*"धरती"* (दोहे)
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■जननी जीवों की धरा, जीवन का आधार।
रत्नों की यह खान है, खुशियों का भंडार।।१।।
■रूप सलोना है सजा, रत्नाकर-वन-शैल।
भेदभाव भरना नहीं, रखना मत मन-मैल।।२।।
■धरती धरती गर्भ में, अनमिट-अर्थ अनेक।
पानी-पवन प्रदायिनी, कर न मनुज अतिरेक।।३।।
■आश्रय जैविक-जान बन, धरा करे उपकार।
पोषण धरती से मिले, होता जग-उद्धार।।४।।
■महक उठे मह-मह धरा, पल्लव-तरु नव-भोर।
नदिया नानिद नाद नित, द्विजगण करते शोर।।५।।
■शृंगारित मदमस्त महि, गगन रहा है झूम।
वाहित पुष्प-पराग-पथ, अलिगन कलियन चूम।।६।।
■गढ़-मढ़ लो आकार कुछ, धरती करे न क्रोध।
मानव-मनमानी लगे, दानवपन-दुर्बोध।।७।।
■ ममता का मंदिर धरा, जग पालन प्रतिमान।
धरती की पूजा करो, पालनहारी जान।।८।।
■दुःख हरे सुखदायिनी, धन्य धरा धन-धाम।
जलचर-थलचर-व्योमचर, करें सभी विश्राम।।९।।
■आह्लादित करती धरा, गाकर नदिया गीत।
लहरे धानी चुनरिया, प्रीति पगे नवनीत।।१०।।
■दूषित मत करना कभी, धरती का शुचि गात।
जीव-जगत परिपोषिता, सौम्य-सृष्टि-सौगात।।११।।
■सलिल-मृदा-अंबर-अनल, मारुत जग-संचार।
निशिवासर आवागमन, लोक-लोक-संचार।।१२।।
■शैल बना प्रहरी धरा, सागर धोता पाद।
धरती की सानी नहीं, हरपल दे आह्लाद।।१३।।
■सकल सहे प्रतिरोध महि, करती है संघर्ष।
फिर भी झोली भू भरे, सबको देती हर्ष।।१४।।
■संरक्षित करना मृदा, शुद्ध रहे परिवेश।
पूरित हो धन-धान्य से, विकसे अपना देश।।१५।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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