ज से फर्ज का किया निर्बाह् बेटे कि महंगी पढ़ाई से हो गया तबाह।।                          


 


बेटा बना इंजीनियर मिलता नहीं इंजीनियर को काम ।         


 


गर काम मिल गया तो मिलता नहीं है दाम ।                    


 


न्याय के मंदिर के पुजारी अंधे क़ानून का चौकीदार ।।              


 


 काला कोट पहने शुरू कि वकालत बीत गए दो चार साल।।


 


आमदनी नहीं जेब खाली बचाते अपनी लाज।                        


 


 गावँ ,शहर, कस्बों में ऐसे नौजवान गले में टाई खुबसूरत लिबास।।                     


 


पहचान देश में विक्रय का बादशाह । कुछ नहीं बचा है फिर भी नहीं गयी मुस्कान।।      


 


 रसूख उसका अब भी बरकरार


सुरक्षा बेचता जीवन कि खुद हैं असुरसक्षित ।                


 


अभिकर्ता खोज रहा खुद के लिये काम ऊब गया है हो रहा परेशान।।                          


 


 धोबी, नाई ,शहर कस्बे के छोटे कामगार ।                               


 


ना जन धन का खाता ना ही सरकारी कुछ दान ।             


 


मुफ़्त नहीं कुछ भी , मिलाता नहीं कुछ भो बिना कुछ दाम ।।     


 


भीख मांगना ,किसी के सामने हाथ फैलाना है इनका अपमान।     


 


 संघर्ष कर रहे है हालात से लड़ रहे बदलेगा हालात मन में है विश्वाश ।।             


मजदूर नहीं ये इनका अपना स्व रोजगार ।।                            


 


मजदूर से बदतर इनके हालात पंजाब मराठा हो या हो गुजरात।


 


 इनको तो चाहिये सिर्फ बेहतर हालात चैन की दो रोटी सुकून का अपना रोजगार।।


 


 संचार, संबाद ,के सिपाही पत्रकार वक्त के दौर का सबसे बड़ा जाँबाज।                       


 


लड़ रहा है वक्त से बदलने वक्त का मिज़ाज़ ।। खाली पेट है खाली जेब फिर भी जज्बे का जवाँ हिंदुदुस्तान जिंदाबाद ।          


 


 राष्ट्र शान स्वाभिमान के अंदाज़ है आवाज़ ।।                            


 


 राष्ट्र का मध्यम ,निम्न माध्यम वर्ग का यह समाज किसी मुक्त छूट का नहीं हकदार ।      


 


हर कहर, दहसत कि झेलता ये मार । खामोश जुबाँ चेहरे पे मुस्कान। दर्द ,घाव, ढकता अपने इज़्ज़त अभिमान के लिबास।।     


 


  नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"मन वह निर्मल"*


(गगनांगना छंद गीत)


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१६ + ९ = २५ मात्रा प्रतिपद, पदांत SlS, युगल पद तुकांतता।


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


★मन वह निर्मल खिल जाता जो, फूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★खिल जाए तो प्रीत समझ लो, सुख-आभास है।


मिल जाए तो मीत समझ लो, मंजिल पास है।।


जो न मिले तो भूलो उसको, भूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★उदधि-अतल हो लहर प्रबल हो, पथ अति दूर हो।


राह न सूझे नैया जर्जर, तन थक चूर हो।।


बीच भँवर में थामे कर जो, कूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★साथ रहे जो संग चले जो, हितकर जान लो।


हरपल गूँजे गीत सरिस जो, धुन-मन मान लो।।


जो सहला दे हिय हर्षा दे, झूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


 


★चहका दे जो चमन सही वह, सुख आधार है।


महका दे जो सुमन सही वह, मनु मधु सार है।।


महके-चंदन जान नहीं तो, धूल समान है।


जो न खिले तो जानो उसको, शूल समान है।।


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल महराजगंज, उत्तर प्रदेश

*_सूरज की तपिश_*


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चिलचिलाती गर्मियों के दरमियां


      इक बात कहनी है,


सूरज की तपिश से हैं परेशां


     इक बात कहनी है।।


 


