काव्य रंगोली मजदूर दिवस 2020 कविताये

विश्व श्रमिक दिवस 1 मई दिवस 2020 पर काव्य रंगोली पटल पर प्रस्तुत की रचनाये याआप सभी को बहुत बहुत बधाई एक सन्देश याआप लोग प्रत्येक पर्व पर देशकाल परिस्थिति पर कुछ न कुछ लिखिए ओर सभी का लिखा पढिये मेरा दावा है अगर आप ने सभी को पढ़ लिया तो निश्चित जी एक सफल लेखक बनोगे।


 


*मजदूर*
डॉ. उर्मिला पोरवाल बैंगलोर


सुनो तो एक शब्द।
मानो तो एक वर्ग।।
जानो तो एक कथा ।
समझो तो एक व्यथा।।
ना समझो तो...
ना समझो तो सिर्फ एक शब्द।।।


मजदूर...
वह जिसका जन्म  न मरण।
वह जिसका न कोई आवरण।।
वह जिसकी  मुखमुद्रा निर्विकार।
वह जिसका जीवन हाहाकार।।


मजदूर...
वह जिसकी ना कोई पहचान।
वह जिसका न कोई घर न मकान।।
वह जिसका ना नाम  ना खानदान।
वह जिसका ना कोई रिश्तेदार 
वह जिसका न कोई दोस्त यार।।


मजदूर...
वह नहीं जो सड़कों पर सोता है।
वह नहीं जो खाली पेट जीता है।।
वह नहींं जो जीवन का रोना रोता है।
वह नहीं जिसके पास खेत खलियान नहीं।
वह नहीं जिसकी कोई शान नहीं।।


मजदूर
वह जो जीवन का मर्म नहीं जाना।।
वह जो अपने कर्म को नहीं पहचाना।।
पराधीन और स्वार्थपरक जीवन यापन।
जीवन जिसका विज्ञापन।।  



मजदूर
शब्द व्याख्यात्मक, विस्तार से समझना है।
यह वर्ग जाति या समाज नहीं है।
  वे सभी संसार में मजदूर है ।
जिनके जीवन में परवाज नहीं है।।



श्रमिक
---------


मानव में एक वर्ग है, वर्ग  है  बड़ा  महान।
खून पसीना एक कर, करते श्रम का दान।
देश के नवनिर्माण में  इनका बड़ा  महत्व-  
इनके  दम से राष्ट्र  की  होती  है पहचान।


श्रमिक राष्ट्र की रीढ़ है, उन्नति का आधार।
श्रम से  देते विश्व को, ये अनुपम  उपहार।
नमन करें श्रमदेव को शत् शत् करें प्रणाम-
श्रमिक दिवस पर मानते हम इनका आभार।


श्रमिक नहीं करते कभी निज अपना गुणगान।
करते  श्रम  से  ही  सदा  उन्नति  का आह्वान।
प्रगति  के  नायक  जियें  जीवन  सरल  सदैव-
जिसके अधिकारी श्रमिक पाते नहीं सम्मान।


रिपुदमन झा "पिनाकी"
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित



लघुकथा
मजदूर


यदि कोई मजबूरी न हो तो कोई मजदूरी न करें ।आखिर मजदूर के हिस्से में आता क्या है? न सुख, न चैन ,केवल भूख और प्यास की अग्नि ही मजदूरी करने के लिए विवश करती हैं -कहते हुए दिनेश कीआँखें डबडबा गईं यह कैसी व्यवस्था है कबूतरी ! दिन-रात की मेहनत के बाद भी हमें भरपेट भोजन नहीं मिलता। हमारे बच्चे अच्छे भोजन और कपड़े के लिए तरसते हैं ।'पति को ढाँढस बँधाते हुए कबूतरी बोल पड़ी_' अपना दिल छोटा न करिए जी !सब ठीक हो जाएगा !अरे, क्या ठीक हो जाएगा । अब जिंदा बचेंगे तब तो...। देखो कैसे हमारे जैसे लाखों मजदूर इधर-उधर भटक रहे हैं ।न रहने का ठिकाना , न खाने का सामान । दिन भर खड़ा होने पर कहीं एक समय का भोजन मिल पाता है जिससे जिंदा रह सकें।उससे भूख तो नहीं मिटती,  एक- एक दाने के लिए बच्चे बिलखते हैं।
 कबूतरी ने कहा_' इतना दुखी क्यों होते हैं? इसे नीयति का खेल समझिए ‌। उन दरिंदों से तो हम अच्छे ही हैं जो गरीबों के हिस्से का अन्न - धन अकेले गटक जाते हैं । निर्धनों के रुपए चुरा कर आलीशान महल बना लेते हैं। अरे कबूतरी!उस महल  का एक-एक  ईंट हम मजदूरों के खून- पसीने से जुड़ता है ।हम तो न घर के रहे, न घाट के ' बीच में ऐसे अटके जिसका कोई सहायक नहींं । कोई शौक पूरी करता है कोई जरूरतें ।  हम मजदूर भला क्या पूरी करेंगे ।


         डॉ. प्रतिभा कुमारी पराशर
         हाजीपुर बिहार


 


मज़दूर दिवस पर नवगीत


सार्थक कदम उठाओ
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हमको ज्यादा झूँठी-सच्ची
और नहीं समझाओ
मन से मानव धर्म निभाओ,
कुछ अच्छा कर जाओ


खूंन-पसीना करके हमने
बिल्डिंग बहुत बनाई
किन्तु भाग्य में अब तक अपने
झोपड़िया ना आई
तिल का ताड़ बनाते हरदम
हमको मत सिखलाओ


गाँव छोड़ मायूस बहुत हैं
शहर गये सपने
भूखे-प्यासे मारे-मारे
घूम रहे कितने
इसकी भी चैनल में चर्चा
कभी-कभी करवाओ


भेद-भाव के पर्वत ऊँचे
दूने रोज़ बढ़े हैं
सामन्ती शोषण के प्रकरण
कितने नये गढ़े हैं
बना आँकड़े अपने मन के
झूंठे मत दर्शाओ


चैनल-प्रिन्ट मीडिया घूमैं
विग्यापन बड़बोले
बोले हो जब भी जनता का
जियरा धक-धक डोले
हर फन में माहिर हो राजा
समाधान कुछ लाओ


सतरंगी सपने दिखलाये
पग-पग पर खिलवाड़
किये अनैतिक कार्य अनेकों
राष्ट्र भक्ति की आड़
जय जयकार करें यदि ढंग के
सार्थक कदम उठाओ


