काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 16 मई 2020


डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी 
पत्नी इं0 अमर नाथ त्रिपाठी
जन्मदिन - 11/07/1957
जन्म स्थान,  जिला जौनपुर उ0प्र0
शैक्षणिक योग्यता 
संस्कृत साहित्याचार्य, पीएच ़डी.
 पी.जी. डिप्लोमा पत्रकारिता एवं जनसंचार 
 19/303 इन्दिरा नगर लखनऊ उ0प्र0 226016  
  मोबाइल -   8787009925 , 9415301217
 tripathi.lata@rediffmail.com 
 लेखन विधा – छंदबद्ध काव्य लेखन 
प्रकाशित पुस्तकें – 1 कृति ‘’वर्णिका’’ काव्य संग्रह  2- ‘’मौन मन के द्वार पर (छंदाधारित गीतिका संग्रह)


साहित्यिक उपलब्धियाँ - पुरस्कार एवं सम्मान 
 
 सम्मान - कवितालोक रत्न सम्मान, गीतिका गंगोत्री सम्मान, सारस्वत सम्मान काव्य भारती, ‘”छंद शिल्पी” सम्मान, ”कवितालोक भारती” सम्मान, साहित्य सुधाकर सम्मान (राजस्थान), सारस्वत सम्मान  कवितालोक (1जुलाई 2018), कवितालोक आदित्य -2019 (4 मार्च 2019),  युग्मन गौरव सम्मान, नारी सागर सम्मान द्वारा - विश्व हिंदी रचनाकार मंच दिल्ली  
मुक्तक-लोक लखनऊ उ.प्र. -  गीतिका श्री सम्मान, छंद श्री सम्मान, मुक्तक-लोक  गीत रत्न सम्मान, युगधारा फाउंडेशन द्वारा  साहित्य भूषण सम्मान व समाज भूषण सम्मान 2019
पत्रिका - काव्य रंगोली, (लखीमपुर खीरी) , नारी तू कल्याणी (कानपुर) , शुभ रश्मि (लखनऊ), साया (भोपाल) में  सहभागिता । युगधारा साहित्यिक पत्रिका एवं 'सवेरा' साहित्यिक पत्रिका लखनऊ उ0प्र0 
परिचय --- डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी - पत्नी इं0ए0एन0त्रिपाठी(से0निव0-(उ.प्र.पा.कारपो.लि.)  पिता  स्व0भास्करानंद मिश्र प्रवक्ता( हिंदी )तिलकधारी सिंह कालेज जौनपुर । 
 नाटिका प्रियदर्शिका सम्राट हर्षदेव द्वारा  रचित कृति पर शोध ‘‘प्रियदर्शिका एक समालोचनात्मक अनुशीलन’’ पुर्वांचल विश्वविद्यालय एवं सम्पूर्णानंद विश्वविद्यालय से  संस्कृत साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त किया।


अधोलिखित रचनाएँ ---- 1से 5


          -- 1 --
छंद -मदिरा सवैया (7भगण+2)      
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दौलत के मद भूल गये अपनीति बढी़ अब नीति कहाँ ।
भूल गये पद मान गुमान कुरीति बढी़ अथ रीति कहाँ ।
व्याधि कटे भव संकट घातक प्राण दशा दयनीय जहाँ ।
जीवन साध्य अमूल्य सुधारस मानवता महनीय  जहाँ ।
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घेर रही  बदरी नभ  प्रीतम ज्यों  अँचरा फहराय चली ।  
मोहति ये कजरी मलयानिल से गजरा महकाय चली ।
श्याम अश्वेत खुले घन केश बयार सखी लहराय रही ।
कूज रहे खग झुंड यथा मन को घन पंख लगाय रही ।
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कूज रही वन कुंजन कोकिल शाखन को हुलसाय सखे ।    
  बाग रसालय से  महके  जब   बौरन  से  उमगाय सखे । 
झूम बयार गिरे अमिया बगिया मन को उरझाय  रही ।
नेह भरे सुधि  प्रीतम की पग ते ठुमरी ठुमकाय रही । 
                                         डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
                2
छंद --- लावणी (भजन )
तुम्हें पुकारूँ यशुदा नंदन,दीनों  के हे नाथ सुनो ।
राधा रानी सखी सयानी,आओ लेकर  साथ सुनो ।
यमुना तट हो बंशी बट हो,धेनु सखा के रखवाले, 
भूल गये जो चक्र सुदर्शन,आज उठालो हाथ सुनो ।