चढ़ रहे पारे सा दिन धूप


नहीं है शीतल छाया कहीं


प्यासे हैं सब पंक्षी पथिक


कट रहे हैं वृक्ष सारे


इक बात कहनी है।


 


ऐ खुदा रहम कर तूँ


थोड़ी राहत अदा कर तूँ


पांव में छाले पड़े हैं


जीवन पथ में कांटे बड़े हैं


इक बात कहनी है।


 


ऐ मेरे मालिक सुन अरदास तूँ


सूर्य क्यों आग का गोला हुआ


जल रही धरा जल सूख रहा


हे! प्राणियों में प्राण देने वाले


रहें खुश सब इक बात कहनी है।


 


कर रहीं हैं नदियां अरदास तेरा


बरस जल जीवन भर जाए मेरा


लू चले या आग ऊगले


हो करम प्यास सबकी बुझती रहे


सूख रहीं नदियां भर जाए जल तेरा


व्याकुल हो यही इक बात कहनी है।


 


 मौलिक रचना:-


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


निशा"अतुल्य"

गीत 


धर्म


28.5.2020


 


मानवता का धर्म निभाओ


 


इंसान अब सच में बन जाओ


मानवता का धर्म निभाओ


जहाँ दिखे कोई भूखा तुमको


उसको तुम भोजन करवाओ।


 


मानवता का धर्म निभाओ


 


गर्मी की जब तपन बढ़े तो


और प्यास से व्याकुल हो मन


ढूंढे जब जल की कोई धारा


ठंडा जल उसको पिलवाओं।


 


मानवता का धर्म निभाओ ।


 


थका हुआ हो कोई पथिक जब


इधर उधर ढूंढे कोई छाँव


मन में तनिक संकोच करो मत


थोडा अपने पास बैठाओ


 


मानवता का धर्म निभाओ ।


 


मिट गया विश्वास जो जग से


उसको कैसे वापस लाएं


करें मंथन हम मिलकर 


चलो मिलकर कुछ वृक्ष लगाएं।


 


मानवता का धर्म निभाएं


 


ठंडी छाँव सड़क पर हो जब


कोई पथिक न फिर घबराएं 


पाकर जीवन ये बहुमूल्य


अपने हमें कर्तव्य निभाएं।


 


मानवता का धर्म निभाएं ।


 


स्वरचित


निशा"अतुल्य"


डॉ सुषमा कानपुर

*मेरी प्यारी अम्मा जी*


 


*सुबह सबेरे जब चिल्लाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*नीम बबुर की दतुइन तोड़ के सुबह सुबह हम लाते थे।*


*एक बल्टी औ लोटिया लइ के कुआं किनारे जाते थे।*


*दुइ बल्टी पानी भरवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*चूल्हे में जब तवा चढ़ाती हम को पास बुलाती।*


 *आ जाओ सब भोजन करने,जोरों से चिल्लाती*।


*एक एक रोटी गरम खिलाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती ,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*मोमफली औ शकरकंद को आग में भूंज के रखती थी।*


*माटी की दुधहंडिया में वो दूध मूंद के रखती थी।*


*सबको मीठा दूध पिलाती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*छोटी वाली भाभी ने कल वीडियो कॉल मिलाया था।*


*फोन कनेक्शन होते ही अम्मा जी को पकड़ाया था।*


*थोड़ा हो जाती जज़्बाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*बिटिया तोहरी खातिर हमने कल ही शहद लिया है।*


*तुरत पेड़ से तोड़ के छत्ता,उसने हमें दिया है।*


*कब अअबू कह कर मुस्काती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*बप्पा को पानी देने को जंगल भर में फिरती थी।कभी किसी भी जीव जंतु से,बिल्कुल भी ना डरती थी।*


*बिचखोपड़ी भी मार गिराती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*सत्तर की होने को आई,फिर भी मेहनत करती है।*


*हम सब भाई बहनों में वो भेद भाव न करती है।*


*अब भी कितना प्यार जताती,मेरी प्यारी अम्मा जी।*


*खाट खड़ी सबकी करवाती,मेरी प्यारी अम्मा जी।।*


@


*डॉ सुषमा*


*कानपुर*


10-5-2020


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 28 मई 2020

प्रदीप कुमार पाण्डेय


              (प्रदीप बहराइची)


▪पता - बड़कागाँव, पयागपुर 


 जन- बहराइच (उ. प्र.) 271871


▪शिक्षा- एम.ए., बी. एड्.