हमको ज्यादा झूँठी-सच्ची
और नहीं समझाओ
मन से मानव धर्म निभाओ,
कुछ अच्छा कर जाओ
              *
01मई 2020
~जयराम जय
'पर्णिका'बी -11/1,कृष्ण विहार,
कल्याणपुर,कानपुर-208017(उ.प्र.)
मो.नं.9415429104 ;9369848238
E-mail:jairamjay2011@gmail.com


 


मजदूर
मजदूर कहो या श्रमिक
मुझे दे दो कितने ही नाम
निरंतर कार्य करना ही मेरा काम
चाहे खेतों में काम या  बोझा ढोना
लोगों के कार्य बोझ को कम करना
मुझे कब और कहां आराम मिलना
शारीरिक श्रम सस्ता है
इसीलिए मजदूर चिलचिलाती धूप में पिसता है
मानसिक श्रम महंगा है
इसीलिए ए सी में पलता है
मेरी पसीने में बहती वेदना पीड़ा को धनी क्या समझेगा
उसके लिए तो रुपया ही सब कुछ होगा
अंत में बीमारियों से लड़ कर दम तोड़ना
यही मेरी पराधीनता
क्या ईश्वर के यहां कभी न्याय होगा?
मजदूर भी कभी धनवान होगाl
जय श्री तिवारी खंडवा



नाम- शकुंतला (पावनी)
पता-1007,42B, चंडीगढ़
E mail id-shakuntlamukherjee@g mail.com
मोबाइल-7087839219
कविता का नाम मज़दूर
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मज़दूर समाज का वो तबका
जिसपर टिकी आर्थिक उन्नति
आज का युग मशीनी है फिर भी
मज़दूर की महत्ता कम नहीं हुई।
उद्योग कहो या व्यापार ही हो
कृषि, पुल या भवन निर्माण ही हो
मज़दूर का श्रम ही काम आए
मज़दूर ही बेड़ा पार लगाए।
मज़दूर है बेचता श्रम अपना
बदले में मजदूरी पाता है
चाहे वो किसी भी प्रांत का हो
ख़ून पसीने की उसकी कमाई
अथक परिश्रम भी साथ मिला दें
तो उभरती तस्वीर मज़दूर की ही
घोर परिश्रमी उसका जीवन
मुंह अंधेरे वो जग जाता है
करता है मेहनत दिन रात की वो
फिर ही दो वक्त खा पाता है
सारे दिन की अथक मेहनत के बाद
जब रात को वो घर आता है
तब अपने मेहनत की रोटी खाकर
चैन की नींद सो जाता है।।


( स्वरचित, मौलिक रचना )



दिनांक 01/05/2020
विषय - विश्व मजदूर दिवस 
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏


आओ श्रमिक दिवस मनाएं।
श्रम शक्ति को शीष मनाएं
श्रमिक शक्ति ही जीवन में, 
हर जगह पर काम आए।


ठिठुरन भरे  मौसम में ,
श्रमिक जरा भी घबराएं ।
आंधी औ तूफान में भी ।
श्रमिक जरा भी नही डराएं।


जंगल हो बीच सड़क हो,
आगे आगे कदम बढाएं ।
कैंची कन्नी हथौड़ा तसल,
लिए कारखाने  चलाएं।


निज श्रम स्वेद सीकर से,
एक एक पैसा रोज कमाएं,
उसके हाथो से गणेश नित,
महलों भवन और सराएं।


अपनी गरीबी मे मगन,
रूखी सूखी रोटी खाएं।
विश्व  मजदूर दिवस पर
एक सम्मान का हाथ बढाएं ।


