मधु शंखधर 'स्वतंत्र'
पति- व्रजेश कुमार शंखधर
जन्म - १५ अगस्त
स्थान - प्रयागराज
शिक्षा-स्नात्कोत्तर ( हिन्दी, इतिहास )
विधा - गद्य, पद्य लेखन
कथा,कविता,नवगीत,सामयिक लेख,निबंध, यात्रा वृतांत,इत्यादि।
प्रकाशन - विभिन्न राष्ट्रीय स्तरीय पत्र- पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशन ( प्रणाम पर्यटन, साहित्य समीर,सरिता संवाद,मेरी संगिनी, कर्मनिष्ठा,शब्दलोक इत्यादि पूर्वांचल प्रहरी समाचार पत्र )
सम्मान - मेघालय राज्यपाल द्वारा गोयनका स्मृति सम्मान प्रपत्र,व महाराज कृष्ण जैन सम्मान प्रपत्र।
के.बी. हिंदी साहित्य समिति द्वारा शांति देवी अग्रवाल स्मृति सम्मान प्रपत्र,जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी द्वारा गोस्वामी तुलसीदास सम्मान इत्यादि।
व्यवसाय - अध्यापन
पता - ७०/५३/एस - २०४ सूर्या विहार अपार्टमेंट,बलरामपुर हाउस, ममफोडगंज इलाहाबाद( उत्तर प्रदेश)
थाना- कर्नलगंज
प्रयागराज
मो0 9305405607
ईमेल madhudhar76@gmail.com
(मधु शंखधर 'स्वतंत्र' )
भजन
मोहन मधुर बजाए बंशी, प्रेम मगन हो इतराऊँ।
वृन्दावन में रास रचाने, कर श्रृंगार सुखद जाऊँ।।
मन मयूर हो नृत्य करे जब, पंख मगन हो बिखराऊँ।
तेरी बाहों में मैं झूलूँ ,नील गगन को छू जाऊँ।
तेरी उलझी लट जो देखूँ, उँगली से मैं सुलझाऊँ।
मोहन मधुर बजाए बंशी.............।।
श्याम अधर जब धरे बाँसुरी,मीठी तान बजा जाए।
अन्तर्मन के सहज भाव ले, मेरे दिल तक आ जाए।
सुगम सुरीली तान सुनूँ जब,पूर्ण रूप मैं बलखाऊँ।।
मोहन मधुर बजाए बंशी...............।।
वृंदावन में सभी गोपियाँ, राधा रानी कहती हैं।
नटवर नागर मेरे प्रियतम,सुर सरिता में बहती हैं।
सात सुरों के सरगम में मैं,राधा ही बस सुन पाऊँ।
मोहन मधुर बजाए बंशी.............।।
प्यार हमारा गोपाला तुम, गीत सुनाते तुम ऐसे।
मेरे दिल में तुम बसते हो, लगते हो धड़कन जैसे।
रासबिहारी तुमको देखूँ, सुध- बुध अपनी बिसराऊँ।।
मोहन मधुर बजाए बंशी।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
*9305405607*
चलो गाँव की ओर
विह्वल मन आकुल ह्रदय, कैसे टूटी डोर।
मन आनंदित हो जहाँ, चलो गाँव की ओर।
हरियाली बाकी नहीं, बनी इमारत खास।
न द्वारे तरूवर दिखे, टूट रहा विश्वास।
जहाँ वृक्ष में देव हों, खेतों में धन धान्य।
ऐसे सुंदर गाँव की , छवि मेरी चितचोर।
मन आनंदित हो ................।।
माटी के घर याद में, फ्लैट बसाएँ रोज।
पानी में भी कर रहे, मिनरल की ही खोज।
ताल, तलैया ,बाग से, सजता है जो गाँव।
पक्षी नित कलरव जहाँ, नाचे सुंदर मोर।।
मन आनंदित हो..................।।
साधारण जीवन बसे, सीधे सादे लोग।
अपनेपन का भाव बस,पौष्टिक होता भोग।
बंधन की महिमा सजग, सुदृढ़ बसे समाज।
अतिथि पूजे देव सम, मधुमय होती भोर।
मन आनंदित हो...................।।
न लज्जा न संस्कृति, ऐसा बना समाज।
स्वार्थ लिप्त मनु हो यहाँ,करता है सब काज।
सभ्य समाज संग एकता, बसता अपने गाँव
गाँव जहाँ संस्कृति बसे,प्रेम भाव पर जोर।
मन आनंदित हो जहाँ,चलो गाँव की ओर ।।
जहाँ बसे संयुक्त घर,द्वारे पर हो नीम।
संग बैठे बातें करें, पंडित और हकीम।
खलिहानों में गाय हो, मुर्गा, बकरी साथ,
सदा एकता की बंधे ,मधु जीवन की डोर।।
मन आनंदित हो.......................।।
भारत ही वह देश है, बसते सुंदर गाँव।
गाँवों में संस्कृति बसी, सदा एक ही ठाँव।
गाँवों से बसते नगर, नगर बसाए देश,
मूल कभी मत भूलिए,मधु कहती यह बोल।
गाँव सदा ही श्रेष्ठ है, चलो गाँव की ओर।।
मन आनंदित हो ।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
*लमाँ शारदा का वंदन
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प्रिय ऋतु बसंत पावन,धरती का रूप चंदन
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।
माँ धवल वस्त्र धारी, है हंस पर सवारी।
है कर में बजती वीणा, पुस्तक व पुष्प धारी।
आराधना करे जो , बन जाये माँ का नंदन,
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।
धरती *पे* बाल कितने, अज्ञान रूप फिरते।
छल दम्भ शीश धरते, अज्ञानता से घिरते।
माँ की शरण में आकर, करते हैं फिर वो क्रंदन
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।
माँ को बसंत भाए, धरती भी मुस्कुराए।
मन भाव आयें पावन, उर में प्रकाश छाए।
माँ मधु को वर ये दे दो, क्षमता में हो न मंदन
जो हिय में ज्ञान भरती, माँ शारदा का वंदन।
--मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
*गीत*
यह गीत मांडवी का भरत से वियोग होने पर उनकी मनोदशा को व्यक्त करते हुए है....
