डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"*
-जन्मतिथि-04अप्रैल
- पति का नाम ---- श्री राजेश्वर सिंह
- स्थायी पता --- 180ए पाकेट ए-3 ,मयूर विहार फेस 3 ,दिल्ली 96
5- फोन नं.-----9650407240
- जन्म एवं जन्म स्थान--- ग्राम-बलुआ पोस्ट-
मलिकपुर,जिला-सुल्तानपुर (यू.पी.)
शिक्षा----------बी.ए.,एम.ए.(हिन्दी साहित्य),बीएड., पी-एच. डी.
- व्यवसाय-------- शास. शिक्षिका
- प्रकाशित पुस्तकों की संख्या एवं नाम__
प्रकाशन __"काव्यकलश","नवकाव्यांजलि" " "स्वप्नगंधा" सभी साझाकाव्य संकलन
1-"जीवनपथ"तथा 2-"आशादीप"एकल काव्यसंग्रह , 3-"जीवन का समर" कहानी संग्रह 4-''पौराणिक प्रबंध काव्यों में पात्रों का चरित्र ।" शोधग्रंथ
कविताओं का यूथएजेन्डा,नये पल्लव, काव्यरंगोली तथा गुफ्तुगू जैसी प्रसिद्ध साहित्यक पत्रिकाओं में प्रकाशन ।
दैनिक पत्रिकाओं यथा दिल्ली हमारा मैट्रो,
उत्कर्ष मेल आदि में नियमित प्रकाशन ।
फेसबुक तथ व्हाट्सएप से जुड़े साहित्यिक
ग्रुपों में नियमित रूप से कविताएँ भेजना ।
अनुराधा प्रकाशन दिल्ली ।
लेखन का उद्देश्य-सामाजिक विसंगतियांं दूर करना ।
- प्राप्त सम्मान की संख्या यदि 10 से अधिक हैं तो 10 का विवरण दें-
सम्मान -अनुराधा प्रकाशंन द्वारा 1-साहित्य श्री
सम्मान ,2-महिला गौरव सम्मान ,3-साहित्य सागर द्वारा युगसुरभि सम्मान ,माण्डवी प्रकाशंन द्वारा
-साहित्य रत्न सम्मान आदि ।
कविताएं
1- पीड़ा (गीत)
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शाम खिली निशा आई
चाँद लिखे कथा पीड़ा।
झरे चांदनी निर्मल अमित
मन मयूर करता क्रीड़ा।
चांदनी में मधुर मधुर
मिलकर मन डोले।
चार बातें प्रीत भरी
मधुर मधुर वचन बोले।
चितवन की वे स्मृतियां
याद आते वे नैना।
मधुमास मधुवाणी वो
है निशब्द आज बैना।
सदा साथ निभाना है
लेते आज यह बीड़ा।
आकुलमन विचलित लगे
हैं समक्ष कैसी घड़ियां।
कठिन पंथ दुष्कर लगें
नयननीर लगी झड़ियां।
शत्रु खड़ा सामने ही
मनुज हाथ मले डोले।
हृदयमध्य कितने बातें
डोले आज बिनु बोले।
शाम खिली निशा आई
चाँद लिखे कथा पीड़ा।
दग्ध हृदय मध्य सोया
आक्रोश पिये है अनल।
मनुज रचित ये कर्मबीज
फलित आज बनके गरल।
मनुज पर ही टूट पड़ा
मानव का ही ये करम।
बादल से छाये पड़े
टूटे अब सारे भरम।
साफ स्वच्छ पटल हुआ
डोल रही जगत पीड़ा।
डॉ सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली
2- व्याधियां(गीत)
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जीवन थमा सा लग रहा
आंख से निद्रा भी भागे।
अजब-सी पीड़ा जगी है
लग रहे सब हैं अभागे।
नहीं कह सके है कोई
दोषी आज भगवान को ।
कैसी आयी विकट घड़ी
है झेलनी जो मनुज को।
साथी अपने खोते नित
हाथ मलता है खड़ा वो।
सर्वोच्च भी हाथ बांधे
सामने दुश्मन अड़ा जो।
दुर्भाग्य सा खड़ा सामने
परमशत्रु है आज लागे।
बारूद बम सब डरे हैं
दौलतें सब तुच्छ दीखीं।
चांद मंगल सब हैं हंसते
मनुज ने क्या बात सीखीं।
कोरोना निर्माण करके
स्वयं ही तो मौत चुन ली।
खुद बना अपना शिकारी
अपने लिए जाल बुन ली।
कांटा बना सबके पथ का
जग इससे निजात मांगे।
रोग से मर रहे कुछ तो
मर रहे कुछ भूख से भी।
राजा भी अब रोता है
गजब का दिन दिखा ये भी।