स्वरचित मौलिक रचना के साथ सौदामिनी खरे रायसेन मध्यप्रदेश



वेबसाइट में प्रकाशनार्थ 


मजदूर दिवस पर 


श्रमिक 
———
१••••
हाँ 
बना 
श्रमिक 
अनपढ़ 
आज व्यथित 
छोड़ महानगर 
जाता अपने गाँव।
२••••
ये 
दुष्ट 
आपदा 
छीन रही 
सुख आराम 
नहीं है विश्राम 
काम मिलता नहीं।
३••••
है 
भूखी 
संतान 
निरुपाय
मिले भोजन 
इन्हें भरपेट 
सोचता है हृदय।
४••••
हैं 
दूर 
सपने 
शिक्षा वस्त्र 
प्राथमिकता 
सबका भोजन 
तत्पश्चात् हो अन्य।
५••••
है 
बनी
वैश्विक 
महामारी 
बेरोजगार 
हुए निराधार 
छूटते नगर गाँव।
६••••
ये 
बने
महल 
दुमहले
अथक श्रम 
बदला मौसम 
नहीं रहा आकार।
७••••
है 
स्वर्ण 
सज्जित
हँसे धरा
श्रम सीकर 
करते पोषित 
शस्य श्यामला भूमि।
~~~~~~~~~~~~~
स्वरचित 
डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून, उत्तराखंड


मेरी कविता आपकी नजर। 🙏
ये मजदूर ।
ये मजदूर ,
जो कपड़े, जूते बनाते हैं, 
उन्हें पहनते नहीं, 
जो आलीशान बंगले बनाते हैं, 
उनमें रहते नहीं, 
जो लज़ीज़ खाना पकाते हैं
वो खाते नहीं, 
जो फैक्ट्रियां चलाते हैं, 
उसका सामान वापरते नहीं, 
ये मजदूर बस काम किए जाते हैं, 
क्या सिर्फ 
पेट की आग बुझाने के लिए ? 
दो वक़्त की रोटी के लिए ? 
अपने परिवार के लिए ? 
अपने सपनों के लिए? 
ये मजदूर 
अपने घरों से दूर शहरों में बसेरा डालते हैं, 
सहते हैं भूख ,प्यास , जुदाई और ग़म , 
 रहते हैं दूर,
गांव की गलियों से,
खेतों में झूमती बालियों से, 
अपनी मिट्टी की महक से , 
मांँ के हाथ की रोटी से ,
बैलों के घुंघरुओं की रुणझुण से  ,
नहर की कल कल बहती धार से ,
गोरी के सादा श्रृंगार से ,
रहट के बजते राग से, 
पीपल की ठंडी छांव से , 
झूलों की ऊंची पेंग से, 
बड़े - बूढ़ों के प्रेम से, 
ये मजदूर
 गंवाते है अपनी नींद, 
बेचते है अपना पसीना, 
ये मजदूर 
चढ़ाते  हैं, 
हमारी उम्मीदों को परवान ,
बदलते हैं, 
हमारे सपनों को हकीकत में,  
भरते हैं 
अनगिनत रंग हमारे सपनों में, 
बनाते हैं ,
हमारी ख्वाहिशों की बुलंद इमारतें 
अपने मज़बूत इरादों से, 
गढ़ते हैं ,
एक सभ्य समाज अपने छेनी हथौड़े से। 
गांवों और कस्बों की गलियों से निकले ये मजदूर, 
अपना सब कुछ पीछे छोड़ कर आते हैं, 
तराशने वो जगह जो शहर कहलाते हैं, 
असल में 
ये मजदूर ही तो हिंदुस्तान चलाते हैं।
      - डॉ . विनीता अशित जैन . 
               अजमेर।



मजदूर दिवस
पांच सितारा भवन बनाएं , 
गुमनामी में खुद रह जाये ।   
मालिक देते आधे दाम ,   
हक मांगे तो उखड़े दोनों कान ।
ये है अपने श्रमिक महान !
सुबह सवेरे घर से निकले
 लिये पोटलिया में सामान ! 
पत्नी और बालक भी इनके , 
तोड़े श्रम के सब उपमान !
ये है अपने श्रमिक महान !
हमारे देश के सभी श्रम वीरों को मेरा हार्दिक नमन !
डॉ अर्चना प्रकाश लखनऊ



मजदूर 


रोजी रोटी रोज की कमाने निकल चले,
आसान करने काम जमाने निकल चले|
हम तो हैं मजदूर हम तो हैं मजबूत जो,
मेहनत कर पसीना बहाने निकल चले||


दिनभर भागा दौड़ी और काहे का आराम,
मलिक का आदेश से लग कर सुबह शाम|
करते हैं जो डट कर रख परिवार का ध्यान, 
ज़िन्दगी में बस करना होता कामों में काम||


थके हुए हैं या हारे से फर्क कहाँ हैं पड़ता, 
रोज पसीना बहा बहा कर मरता है मरता|
एक दिन यदि गया नही तो क्या न होगा,
बच्चे भूखे रह जायेगा इसी बात से डरता||


कड़कती धूप चाहे गर्मी के दिन हो कठिन, 
बरसात भरा मौसम हो या ठण्डी के दिन|
अपना पेट तो पालना है एक मजदूर को, 
काम कहाँ चलता है भला मजदूरी के बिन||


सूरज कुमार साहू नील, 
बान्धवगढ़ उमरिया मप्र, 
#स्वरचित_रचना मजदूर दिवस पर विशेष 01-05-2020 शुक्रवार



दिन--शुक्रवार
दिनाँक--01.05.2020
विषय-- * *मजदूर* *


मुक्तक
******


मजदूरी कर ,बहा पसीना,पैसे चार कमाता हूँ।
उदर क्षुदा तब इस दुनिया में  ,मैं मजदूर मिटाता हूँ।
धनवानों मेहनतकश की तुम, मेहनत को अब पहचानो,
कामचोर मैं नहीं काम कर ,घर -परिवार चलाता हूँ।


कुण्डलिया छंद
************
(1)
 *मज़दूरी*  में    जुट  गया,   गयी   पढ़ाई  छूट।
भूख ग़रीबी ने    लिया, सारा    बचपन   लूट।।
सारा बचपन लूट,न कोई   छत    है  सिर पर।
करूँ रात -दिन काम  ,जिऊँ मैं  हर पल   डर कर।
भोजन   और    भूख में है यह कैसी  दूरी।
मिलता जो दो  जून,  नहीं     करता  मज़दूरी।।


 *(2)* 
रोटी के लाले पड़े,भटक रहे *मजदूर* ।
काम, दिहाड़ी के बिना,आये घर से दूर।।
आये घर से दूर, कमाने को कुछ पैसे।
दिखा रहे दिन आज,निवाले मिलते कैसे।
कोई करता मौज,किसी की किस्मत खोटी।
विनती है भगवान,सभी को देना रोटी।।
 *(3)* 
रोटी प्रिय सबको सदा,रंक या कि हो भूप।
शांत करे सबकी क्षुधा,इसके विविध स्वरूप।।
इसके विविध स्वरूप,कला,सेवा श्रम सम्मत।
करती तन-मन पुष्ट,बदल  देती है रंगत।
खाते छप्पन भोग,रकम जो पाते मोटी।
दिन भर करते काम, *श्रमिक* तब पाते रोटी।।
 *(4)* 
रोटी होती कीमती,करो नहीं बर्बाद।
भूखे को दो प्रेम से,खाए लेकर स्वाद।।
खाए लेकर स्वाद,तृप्त तन-मन हो जाए।
देकर आशीर्वाद,तुम्हारी महिमा गाए।
'नीर' भूख की पीर,बढ़ी ज्यों लगे चिकोटी।
 *श्रमिक* बहाकर स्वेद,कमाता है दो रोटी।।
 *(5)* 
रोटी सूखी खा रहा,बेबस है *मजदूर* ।
महँगाई की मार से,दीन-हीन मजबूर।।
दीन- हीन मजबूर,व्यथा अब किसे सुनाए।
बेटी हुई जवान,ब्याह की फिक्र सताए।
'नीर' बना कृशकाय,बदन पर फटी लँगोटी।
धन होता जो पास,चुपड़ कर खाता रोटी।।


---श्रीमती स्नेहलता'नीर' 
रुड़की



विषय मजदूर दिवस
 दिनांक 1_5_2020
विधा कविता


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
  कौन  बनाता  हिंदुस्तान
 भारत का मजदूर खेतान
 मेरे शहर का नाम था झंडा चौक
 अब उसका नाम हो गया है
 अब नाम है लेबल चौक है
 सुबह होती ही मजदूरों का समूह आ जाता है वहां पर
 चेहरे पर उदासी हाथ में रस्सी ओझार लिए आता है
 काम ना मिलने की वजह से भगवान से प्रार्थना करता है
लपक जाते हैं उस और जहां कोई मालदार सेठ आया है
 मजदूर लेनी लगता है आज काम मिल जाएगा  नहीं तो आज भी भूखे पेट सोना पड़ेगा  और वह  धनवान व्यक्ति मूल भाव करने लगता है
 काम पर लगनी के बाद मजदूर सोचता है आज रोटी का टुकड़ा मेरे परिवार के भूखे पेट मैं चला जाएगाl


 संतोष अग्रवाल (सागर) मुकाम पोस्ट साली चौक मध्य प्रदेश उपनाम सागर✍



मजदूर हैं हम मजबूर नहीं 
चलता हैं 
परदेश कमाने
हाथ में थैला तान
थैलेमें कुछ चना ,चबेना
आलू और पिसान !१!
टूटी चप्पल ,फटा पजामा
मनमें कुछ अरमान
ढंग की
जो मिल जाये
मजूरी तो
मिल जाये 
जहान!२!
अभिलाषा देशपांडे 
डोंबिवलीपू(मुंबई )



दोहे
########


बेबस मजदूर
**********
बंद हो गए काम सब, बैठे सब मजदूर।
हैं अपनों से दूर ये, मिलने से मजबूर।।


पैदल ही सब चल पड़े, वाहन मिला न कोय।
 देख लिया है दूर तक, साधन दिखा न कोय।।


इन बेबस लाचार पर, पड़ी वक्त की मार।
फैलाओ नहि संक्रमण, कहती है सरकार।।


जाना संभव है नहीं, वापस अपने प्रान्त।
जाने कब होगा यहाँ, बंदी का अब अन्त।।


भोजन बिन कैसे रहें, हम लाचार गरीब।
किंतु कमाने का नहीं, सूझे कुछ तरकीब।।


जीवन कटता आस पर, हैं जो दानी लोग।
कृपा करें वे लोग तब, मिलता भोजन भोग।।


संकट के इस काल में, पता चला है आज।
मानवता इंसानियत, से है भरा समाज।।
  रूणा रश्मि राँची , झारखंड


*मैं मजदूर हूँ*


मैं मजदूरी करता हूँ 
मजदूरी मेरा काम है
दिन भर मेहनत करता हूँ 
फिर मिलता आराम है
थका हुआ घर आता हूँ
राशन साथ में लाता हूँ
परिवार के साथ वही खाकर
फिर चैन से मैं सो जाता हूँ
आज महामारी ने मुझको
मजदूर से मजबूर बनाया है
बिना मेहनत के भोजन को
बिना मन से मैंने खाया है
हम मजदूरों की मजदूरी पर
कोरोना ने कहर ये ढाया है
बीमारी का ये संकट आया है
लेकिन लाचार नहीं है हम
शासन के साथ खडे हैं हम
बीमारी से बर्बादी न हो
इस कारण घर में रहे हैं हम
मैं मजदूर हूँ, देश की खातिर मजबूरी सह लूँगा
बिना मजदूरी के भी कुछ दिन
जीवन यापन कर लूँगा


मीना विवेक जैन



✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻🇮🇳✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻✍🏻


