डॉ0हरि नाथ मिश्र                          

*गीत*(16/14,लावणी छंद)


पिया-मिलन को चली बावरी,


कंटक से परिपूर्ण डगर।


पता नहीं है देश पिया का-


चलती जाए इधर-उधर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


प्रेम दिवाना,पगला-पगला,


लक्ष्य प्रेम का प्रियतम है।


लोक-लाज की भौतिक-बाधा-


करती राहें दुर्गम है।


प्रियतम से मिलने को फिर भी-


जाती पगली नगर-नगर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


पग में घुँघरू बाँध बवरिया,


अल्हड़ यौवन-बोझ लिए।


अनजाने-पथरीले पथ पर,


मिलन-आस निज हृदय लिए।


बढ़ती जाए बेसुध आँचल-


बिना कहे कुछ अगर-मगर।


          पिया-मिलन को चली बावरी,


           कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


प्रेम-रंग में रँगी रँगीली,


चलती जाए मतवाली।


नहीं भूख रोटी की उसको,


प्यास न निर्झर-जल वाली।


भूख-प्यास तो देह-पिपासा-


उसपर करती नहीं असर।


        पिया-मिलन को चली बावरी,


        कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


स्वाति-बूँद की चाहत में तो,


चातक विकल सदा रहता।


नदी-नीर हो व्यग्र-दिवाना,


जा बह सिंधु-गले मिलता।


मिलन-अमिय-सुख पाकर पगली-


चाहे करना प्रेम अमर।।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


उसे मिलेंगे सजना उसके,


आज नहीं तो निश्चित कल।


इसी लिए तो अस्त-व्यस्त वह,


फिरे खोजती हुए विकल।


जीवन का उद्देश्य यही है-


मिलन सजन सँग अंत पहर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


                      ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


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