▪सम्प्रति- प्रा वि भूपगंज द्वितीय, वि.ख. पयागपुर,जनपद बहराइच में शिक्षक। 


▪लेखन विधा - गीत, कविता,दोहा मुक्तक व ग़ज़ल। 


▪प्रकाशित कृति - 'आ जाओ मधुमास में' (काव्य संग्रह)आकृति प्रकाशन, दिल्ली 


 ▪प्रकाशित साझा काव्य संग्रह- 'मेरी रचना', 'साहित्य संदल', 'नीलांबरा' व 'प्रांजल नवांकुर' प्रकाशित ।


▪रचना का प्रकाशन- 'पाखी', 'ककसाड़', 'कविकुंभ', 'हिचकी', 'स्रवंति', 'सरस्वती सुमन', 'गुफ्तगू', 'बाल प्रहरी', 'रूबरू', 'व्यंजना', 'काव्य रंगोली', 'डिप्रेस्ड एक्सप्रेस', 'हिमालिनी' (नेपाल देश) आदि पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं ।


▪'अमर उजाला' व 'दैनिक राष्ट्र राज्य' (समाचार पत्र) में रचनाएँ प्रकाशित। 


 ▪'आकाशवाणी लखनऊ' व 'रेडियो रूबरू एफ एम' व 'रेडियो वागेश्वरी एफ एम' से रचनाओं का प्रसारण 


▪ दूरदर्शन लखनऊ पर प्रसारित कार्यक्रम 'साहित्य सरिता' व 'वन्स मोर' में काव्य पाठ। 


▪प्राप्त सम्मान---- 


 'सन्त शिरोमणी गोस्वामी तुलसीदास स्मृति सम्मान' अवधी सांस्कृतिक प्रतिष्ठान, नेपाल द्वारा 


'यू पी महोत्सव 2019' के सांस्कृतिक मंच से सम्मानित 


'अवध ज्योति रजत जयंती सम्मान' अवध भारती संस्थान द्वारा 


'साहित्य श्री सम्मान' अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान, हजारीबाग झारखण्ड द्वारा 


'गुरु गोविन्द सम्मान 2019' काव्य रंगोली साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'पं रविन्द्र नाथ मिश्र सम्मान' अखिल भारतीय साहित्य उत्थान परिषद द्वारा 


'नीलाम्बरा रचनाकार सम्मान' आगमन साहित्यिक संस्था द्वारा 


'दोहा दिवस सम्मान' गुफ्तगू पत्रिका, प्रयागराज द्वारा। 


'मातृत्व ममता सम्मान 2019' काव्य रंगोली साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'काव्योत्सव २०७६ सम्मान' काव्य रंगोली साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'सृजन श्री सम्मान' साहित्य परिषद रा न इं कालेज, बहराइच द्वारा 


'साहित्य भूषण सम्मान 2018' काव्य रंगोली हिन्दी साहित्यिक पत्रिका द्वारा 


'साहित्य दीप प्रतिभा सम्मान' साहित्य दीप परिवार द्वारा 


'जनचेतना सम्मान' साहित्य संगम संस्थान दिल्ली द्वारा 


सर्वश्रेष्ठ प्रतिक्रिया उपाधि गीतकार साहित्यिक मंच द्वारा 


▪संपर्क सूत्र- 8931015684,9792357494


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  1- कविता "विवशता"


 


 


उसकी मौत आज भी ज़िंदा है


 


मेरे जेहन में। 


 


 


उखड़ती सांसों के दरम्यान 


 


उसका स्वप्न 


 


उसका लक्ष्य


 


उसका प्यार 


 


उसका परिवार 


 


उसकी जिम्मेदारियां 


 


सब कुछ तार-तार हो रहीं थीं।


 


बेबसी उसके चेहरे पर साफ थी..


 


क्या देख पाऊंगा उस सूरत को 


 


जो पत्नी के गर्भ में है? 


