-अर्चना पाठक
साहित्यिक उपनाम-निरंतर
जन्म तिथि-10मार्च
शिक्षा- एम.एस.सी. (रसायन शास्त्र )B.Ed, एल.एल.बी. व्यवसाय -व्याख्याता (रसायन शास्त्र )
पता -अंबिकापुर
जिला -सरगुजा, छत्तीसगढ़
पिन कोड-497001
मोबाइल नंबर -9424257421
ईमेल -9424257421archana@gmail.com
1 शीशे का खिलौना
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शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ।
दिल पे लगी जो पत्थर
चूर - चूर होता हूँ।
देखी बिकी मोहब्बत
दिल फेंक अदाएँ भी।
करती रही है दावा
कसमें दे वफाएँ भी।
फूलों का बिछौना हूँ
काँटे भी चुभाता हूँ।
शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ।
यादों में उभरती है
भूली हुई तस्वीरें।
कब से इसे है ढूँढे
खोई हुई तकदीरें।
गीतों का तराना हूँ
टूूटी तान गाता हूँ।
शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ।
दिल में छुपी है मेरी
खामोश सी साँसें भी।
कैसे छवि दिखे तेरी।
दुनियाँ की निगाहें भी।
सुनके जहां के ताने
चुपके से सिसकता हूँ।
शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ।
नभ का है रंग नीला
आधा चाँद दिखता है।
कहने को कहाँ दिन में
कभी चाँद निकलता है।
सांझ सुनहरी देख के
प्रेम गीत सुनाता हूँ।
शीशे का खिलौना हूँ
गिर के टूट जाता हूँ।
2-प्रकृति और मानव
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रही प्रकृति सँवारती, मानव तन अनमोल।
पर सोचे नहीं कभी ,सब ले नाप और तौल ।।
दोहन करता रात दिन, फिर भी रहता लोभ।
देख कहर बरसा रही, अब मत करना क्षोभ।।
हमें धूप और छाँव दी, फिर क्यूँ तोड़े बंध।
नियम धर्म नहीं पालना ,होता है वो अंध।।
जान बूझकर पाँव में, मारे वो कुल्हाड़।
अब विपदा में प्राण है, रोये है चिंघाड़।।
प्रकृति सदा फल दायिनी,जब तक सींचे नीर ।
जब छेड़े दुख दे रही ,बढ़ता जाये पीर।।
खाद्य श्रृंखला ध्वस्त है, लगता है विष तीर।
पूरी दुनिया में मचा, गरल बना वो वीर।।
सब कुछ मानव हाथ है, करता नव प्रयोग।
स्व पाँव है काटता, अजब रहा संयोग ।।
अब भी चाहे सँभाल ले, माने सच्ची बात।
राग द्वेष सब छोड़ दे, यही बड़ी सौगात।।
3 विषय-नील गगन
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विधा -गीत
नील गगन का ओर नहीं
दिखता भी कोई अंत नहीं
ऊँचे तरू के गालों पर
नीली सी चादर डाले हुए
आगोश में आतुर भरने को
यूँ औंधे पड़े रहते हैं ।
जिसे नील गगन हम कहते हैं।
साँझ ढले यह मस्त गगन
नित नीला वसन बदलती है
काली सी चुनर डाले हुए
रजनी से आकर मिलती है
निशा की तिमिर भगाने को
यूँ चाँद सितारे रहते हैं
जिसे नील गगन हम कहते हैं।
नभ निकुंज में पंछी बन
उन्मुक्त मन ये गाता है
पिंजरे में कैद शरीर किया
मन क्या कोई बाँध पाता है।
पहरों से भी मुक्त ये रहते हैं
यूँ थोड़ी ठौर मचलते हैं।
जिसे नील गगन हम कहते हैं।
4 नवगीत
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स्थाई पंक्ति 16/15
अंतरा 16/16
झाँक जरा
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चूहा बिल्ली करे तमाशे
धरा धरी करते पुरजोर।
वैमनस्य का कारण ढूँढो
झाँक जरा भीतर की ओर।
हो रही हलचल रण स्थल में
कब मिल जाये वो कहीं और।
बरसों बीते बैर पुरानी
अमराई की छईयाँ ठौर।
छोटी सी इक बात न रूठो
जाने न कभी मन का चोर।
वैमनस्य का कारण ढूँढो
झाँक जरा भीतर की ओर।
तृण कालीने पाँव सजाये
हिल हिल रज को दूर भगाये
रवि किरण को चुप है चुराके
निशि रानी है पाँव दबाये।
स्याह चादर घुप्प अंधेरा
चंद्रकिरण रूठी चहुँ ओर।
वैमनस्य का कारण ढूढो
झाँक जरा भीतर की ओर।
5 हास्य गीत
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मेरे पिया से हो गई जंग
मैं घर से निकल पड़ी।
रास्ते में मिलते गये मलंग
अचानक मैं फिसल पड़ी।
आगे-आगे जाऊँ
मेरे पीछे पीछे भागे।
तब मुड़ के जो देखूँ
आजू-बाजू नीचे ताके।
मैं तो हो गई आड़ी तिरछी
कनखियों से बड़ी तंग
मैं घर से निकल पड़ी।
मेरे पिया से हो गई जंग।
मैं....
भूख लगी पिय जी को
याद मेरी आई कसम से।
पड़ोसन से पूछ कर
बमुश्किल रोटियाँ सेंकी तब ।
जली रोटी की जली सी गंध
उड़ा रही मुख का रंग ।
मैं घर से निकल पड़ी
मेरे पिया से हो गई जंग।
मैं...
देर आधी रात को
वो निकले खोजने सड़क पे।
बिखरे हैं बाल देख
आधे खिले उजड़े चमन पे।
इधर -उधर खोजते गाँव गली
बन रहे मजनूँ विहंग
मैं घर से निकल पड़ी।
मेरी पिया से हो गई जंग।
मैं.....
मिली नहीं जब मैं तो
बैठ जाये बड़े अनशन पे।
हर पल की खबर मिली
मुझे पड़ोसन के समधन से।
तिजोरी धीरे कर गई साफ
जाने किसके हो संग
मैं घर से निकल पड़ी।
मेरी पिया से हो गई जंग
मैं.....
अर्चना पाठक 'निरंतर'
अम्बिकापुर ,छत्तीसगढ़
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