*गीत*(16/14,लावणी छंद)
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।
पता नहीं है देश पिया का-
चलती जाए इधर-उधर।
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।।
प्रेम दिवाना,पगला-पगला,
लक्ष्य प्रेम का प्रियतम है।
लोक-लाज की भौतिक-बाधा-
करती राहें दुर्गम है।
प्रियतम से मिलने को फिर भी-
जाती पगली नगर-नगर।
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।।
पग में घुँघरू बाँध बवरिया,
अल्हड़ यौवन-बोझ लिए।
अनजाने-पथरीले पथ पर,
मिलन-आस निज हृदय लिए।
बढ़ती जाए बेसुध आँचल-
बिना कहे कुछ अगर-मगर।
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।।
प्रेम-रंग में रँगी रँगीली,
चलती जाए मतवाली।
नहीं भूख रोटी की उसको,
प्यास न निर्झर-जल वाली।
भूख-प्यास तो देह-पिपासा-
उसपर करती नहीं असर।
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।।
स्वाति-बूँद की चाहत में तो,
चातक विकल सदा रहता।
नदी-नीर हो व्यग्र-दिवाना,
जा बह सिंधु-गले मिलता।
मिलन-अमिय-सुख पाकर पगली-
चाहे करना प्रेम अमर।।
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।।
उसे मिलेंगे सजना उसके,
आज नहीं तो निश्चित कल।
इसी लिए तो अस्त-व्यस्त वह,
फिरे खोजती हुए विकल।
जीवन का उद्देश्य यही है-
मिलन सजन सँग अंत पहर।
पिया-मिलन को चली बावरी,
कंटक से परिपूर्ण डगर।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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