 


और फिर.........उसकी मौत, 


 


आज भी जिंदा है मेरे जेहन में। 


 


 


        2- कविता 'अंतर्द्वंद्व' 


 


सन्नाटे को चीरता रहा


 


अंतर्मन का निःशब्द चीत्कार। 


 


 


बिना किसी आहट के 


 


देती रही दस्तक 


 


मन की विरक्त तरंगें 


 


उस प्रयोजन के लिए 


 


जो मेरे लिए स्वप्न था। 


 


 


बार- बार 


 


मेरे वर्तमान से 


 


टकराने के बाद भी 


 


दब नहीं पा रही थी मुझसे 


 


 अस्तित्व की गठरी। 


 


 


 


     3- 'गीत'


 


सुख सब को नहीं नसीब है। 


यह भूख बहुत अजीब है।।


 


भूख पेट की बढ़ती जाए, 


लोगों से क्या क्या करवाए। 


संबंधों पर दांव लगे हैं,


पल में अपने हुए पराए। 


समझ से बाहर के दृश्य में,


दूर है कौन करीब है। 


यह भूख....................।।


 


भूख बढ़ी है घटी कमाई, 


इससे घर पर विपदा आई। 


दिन ब दिन इस भूख की खातिर,


देह का दुख न दिया दिखाई । 


आखिर में जीवन की घड़ियां, दिखी कि कितनी गरीब हैं ।


यह भूख.......................।।


 


 


 


          4- गीत 


               


 खून धुल गए बारिश में,छींटे अब भी बाकी हैं। 


आग चिता की राख हो गई, चीखें अब भी बाकी हैं।।


 


सपनों का मर जाना तय था, 


अपना हो बेगाना तय था। 


परत जमीं जो उम्मीदों की 


इस तरहा धुल जाना तय था। 


माना कि सब चले गए पर उनका आना बाकी है। 


 


गांवों के सूने हैं रस्ते, 


जीवन देखा इतने सस्ते। 


बच्चों की आंखें अब सूनी 


एक किनारे लग गए बस्ते।


खुशी भरे दिन बीत गये अब दुख के कटने बाकी हैं। 


 


साथ तुम्हारे रंग हुए गुम,


हर पल तन्हा हर पल गुमसुम।


साख़ों के पत्तों सी टूटी, 


हो गई अबला अब तेरे बिन। 


आंखों से है दूर दिख रहा पर धूमिल होना बाकी है। 


 


                 


     5- कविता "धुंधला अतीत"


 


वक्त कितनी जल्दी सफर कर रहा है 


बगैर पंख के ही। 


गुजर गई आधी सदी....


इतनी तेजी से कि 


न तो इसकी भनक ही लगी 


और न ही वक्त ने अपनी कोई निशानी ही छोड़ी। 


 मगर अब तो एक एक पल


सदियों से भी लम्बा लगता है,, 


खुशियों को टटोलना पड़ता है,, 


यादों की हरियाली सूख न जाए


इसलिए सींचना पड़ता है। 


 


एक टूटी- फूटी बैलगाड़ी की तरह 


जीवन की गाड़ी को ढकेल रहा हूं,,,, 


जर्जर हो चुके इसके पुर्जे


आखिर कब तक संभले रहेंगे। 


 


वक्त बहुत ही निकट है.....


जब थम जाएगा मेरा घिसटता कारवां


ढह जाएगी सारी इमारत 


मिट जाएगी सारी इबारत 


न हम रहेंगे न हमारी यादें 


और न ही कोई अमानत.....


फिर कौन जानेगा कि मैं भी था 


इस नश्वर संसार में.....


जो जीवन को क्षणिक जानते हुए भी 


प्यार कर बैठा जिंदगी से


और कायरों की तरह रोता रहा


जब बिदा हो रहा था दुनिया से। 


 


कितना बदनसीब निकला.....


न जिंदगी खुशगवार रही


न मौत ही शानदार रही


फिर भी उम्मीद जिंदा है 


शायद मौत के बाद सुकून मिल ही जाए। 


     


प्रदीप बहराइची 


 ग्रा. बड़कागांव, पयागपुर 


जन. बहराइच, उ. प्र.(271871)


संपर्क 8931015684


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