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बँध संबंधों के बंधन से,
आओ कुछ पल संवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं को,
कुछ भूल चलें, कुछ याद करें।
जब राज्य मिला वह त्याग दिया,
मुझको पर क्यूँ त्यागा तुमने।
परिणय बंधन में बाँध मुझे,
सीमा को क्यों लाँघा तुमने?
जब तुमने ही त्यागा मुझको,
तो हम किससे फरियाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.......।।
माँ कैकेयी के लाल तुम्हीं,
मेरे जीवन संसार बने।
हिय में प्रिय रूप बसा है यूँ,
बस तुम ही तो आधार बने।
जब तुमने प्रेम भुला डाला,
तब हम क्या इसके बाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.........।।
क्यूँ स्वप्न दिखाए थे हमको,
जब रघुकुल रीत निभानी थी।
क्यूँ ब्याहा? लाए थे हमको,
जब भाई प्रीत सुहानी थी।
तुम धरे खड़ाऊँ माथे पर,
फिर हम कैसे आह्लाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.......।।
कैकेयी नंदन दशरथ सुत ,
मेरा अपराध बताओ तो।
कैसे जीवन का दंश सहूँ,
हमको यह राज सिखाओ तो।
हम भी तो चंचल नदिया थे,
पर कैसे अब उन्माद करें।
जीवन की अमिट कथाओं......।।
माँ की करनी का फल दे कर,
मुझको ही त्याग दिया तुमने।
श्री राम गए थे वन लेकिन,
खुद ही वनवास लिया तुमने।
इस राजमहल में खुश क्या हों,
किस किस से हम प्रतिवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं.......।।
हे भरत! अयोध्या है सूनी,
मांडवी अभी भी रोती है।
जब भाग्य सोचती है अपना,
अपने आँसू मन धोती है।
ऐसा अनुपम जीवन साथी,
फिर क्यूँकर हम अपवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं......।।
यह त्याग सहज करके तुमने,
रघुकुल का मान बढ़ाया है।
क्या होगा त्यागी फिर तुमसा?
यह प्रश्न हृदय में आया है।
हे प्राणाधार भरत मेरे,
तुम संँग ही जग मधु नाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं......।।
बँध संबंधों के बंधन से,
आओ कुछ पल संवाद करें।
जीवन की अमिट कथाओं को,
कुछ भूल चलें, कुछ याद करें।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
कुंती का ही दोष नहीं था
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कुंती का ही दोष नहीं था, फिर भी वह दुख पाती है।
द्वापर युग की नारी में वो, क्यूँ निकृष्ट कहाती है।
कोमल मन था भाव सरल थे, सबको ह्रदय बसाए थी।
अतिथि आए द्वार पे जब भी, सेवा भाव सजाए थी।
धरा सदा ही भाव भी निश्छल, सर्वोच्च सदा आदर जाना।
सप्त ऋषि आए दुर्वासा, सेवा को ही व्रत माना।
हुए प्रसन्न ऋषि दुर्वासा,कुंती को आशीष दिया।
ऐसा था आशीष ये अद्भभुत, मन से वो भरमाती है।
द्वापर युग की नारी....................।।
सच है या मिथ्या न जाने,मिला उसे ऐसा वरदान।
किया प्रयोग तभी कुंती ने, जाने क्या है इसका मान।
प्रथम उपासना करी रवि की, हुए प्रसन्न तभी भगवान।
गोद भरी तब आकर उसकी, दिया पुत्र अनुपम बलवान।
एक कुंवारी कन्या का यह, कैसे बन जाता अभिमान।
इसी मान का दंश तो कुंती, पल पल सहती जाती है।
द्वापर युग की नारी....................।।
सप्त ऋषि ज्ञानी दुर्वासा, कैसे दे दिए ये वरदान।
सूर्य देव का मान करें क्या, बिन सोचे कैसा यह मान?
दिया अबोध कुंती को वर ये, कैसे करती वह भक्ति।
देख समाज की अटल स्थिति,कैसे बनती वह शक्ति।
विचलित होकर उसने हिय से, ऐसा तब व्यवहार किया।
त्याग दिया था पुत्र प्रेम को, हिय भार वहन कर पाती है।
द्वापर युग की नारी ....................।।
कैसे दोष दिया कुंती को, वो तो थी बस इक अनजान।
दोष यहाँ किसका है सोचो, दोषी की क्या है पहचान?
कुंती के अनुकूल नहीं था, समय स्थिति अरु वो काल।
इक अनजान अबोध सुता , समझ सकी न कोई चाल।
इसी बोध से सुत को अपने धारा नदी बहा कर वो,
करती रही वही कृत वह तो
, नियति जो करवाती है।
द्वापर युग की नारी ...................।।
मधु शंखधर स्वतंत्र
प्रयागराज
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