डरे-डरे घर में छिपते
स्वजनों से विलग होकर।
कैसे कटेगा दिन भला
खा रहे जो आज ठोकर।
व्याधियां हंसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
डॉ सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली
3- समयगति(गीत)
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मेह बरसेंगे यहां फिर
उष्णता भी है जरूरी।
देखा यह सदियों से ही
निशा बिना न दिवा पूरी।
बसंत भी आता यहां है
चलके पतझड़ के नीचे।
जलप्रलय ले तांडव गहन
बन उपवन वो ही सींचे।
प्रलयंकर हर कालखण्ड
दुनिया जीवन भी पाये।
कठिन घड़ी ये जो आयी
कल मधुरिम दिन भी लाये।
धरा यह फिर से सजेगी
आज जो लगती अधूरी।
जीवन है ये छीज रहा
बिछड़ रहे कितने सारे।
किसी ने मां बाप भाई,
अरु किसी ने पुत्र हारे।
विडम्बना बस है इतनी
यह किया मनुजात का है।
उनको नहीं था ध्यान ये
दोष क्या नवजात का है।
सहज होगा फिर सभीकुछ
आज धर मानव सबूरी।
विश्व कांपता ये थर थर
आज के दिन हैं रुलाते।
छूट जाती गोलियां जो
वापस कब उनको पाते।
इसका किया उसका किया
किया तो ये मनुज का ही।
अब अज्ञात पथ पे चलते
बिन मंजिल चलते राही।
सृष्टि का विस्तार होगा
रिक्तपन अब फिर जरूरी।
डॉ सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली
4-माँ शारदे!(कविता)
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मेरे शब्दों में ऐसी शक्ति दे माँ,
मनभावन मधु्पूरित हो जो ।
क्षमता हो जिसमें नवचेतना का,
संसार को नवपथ दे सके ।
जीवन को दे सच्ची दिशा ,
भ्रमितो को उनकी राह दे ।
माँ शारदे ,कर दे कृपा !
मेरे शब्दों में ऐसी शक्ति दे माँ ।
अमृतभरे शब्दों से ऐसा जोश हो,
हारे थके पथिको में भी ,
नवउल्लास का संचार हो ।
भूले है पथ अपना हैं जो,
उनको उन्हें उनका सही पथ मिल सके।
सत्पथ पर चलें मानव सभी
रामराज्य का पुनः अवतार हो ।
कलुषित कुटिल जायें सुधर ,
उनमें नवचेतना का संचार हो ।
मेरे शब्दों में ऐसी शक्ति दे माँ ।
माँ शारदे ,कर दे कृपा ।
हे जगतमाता महारानी, हेजगदम्बिके,
नारी को मिले सम्मान उनका ,
पीड़ित रहीं सदियों से जो ।
संसार में नव ज्ञान का संचार हो ,
मेरे शब्दों में ऐसी शक्ति दे माँ ।
माँ शारदे ,कर दे कृपा ।
डॉ. सरला सिंह "स्निग्धा"
दिल्ली
5- किसान (कविता)
खटता है दिन रात खेत में
माथे पर श्रमबिन्दु घनी।
शीत घाम संगी साथी हैं
देह दिखे कीचड़ में सनी।
धरती की सेवा करता है
अन्न उगाता फिर उससे।
बहा पसीना अपना चाहे
जीवन सबका ही सरसे।
शीत लहर या लू चलता हो
योगी सा दिन-रात डटे।
धरती का प्रिय पुत्र सरीखा
अपने कर्म से नहीं हटे।
विपरीत समय आड़े आती
उससे रहती कभी ठनी।
साथ लगी बरसा रानी भी
खेतों में खुशियां बरसे।
नहीं कोई रह जाये भूखा
भोजन को न कभी तरसे।
खुशियों के है गीत सुनाती
कृषकों के बल पर धरती।
उनके श्रम के मोती से ही
जन-जन की पीड़ा हरती।
टपक रहा था जब श्रम तन से
रोटी का आधार बनी।
नदियां उसको जल देती हैं
मलय पवन पंखा झलता।
सूरज अपनी किरणें देता
चांद साथ में है चलता।
वन्दनीय है कृषक सदा ही
जगती को जीवन देता।
जीवनदाता के सम लगता
अन्न उगा जगती सेता।
सदा उगाता मोती माणिक
कोई नहीं उस सा धनी।
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