*"ग्रीष्म गहन आघात"* (दोहे)
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★तपन लगे यूँ ग्रीष्म की, पावक-तरकश-बाण।
दाघ प्रचंड निदाघ नित, मिले कहाँ पर त्राण??१??
★दहके दिनकर दीप्त-दिन, रविकर लगे प्रचंड।
राहत निशि में भी नहीं, लगती लेश न ठंड।।२।।
★सबको रहती ग्रीष्म में, पानी की ही आस।
काँटा चुभता कंठ में, बढ़ती जाती प्यास।।३।।
★जल-थल-नभ सब गर्म हैं, बढ़ा सूर्य का कोप।
चहुँदिग हाहाकार है, शीतलता का लोप।।४।।
★सूख गये सब स्रोत हैं, सूख गयी जलधार।
कारण को मत काटना, धरती करे पुकार।।५।।
★सूखे नद-नाले सभी, झुलस रहे हैं प्राण।
जीना दूभर हो रहा, पिघल पड़े पाषाण।।६।।
★सूखे नाले-कूप भी, सूखे तटिनी-ताल।
जीव जगत का ताप से, हाल हुआ बेहाल।।७।।
★तेज तपन से ग्रीष्म की, राही चले न राह।
झुलसाती जब धूप है, लगे छाँव की चाह।।८।।
★चिंतनीय है नित्य का, बढ़ता वैश्विक ताप।
मानव का निज के लिए, कर्म बना अभिशाप।।९।।
★झुलसे पौधे-पेड़ हैं, सूरज उगले आग।
समय-सबक समझो सभी, अब तो जाओ जाग।।१०।।
★लपके लपलप लू लपट, ग्रीष्म गहन आघात।
तनिक मिले राहत तभी, आये जब बरसात।।११।।
★सूझ-बूझ के साथ ही, गढ़ना भू-परिदृश्य।
मुक्ति मिलेगी ताप से, होगा सुखद भविष्य।।१२।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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