क्रमशः.....*बारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
दोहा-जदि अभ्यास न करि सकहु, करउ कर्म निःस्वार्थ।
कर्म परायण होइ मम,पावहु सिद्धि गुढ़ार्थ।।
जदि करि पुनः अइस अभ्यासा।
समुझि सकेउ नहिं मर्म खुलासा।।
तब मम ग्यान परोक्ष श्रेयस्कर।
त्याग कर्म-फल इच्छा बेहतर।।
देवहि त्याग सांति तत्काला।
मोरि प्राप्ति कै नहीं निठाला।।
सांत चित्त जन परम दयालू।
मद अरु द्वेषयि रहित कृपालू।।
निर्मोही, सुख-दुख समभावा।
छिमासील अस जनहिं सुभावा।।
ध्यानहिं योग युक्त जे योगी।
तन-मन-इंद्रिय-बसी जे भोगी।।
निस्चय दृढ़ी व मन-बुधि-अर्पित।
भगत मोर अस मोंहि समर्पित।।
अस मम भगत परम प्रिय मोरा।
अति सहिष्णु सुनु कुंति-किसोरा।।
मम प्रिय भगतहि मन नहिं खिन्ना।
हर्ष-अमर्ष नहीं उद्बिगना ।।
कर्तापन त्यागी प्रिय मोंहीं।
भक्त अनिच्छ साँच सुनु तोहीं।।
सुभ अरु असुभ सकल फल त्यागी।
सोच-कामना रहित सुभागी ।।
मम प्रिय भगत अहहि ऊ मोरा।
करै भजन मम भाव-बिभोरा।।
मित्रइ- सत्रु,मान-अपमाना।
सरद-गरम सभ एक समाना।।
सुख-दुख-द्वंद्वासक्ति बिहीना।
भक्ति-भाव मन जासु न छीना।।
अस जन मोंहें बहु प्रिय लागहिं।
अस मम भगतहिं परम सुभागहिं।।
दोहा-जे निष्कामइ भाव से,करै अमृतइ पान।
धर्ममयी रस जासु कै,अस मम भगत महान।।
श्रद्धामय रह ततपरइ,मोरि प्राप्ति जे नर।
पावै ऊ मम परम गति,औरु आश्रयइ घर।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
बारहवाँ अध्याय समाप्त।
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