~~~~ *मजदूर* ~~~~


मजदूर दिवस कहो या श्रमिक दिवस ,
दोनो ही तो ही एक ही है ,
आज पूरी दुनिया इसी के बदौलत ,
सभी क्षेत्रों मे विकाशशील है ,
जो अपने खून पसीना बहा कर ,
विश्व के विकास मे तत्पर है ,


आज ना मजदूर होते तो ,
किसी भी देश की , समाज की, उधोगो का अस्तित्व नही होता ,
मजदूरों का सबसे अधिक योगदान है ,
हर क्षेत्रों मे मजदूर का पसीना लगा है ,
चाहे वो घर हो , फैक्ट्री हो , बगीचा हो ,
या दुनिया की बेस्किमती ताजमहल हो ,


आज मजदूर अपनी जीवन दांव पर लगाकर ,
कोयले के खदानों से कोयला निकालते है ,
अपना जान भी गवा देते है ,
मजदूरो की जिन्दगी की हम मोल नही करते ,
जो हमारे लिये हरवक्त तैयार रहते है ,
अपना निस्वार्थ भाव से सेवा करते ,


आज पूरी दुनिया मे ,
मजदूरों की हालत काफी दयनीय है ,
कही भूख से तड़प रहे है तो ,
कही पानी से मर रहे है ,
कही घर से बेघर है तो ,
कही परिवार के बिन तड़प रहे है ,


कभी भी कही भी ,
कोई भी आपदा आती है ,
वहाँ मजदूर ही पहले जाते है ,
सबको राहत पहूंचाने ,
अपनी जान को जोखिम मे डालकर ,
सबको बचाने , जीवन देने ,


लेकिन सबसे पहले कुचले जाते है वो है मजदूर ही ,
सबकी नजरों मे सबसे हिन होते है मजदूर ,
देश मे सबसे ज्यादा तंग होते है मजदूर ,
समाज मे पहले कुचले जाते मजदूर ,
महामारी मे सबसे पहले मरते है मजदूर ,
मजदूर को कभी हिन ना समझो ,


जीवन को सुन्दर , घर को स्वर्ग ,
जीवन के सपनों को साकार ,
ममता का एहसास ,
 जीवन को स्वाभिमानी ,
समाज की नई दिशा ,
दिखाते है सच्चे मजदूर !


✍🏻रुपेश कुमार©️



नमस्कार मंच
 विषय -मजदूर


 कभी इंटे उठाता।
 कभी तसले ,
मिट्टी  के भर -भर ले जाता।


 पीठ पर लादकर ,
 भारी बोझे,
 वह चंद सिक्कों के लिए ,
एक मजदूर ,
कितना मजबूर हो जाता।


ना सर्दी ,
ना गर्मी से घबराता।
मजबूरी का ,
फायदा ठेकेदार उठाता।


इतने पैसे ......नहीं मिलेंगे।
मन मारकर ,
जो देना है ..........!!!!!!!!
दे दो मालिक ,
कह कर चुप रह जाता।


 मजदूर अपनी,
 मेहनत का ,
 आधा हिस्सा भी ना पाता।
 कितना मजबूर होकर रह जाता।‌।


 स्वरचित रचना 
प्रीति शर्मा "असीम "
 नालागढ़ हिमाचल प्रदेश



*💪🏻भारत के मजदूर है ,ये सचे कोहिनूर है💪🏻*



जिसके दम से हर कार्य चले,जो महलो का निर्माण करे
भारत माँ का लाल है वो,पर हालत से बेहाल है वो 
बेरोजगारी और गरीबी दोनों उसके बने करीबी 
जो इंसान के जीवन का सिर्फ जख्म नही नासूर है
ये भारत का मजदूर है,देखो कितना मजबूर है


जो मेहनत की रोटी खाये,कभी भूख में आँसू पी जाएं
पापी पेट को भरने खातीर ,घर-परिवार से रहता दूर है
दर दर ठोकर भी खाता है,फिर भी खुद को समझाता है
मेहनत करना मेरा किस्मत और दुनिया ये मगरूर है
ये भारत का मजदूर ये ही सच्चा कोहिनूर है