विरद बचा लो हे यदुनंदन, त्राहि  मची  उसे  निवारो ।
हे मधुसूदन प्रगट करो निज,शक्ति सकल मान विचारो ।
निस्तेज करो सकल आपदा,वंदन तेरा  करुणामय  ,
युद्धभूमि के योद्धा हम सब, राह  तके सदा तिहारो ।
 तुम्हें पुकारूँ यशुदा नंदन,दीनों  के हे नाथ सुनो । ------                               डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
            -  3 -
आधार छंद विधाता (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 1222,1222,1222,1222
लगागागा, लगागागा, लगागागा,रगागागा।
समांत 'अल' अपदांत
गीतिका -----


दुखी है लेखनी अपनी,कहाँ खोया हमारा कल ।
किया शृंगार कब तुमने,न यादों में उभरता पल ।


मिटा हस्ती रहा अपनी,कि दुर्दिन घातकी बनकर,  
नजर किसकी लगी हमको,न जानें कौन सा ये छल ।


उठाती टीस है जैसे,दरों दीवार ये आँगन,
खिले गुलदान ये हँसते,बढा़ते जो सदा संबल ।


चहकते प्रात किरणों से,झरोखे खोल कर देखो,
मिटेगी वेदना निश्चित,हवायें कह रही चंचल ।


महकते  बौर  घन झूमें, रसालय हो रहा तन्मय,
मुसाफिर क्यों न ठहरेगा,मदिर वाणी सुने कोयल ।


धरा ये  रत्न  गर्भा है, बडी़  मुग्धा  पुनीता है, 
मुकुट मण्डित हिमालय से,जलधि से है तरल आँचल ।


मृदुल मन प्रेम रस घोलो, उठे उद्गार मत रोको,
बहाने ढूँढती खुशियाँ,तनिक तुम खोल दो साँकल ।
               डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
           ---- 4----
छंद-चामर (21,21,21,21,21,21,21,2)
समान्त: अगा<>पदान्त: सखे
गीतिका
                                                     
हार मानना न  मौत  को  गले  लगा सखे  ।
भाग्य वान हो अहो सुभोर को जगा सखे ।


है अतीव वेदना  विराग क्षोभ मानिए ,   
दे रहा अकाल ज्यों कराल ये दगा सखे ।


दौर आ गया समक्ष साहसी बने स्वयं,   
भेद भाव आपसी दुराव को भगा सखे ।   


दूरियाँ भले रहें न बाँटिए समाज को,
एक देश एक राष्ट्र गीत मंत्र गा सखे ।


एकता बनी रहे पुनीत राष्ट्र भावना,
भाव दीप्त यों रहे भले न हो सगा सखे ।


द्वंद्व तो अनेक हैं मिटा सके न नेह को
भूल ये सभी गिले खुशी सभी मँगा सखे ।


प्रेम की प्रगाढ़ता सहे अनंत पीर को,
अर्घ नित्य हो नवीन सूर्य तो उगा सखे ।
                 डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
--------5--------
गीत -----
जागती रातें  कहीं  हमको लुभाती है ।
पीर अंतस की न उनको भूल पाती है ।


शब्द बनकर गीत अधरों पर सदा रहते ।
छंद उनके भाव भंगिम के कहा करते ।
दूर पनघट है गुहारे यों थिरकता मन,
श्याम तेरी बंसरी हर पल बुलाती है ।


धीर मन का खो रहा चंचल हुआ जाता ।
फागुनी चादर उढा़ अंचल हुआ जाता ।
साँवरे के  रंग में सुध-बुध भुलाये जो,
डूब जाने दो मुझे वह प्रीत भाती है   ।


घन सरोवर में खिलेगें वे कमल आनन ।
फाग उड़ते गुनगुनाते जब भ्रमर आँगन ।
युग पुरुष जैसे बना जग का चितेरा तू,
प्रेम वह अनुराग सलिला नित बहाती है।
----------------------डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी


 


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