डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः.....*बारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


दोहा-जदि अभ्यास न करि सकहु, करउ कर्म निःस्वार्थ।


        कर्म परायण होइ मम,पावहु सिद्धि गुढ़ार्थ।।


जदि करि पुनः अइस अभ्यासा।


समुझि सकेउ नहिं मर्म खुलासा।।


      तब मम ग्यान परोक्ष श्रेयस्कर।


      त्याग कर्म-फल इच्छा बेहतर।।


देवहि त्याग सांति तत्काला।


मोरि प्राप्ति कै नहीं निठाला।।


     सांत चित्त जन परम दयालू।


     मद अरु द्वेषयि रहित कृपालू।।


निर्मोही, सुख-दुख समभावा।


छिमासील अस जनहिं सुभावा।।


     ध्यानहिं योग युक्त जे योगी।


     तन-मन-इंद्रिय-बसी जे भोगी।।


निस्चय दृढ़ी व मन-बुधि-अर्पित।


भगत मोर अस मोंहि समर्पित।।


     अस मम भगत परम प्रिय मोरा।


      अति सहिष्णु सुनु कुंति-किसोरा।।


मम प्रिय भगतहि मन नहिं खिन्ना।


हर्ष-अमर्ष नहीं उद्बिगना ।।


      कर्तापन त्यागी प्रिय मोंहीं।


      भक्त अनिच्छ साँच सुनु तोहीं।।


सुभ अरु असुभ सकल फल त्यागी।


सोच-कामना रहित सुभागी ।।


      मम प्रिय भगत अहहि ऊ मोरा।


      करै भजन मम भाव-बिभोरा।।


मित्रइ- सत्रु,मान-अपमाना।


सरद-गरम सभ एक समाना।।


     सुख-दुख-द्वंद्वासक्ति बिहीना।


      भक्ति-भाव मन जासु न छीना।।


अस जन मोंहें बहु प्रिय लागहिं।


अस मम भगतहिं परम सुभागहिं।।


दोहा-जे निष्कामइ भाव से,करै अमृतइ पान।


        धर्ममयी रस जासु कै,अस मम भगत महान।।


        श्रद्धामय रह ततपरइ,मोरि प्राप्ति जे नर।


         पावै ऊ मम परम गति,औरु आश्रयइ घर।।


                        डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


                   बारहवाँ अध्याय समाप्त।


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...