सरकार के झूठे वादे है,मजदूर तो सीधे-सादे है
दुनिया भी इनको मूर्ख कहे फिर भी नही घबराते है
गरीबी में ही जन्म लिए और गरीब ही मर जाते है
झुग्गी में ही रहते है पर भारत के तकदीर है
ये भारत का मजदूर ये ही सच्चा कोहिनूर है


*मनी* कहे ये दिल भी रोता है,जब कोई भूखा सोता है
ये भारत देश की गरिमा पर है जैसे काला दाग पड़ा
कुछ करोड़ो गटक लिया,कुछ विदेशो में भाग खड़ा
घुटकर जीते सत्य के राही,ये कैसा दस्तूर है
दाल में कुछ काला है गड़बड़ कुछ तो जरूर है
उनकी हालत कौन सुधारे जो भारत का मजदूर है
ये भारत का मजदूर है ये ही सच्चा कोहीनूर है ।


*कवि मनीष कुमार तिवारी*
*💐मनी टैंगो*
*ग्राम+पो०:-मिल्की ईश्वरपुरा*
*जिला :-भोजपुर*
*राज्य:-बिहार*
*मो०:-9682554402,8989814634*


श्रमिक दिवस री बधाई


कविता** श्रमिक के रूप **


देखो श्रमिक के है कितने रूप।
कैसे करता होगा जीवन अनुरूप।


सब अवयव लगाता ये श्रम में।
इसे बढ़कर ना कोई कर्म में।।


फिर भी एक कोर ना पाता।
निज भाग्य पर वो रोता।।


देखो श्रमिक के है तुम कितने रूप।
कैसे बनाता होगा जीवन अनुरूप।।



जब श्रम करने जाते,गधा मालिक समझ लेता।
ना विश्राम देकर इसे,निर्दय सब रस चूस लेता।।


दिनभर मेहनत करता परिवार पालने को।
मिले कुछ तो परिवार री गाड़ी चलाने को।।


अनेक चक्कर लगाता योजना लाभ पाने को।
पर कसर ना छोड़ते बीचोलिया खाने को।।


ईश को भी ये कोसता।
जब खाने को ना पाता।।


कोई भामाशाह भी ना पाता।
भूखा प्यासा देखो आंसू बहाता।।


केवल रुपए ही श्रमिक की मजदूरी ना होती।
सद्व्यवहार एवं प्रेम मिले तभी उनको खुशी होती।।


श्रमिक के है कितने रूप।
कैसे करता होगा जीवन अनुरूप।


D.s.



आज मजदूर दिवस पर मेरी एक कविता


वो मजदूर कहलाता है।


जो हमारे लिए घर बनाता है।
घर नहीं हमारे उस सपने को साकार करता है।
जिसे हम खुली आंखों से देखते हैं।
खुद झोपड़ी में बेफिक्र होकर सोता है,
और कोई सपना नहीं देखता।


जो हमारे लिए कपड़े बनाता है।
कपड़े नहीं बल्कि हमारा सम्मान बनाता है।
जिसमें हम खुद को ढकते हैं।
खुद गंदे पुराने कपड़े पहनता है।
और शर्मिंदगी महसूस नहीं करता।


जो हमारे लिए अनाज उगाता है।
अनाज नहीं बल्कि वो अमृत उगाता है।
जिसके बिना हम जिंदा नहीं रह सकते।
खुद रूखी सूखी खाकर गुजारा करता है।
फिर भी तृप्ति महसूस करता है।


जो हमारे लिए खिलौने बनाता है।
खिलौने नहीं बल्कि वो खजाना बनाता है।
जिसमें हम अपने बच्चों की खुशी देखते हैं।
उसके खुद का बच्चा खेलने की उम्र में,
बाजारों में खिलौने बेचता है।


जो हमारी हर जरूरत को परखता है।
उसकी व्यवस्था की आधारशिला रखता है।
जो दिन रात मेहनत करता है।
और हमारे लिए सुख का सामान बनाता है।
जिसमें उसका पसीना शामिल होता है
कभी थकान नहीं महसूस करता है।


वो मजदूर कहलाता है।
सुशी सक्सेना इंदौर



मजदूर दिवस 


धूओं से रूठी मजदूरों की किस्मत
मजदूरी की यह खामोशी उजागर करती देश की विकासशीलता का स्तंभ 
बत से बदतर है मजदूरों की हालात 


ईटों की कड़वाहट ने जिंदगी के 
सारे रस घुल गये
बालू गिट्टी की आवाज से 
खुशियों की झंकार छुप गए कुंठित है 
आज हमारे देश का मजदूर


उर्वर जमीन पर लहराती 
फसलों के पकने तक
 रोज आंधियां चलती हैं
 गरीबीपन का छाता लिए आती है
 सिंचाई खाद बीज के लिए
 यह मजदूर किसान बौखलाता है 
पिडि़त है आज देश का मजदूर 


कारखानों के चिमनियों से 
जिंदगी वीरान हुई
गोदामों में ,खनिज पदार्थों 
में, कोयलो में ,सड़क निर्माण मे 
घुटने से लगी है सांसे 
पैसों की अभाव में 
जिंदगी सड़ने और बोझ
 बन गई है बेहाल है 
आज हमारे देश का मजदूर 


करूं तो क्या ?
मजदूर संघ में जाऊं या कमेटी बुलाओ
श्रम कानून में संशोधन कराऊँ 
या भारत सरकार तक 
इनकी बात पहुंचाऊं
बड़े ही मासूम है आज हमारे मजदूर


आइए मिलकर एक पहल करें
जनतंत्र को एक मजदूरों की सच्ची नीवं दे
मजदूरों के जीवन स्तर को सुधारने की
श्रम संगठनों समिति तक इनकी बात पहुंचाने की
इनके प्रति मानसिकता अपनी बदलने की 
 धन्यवाद 
युवाकवियत्री अंकिता सिन्हा


कवि शमशेर सिंह जलंधरा "टेंपो" ,
 ऐतिहासिक नगरी हांसी , 
हिसार , हरियाणा ।


एक रचना 


*आईना है जी हम*


मजदूर दिवस ,
वो क्या होता है मालिक ?
हमें क्या पता , हमको क्या ?
मजाक मत उड़ाओ मालिक हमारा ,
यह कहकर कि ,
मजदूर दिवस मतलब कि हमारा दिन ।
क्या आज हमको ,
काम से अवकाश मिलेगा ?
या अवकाश के साथ-साथ ,
मजदूरी भी मिलेगी ?
काम करेंगे तो ही तो ,
मजबूरी दोगे ना मालिक ,
अब हम सब समझते तो हैं ,
पर क्या करें ?
यह सब राजनीति का खेल है ,
नाम हमारा ,
फायदा किसी को ।
हमारे झोपड़े में तो ,
आज भी ,
वही रूखी सूखी रोटी मिलेगी मालिक ,
और पूछ लो ,
दूसरे मजदूरों से भी ,
कि क्या होता है ?
यह मजदूर दिवस ।
आईना है जी हम ,
मुखोटे वालों के लिए ,
जिनका दिवस ,
उनको नहीं पता ,
और नेताओं के घर केक कटा ,
झोपड़े हमारे जलते हैं साहब ,
रोटी किसी और की पक जाती है ।


रचित ----- 04 - 05 - 2018



सादर नमन आदरणीय, यह स्वरचित कविता है जिसे आप के आशीर्वाद की कामना है। धन्यवाद,


शीर्षक: मजदूर का सपना


क्या शौक नहीं इनको, ये भी सीना तान चले।
आगे-आगे चले स्वयं, पीछे लोग तमाम चले।
निकले जिस गली से, वहीं इनको सम्मान मिले।
पर किस्मत कहां है इनकी,हर मोड़ पे इन्हें मुकाम मिले।


जब-जब चले डगर में, इनको कभी न जाम मिले।
मिले न इनसे दीन दुःखी ,हर चौराहे पर सलाम मिले।
नौकर चाकर इनके पीछे, धूप में भी इन्हें छांव मिले।
क्या शौक नहीं इनको, देश का नौकायान मिले।


पर ढह जाते दीवारों से,न सुबह मिले न शाम मिले।
हर्जा ख़र्चा , सम्मानों से,यश पूर्वक नाम मिले।
पर मजदूरी भी पाते नहीं,इनका कैसे काम चले।
क्या शौक नहीं इनको,मोटर से सुबहो शाम चले।


कभी मिलती सूखी रोटी, कभी बिन रोटी के काम चले।
राशन मिलता और किसी को,कार्ड पे इनका नाम चले।
नहीं चाहते वस्त्र-आभूषण,बस टुकवा से ही काम चले। 
क्या शौक नहीं इनको, करोड़पति में नाम चले।


धरा से ले अंबर तक, सदा इनको मान मिले।
सत्य सदा ही श्वेत रहे, श्वेत सदा इन्हें न्याय मिले।
तालमेल बना रहे हमेशा, इनको बराबर सम्मान मिले।
क्या शौक नहीं इनको,निज जननी पर काम मिले।


नाम: रवि प्रजापति
पता: पूरे चन्द्रिका मणि तिवारी,पिण्डोरिया,अमेठी
संपर्क सूत्र: 9919251824


*"मैं तो हूँ मजदूर"*
  (सरसी छंद गीत)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
विधान - १६ + ११ = २७ मात्रा प्रतिपद, पदांत Sl, युगल पद तुकांतता।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
*श्रम करता सुख देता सबको, मैं ताकत भरपूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।
है सोपान सजाये मैंने, अनेक भव भरपूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*उन्नति-प्रगति सभी थम जाए, कंधे जब दूँ डाल।
हाथ हिला दूँ सृष्टि सजे तब, भाग्य लिखूँ मैं भाल।।
कैद करूँ मैं प्रबल-पवन को, मैं हूँ वह भू-शूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*पर्वत तोड़ूँ, नदियाँ जोड़ूँ, करता नव निर्माण।
बाँधा मैंने बाँधों को भी, पानी पूरक प्राण।।
एक किया है धरा- गगन को, मैं हूँ क्षितिज सुदूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*लाली भरता सूरज में जो, मैं ही नवल प्रभात।
बना विश्वकर्मा का संबल, देता हूँ सौगात।।
अन्न-वसन-छत देता सबको, थककर तन कर चूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*मैं जागूँ जब जग जग जाता, सोऊँ जग सो जात।
वर्षा-गर्मी ओले-शोले, स्वेद बहे मम गात।।
साधूँ दम के दम पर दम को, जोर लगा भरपूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*किस्मत गढ़ता हूँ नित नव मैं, विकास का हूँ राज।
मैंने कुबेर का कोश भरा, पूरण कर हर काज।।
काश! मुझे भी कोई समझे, सुविधा से मैं दूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*बदहवास मैं फिर भी क्यों हूँ, दबंग से दब आज?
टूटे मेरे सपने सारे, हत मेरी आवाज।।
नित-नित नत नम नैन निहारूँ, मैं तो हूँ मजबूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।


*प्रगति सकल सह परिवर्तन का, हूँ मैं शिक्षा सार।
खटता-बँटता-कटता-मिटता, नहीं मिले आधार।।
अपलक राह निहारूँ मैं भी, ले आशा भरपूर।
मैं हूँ श्रमिक इकाई श्रम की, मैं तो हूँ मजदूर।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^


*सर्वहारा की ज़िंदगी* 
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*श्रम दिवस पर देश के असंख्य मजदूरों को मेरा शत् शत् नमन*
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*हां मैं सर्वहारा हूं*
लेकिन हारा नहीं हूं 
  थका नहीं हूं 
   रुका नहीं हूं 
  झुका नहीं हूं
    टूटा नहीं हूं 
  कर्म में जुटा हूं 
  ईमान- पथ पर 
अविचलित होते हुए 
निरंतर अथक चलता ‌रहता हूं 
  रुकना मेरी किस्मत 
 की किताब में नहीं है
 चलना ही मेरी ज़िन्दगी है
 श्रमसीकर से नहाता हूं
  खर आतप में ही छांव पीता हूं 
     *हां मैं सर्वहारा हूं*
 एक अशेष ज़िंदगी जीता हूं
 स्वाभिमान के कुएं का खींचा            पानी  ही पीता हूं
अपनी जांगर के
 बलबूते ही जीता हूं 
मोटी-मोटी चित्तीदार
 रोटियां ही मेरे लिए
 ‌विधाता का वरदान है 
यह भगवान विष्णु का
  दिया हुआ दान है
रोगमुक्त जीवन ही 
‌‌     मेरा संसार है
   भर रात सोता हूं 
दुःख में भी नहीं रोता हूं 
   धैर्य नहीं खोता हूं
   श्रम की कमाई है 
जिंदगी में समस्याओं की 
       ही खाईं है 
   ‌‌    फिर भी 
     ‌   हारा नहीं हूं
   ‌‌     थका नहीं हूं 
        रुका नहीं हूं
     निरंतर चलना ही 
   मेरी अशेष ज़िंदगी है
   क्योंकि मैं सर्वहारा हूं
   ‌‌  हां मैं सर्वहारा हूं!


रचनाकार- डॉ० सम्पूर्णानंद मिश्र



🌹 विश्व मजदूर दिवस 🌹
         01 मई 2020
                 
भूख प्यास के आगे रहते ये मजबूर हैं।
दुनिया वाले इनको कहते मजदूर हैं।


मेहनत करके ही शाम को लेते हैं मजदूरी। 
इनके अंदर तो बसती है श्रद्धा और सबूरी। 
क्योंकि जीवन में  होते बहुत ये मगरूर हैं।
दुनिया वाले इनको कहते मजदूर हैं।


रोज सवेरे चौराहे पर लगती इनकी बोली।
बिक जाएं तो भर जाती है इनकी झोली।
कठिन परिश्रम के कारण होते मशहूर है।
दुनिया वाले इनको कहते मजदूर हैं।


इच्छाएं बहुत हैं लेकिन रहती सभी अधूरी।
चाहे कुछ भी हो पर करते नहीं कभी चोरी।
बिन गलती  कभी न गलती करते मंजूर हैं।
दुनिया वाले इनको कहते मजदूर हैं। 


विविध क्षेत्रों में सुबह से लेकर शाम हैं रहते। 
निष्ठा से सही समय पर आकर काम हैं करते।
हर इक बात में उनके होता जी हुजूर है।
दुनिया वाले इनको कहते मजदूर हैं।


स्वरचित - अनिल कुमार यादव "अनुराग"
ग्राम - संभावा तहसील - गौरीगंज 
जनपद - अमेठी (उ०प्र०)


अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर विशेष 
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शीर्षक- 'पागलपन का ढोंग' 



वह पागल है 
सचमुच पागल है वह 
पूस की यह शीतलता 
स्पर्श ही नहीं करती उसके तन को 


अलाव के गर्म राख में 
लेटा रह जाता है वह रातभर 
फटे, चिथड़े, धुरियाये बच्चे जैसे 
खोदकर निकाले गये हों ज़मीन से 
यूँ ही उसके पीछे हो लेते हैं। 


उनकी आँखों में क़ैद 
आँसुओं को देखकर 
अतीत में खो जाता है वह 
सोचने लगता है.... 
पागलपन का ये ढोंग कबतक चलेगा। 


परन्तु...नि:सहाय, बेघर वह 
बच्चों के भूख को भाँपकर 
ठठाकर हँसने लगता है 
जागा-सूता रे....... सोने वाले 
दिन में ही चिल्लाने लगता है 
निचोड़ लेता है वह आत्मा को 
और...फिर वही सोचता है कि 
पागलपन का ये ढोंग 
कबतक चलेगा.....
कबतक चलेगा। 



मौलिक रचना- डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'
(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०, मो० नं० 9919886297)


" मजदूर की कथा"
हाथों मैं थामे कुदाल 
माथे पर धारण किये परात
फावड़ा चलाते हुए मजबूत हाथ
 चलते हैं निरन्तर दिन-रात
धूल धूसरित परिस्थितजन्य बदन
 अनवरत चलते हुए हाथ
माथे से टपकते श्रमबिन्दु पर
कभी न होते वे उदास
प्रातः से संध्या तक निरन्तर
हाड़तोड़ सभी मिल करते हैं परिश्रम
बाधाओं से भरी हो चाहे राहें
पर न होता उत्साह कभी कम
सिकुड़कर पेट चिपक गया है आँतों से
दम हुआ जाता है बेदम
चलें हैं फिर भी फिकर छोड़
जीने को संघर्ष करने मिला कर कदम
मुस्काता है जीवन हर हाल मैं
शिकवा नहीं कोई न कोई गम
साथी हाथ बढ़ाना कहकर-बाँट ही लेते हैं
सब मिलकर अपना श्रम
कड़कती धूप हो चाहे या
 फिर धूल भरी चलें आँधियाँ
कडकड़ाये बिजली कहीं या
बरसती हो कहीं बदलियाँ
मजदूर घुटने टेकता नहीं
रहता स्थितप्रज्ञ सा रत कर्मफल मैं
देता सन्देश सभी को कभी न बैठो
उत्साह विहीन से
 तटस्थ रहो जीवन पथ मैं
कितने ही महल, कितनी ही बड़ी इमारतें
उनके परिश्रम से कितनी लिखी गई इबारतें
नींव की ईंट ही रहे सदा
कंगूरा बनने की मन मैं कभी न आई चाहतें
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


जन्मे है इस धरा पर
वह तो सभी मजदूर
जठराग्नि शमन  हेतु
सब जगती पै मजबूर


बिना ही मजदूरी किये
कौंन जगत में व्यक्ति
आवश्यकताएं पूरी हों
हो जीवन अभिव्यक्ति


जैसी जाकी योग्यता
वैसा ही उसका काम
फिर एक विशिष्ट क्यों
कहें दूजे को दीनाराम


सबके अकथ प्रयास से
जगती बनी अभिराम
छोटा व्यक्ति मजदूर है
दूजा मालिक सुखधाम


मजदूरी तो करते सभी
भरने अपना यहां पेट
एक नाम लेबर मिला
दूजा बना दिया है सेठ


सच में तो मजदूर ही
इस धरती का श्रृंगार
प्रगतिशील समाज बने
करो मजदूरों से प्यार।


सत्यप्रकाश पाण्डेय



[मजदूर का संकल्प] 


रोज कुआं खोदकर, पानी अब तक पिया हूँ।
बूँद-बूँद से ही, तो, अब तक जिया हूँ।
घड़े का कण-कण, व्याकुल है प्यास है।
पर, विपदा में एकता का, संकल्प मैं लिया हूँ।।


खून जलाकर, पसीना बहाता था, जब कल तक।
तब कहीं, एक रोटी लाता था, घर तक।
टुकड़े - टुकड़े बांटकर, आपस में खाता था।
पर रोज के भोजन में, एक नया-पन सा आता था।।


आज इन्हीं यादों को, मैं याद किया करता हूँ।
अपने परिजन संग, खुशी से घर में रहता हूँ।
दो समय गर नहीं, एक समय ही खाता हूँ।
पर, सब जन की सुरक्षा का, संकल्प मैं, निभाता हूँ।।


नाम - अतुल मिश्र
पता - गायत्री नगर, अमेठी


 


किसने देखी पीड़ा अंतस?
ये कैसा है मजदूर दिवस?


नित खून पसीना बन बहता,
मौसम की मार वदन रहता,
हमसे बनता ऊंचा मकान,
मेरा छत लेकिन आसमान।
सुखमय मेरा संसार नहीं
लेकिन जीवन से हार नहीं।


मेरी हर निशा अमावस है
है दिवस नित्य मेरा नीरस।
ये कैसा है मजदूर दिवस?


बीता है वर्ष हजार यहां,
बदली कितनी सरकार यहां?
सुनता है कौन पुकार यहां?
क्या मिला मुझे अधिकार यहां?
जन्मों से सिर अपमान धरूं
क्या एक दिवस सम्मान करूं?


है अमिट व्यथा में उर भारी,
पल पल जीवन मेरा बेबस,
ये कैसा है मजदूर दिवस?


हमसे ही हैं रंगीन भवन
ये खिला हुआ है फूल चमन,
पर नित आहत है अंतर्मन
पल पल मुर्झाया है जीवन
बूटों ने नित्य मुझे कुचला
माली ने नित्य मुझे मसला


आवाज उठाऊं मैं अपनी
कैसे लाऊं इतना साहस
ये कैसा है मजदूर दिवस?


बरसे सावन टपके कुंटिया 
सोने को पास नही खटिया
बिन ब्याही घर में बेटी है
पैबंद लगा  हर टाटी है।
युग युग से यही कहानी है
मेरी बस यही निशानी है


कोई तो समझे लाचारी
मेरी हालत पर करे बहस
ये कैसा है मजदूर दिवस?


सीमा शुक्ला अयोध्या



दिनाँक ,01/05/2020
विषय, श्रमिक दिवस


शिर्षक,  मजदूरन की पुकार
====================


गरीब मजदूरन की पुकार
कैसे जताये ,ईश  आभार
समर्थ कर्मस्थल मे मजबूर
जीवन जी, कठिन मजदूर


दो  जून की रोटी
बडी मशक्कत से होती
आधा खाती,बच्चों को खिलाती
सुबह काम पर जाती


तेज धूप मे तपती
पत्थर वह तोडती
मैले कुचैले, कपडों मे लिपटी
चिथडो से तन ढकती


किसी से कुछ न कहती
राहगीरों की गिद्ध दृष्टि
शकुचाती,शर्माती, सम्हालती
ताकती ऊपर,पहर नापती


करती संध्या का इन्तज़ार
पीठ पर मार,पेट मत मार
पसीना, आंसू पीता जरूर
कैसे जतायें , ईश आभार


 


यह रचना तात्कालिक मौलिक, स्वरचित व अप्रकाशित रचना है


कमलकिशोर ताम्रकार
अमलीपदर जिला गरियाबंद, छत्तीसगढ़,पिन 493891 मो.6265386432वाट्सअप,8815150076,ईमेल,tamrakarkamal9@ gmail.com



मैं मजदूर हूँ 


मैं मजदूर हूँ 
क्यों सबसे दूर हूँ 
खुला आकाश 
हमारा है
नदियाँ हमारी हैं 
इन सबमें ही
जीता हुआ 
सामने बच्चा 
कराहता है
फिर भी
कर्म में लीन हूँ 
मैं मजदूर हूँ 
क्यों सबसे दूर हूँ 
आत्मसंतोष 
आधार जीने का
मानवता को
संगीत बनाया
सुख दुख का
जीने को मजबूर हूँ 
हाँ मैं मजदूर हूँ 
इसलिए सबसे दूर हूँ !


अनिता मंदिलवार सपना


"अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस"


              (दोहा)


हर मानव मजबूर है, बनने को मजदूर।
 मजदूरों को चाहिये, मिलनी इज्जत पूर।।


इनका शोषण जो करे, वह पापी इंसान।
उत्पादन की आत्मा, को जानो भगवान।।


उत्पादन पर हो सदा, इनका ही स्वामित्व।
पूँजीपति स्वीकार लें, इनका सहज प्रभुत्व।।


हेय दृष्टि से देखते, इनको जो वे नीच।
इनकी समझो हैसियत, सकल लोक के बीच।।


इनके कौशल शक्ति-श्रम, बल ऊर्जा पहचान।
बिन मजदूरों के नहीं, इस जग का कल्याण।।


मुख्य घटक के रूप में, उत्पादन के मूल।
ये ही भोलेनाथ हैं, कर में डमर-त्रिशूल।।


वीणा लेकर हाथ में, आवश्यकता की पूर्ति।
करते रहते विश्व को, बन सुन्दर सी मूर्ति।।


उत्तम रचनाकार ये, सकल लोक के पाल।
मजदूरों को हृदय में ,रख जिमि रखते लाल।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801


 


श्रेमेव जयते ,कर्मेव जयते ,धर्मेव जयते ,सत्यमेव जयते ।          


श्रम ही भक्ति ,श्रम ही शक्ति ,श्रम ही भाग्य भगवान् ।।   


श्रम से श्रमिक बड़ी- बड़ी इमारत का निर्माता महान।                    


 खुद बेघर ठंडी गर्मी या वर्षात  खुद घर कि करता तलाश ।।  


 खेतों में हरियाली समाज खुशहाली के लिये जीत मरता दिन रात ।।                        


अपने खून पसीने से धरती से सोना उपजाता राष्ट्र का निर्माता मजदूर है कहलाता।              
 
 रोटी के लिये रहमत का दुनियां में जगह जगह ठोकर खता मजबूर मजदूर कहलाता।।
              


दौलत कि दुनियां का बुनियाद श्रम का धर्म निभाता ।            


खुद पाई पाई के लिये तरस जाता।।                              


कल कारखाने की मशीनों में कोल्हू का बैल बन जाता।       


फिर भी जीवन कि बुनियादी जरुरत को तरस जाता ।।        


देश प्रगति प्रतिष्ठा कि खातिर जीवन का दाव लगाता ।        


चाहे जैसी स्तिति परिस्तिति हो ईमान का इंसान मजदूर ही राष्ट्र समाज कि आशाओ का दीप जलाता ।।                           


श्रम शक्ति का मशीहा बदहाल जिंदगी में मर जाता।           


सड़क, पुल ,नहर तालाब बनाता कही खुले गगन के निचे ।      


कभी झोपडी में आधे अधूरे सपनो का इंसान दुनियां के सपनो का सौदागर घुटता कुढ़ता और  सो जाता ।।                      


उम्मीदों के लम्हों को दामन में समेटे निर्विकार भाव से ।          


हर सूर्योदय आशाओ की नई दुनियां का ख्वाब बनाता और सजाता।।                         


अपनी इज़्ज़त कि रोटी भी मालिक को दे जाता।    


 मजदूर कभी मज़बूर नहीं बेमतलब लड़ना फितूर नहीं ।।


हक उसका भी जीने का इंसानो कि दुनियां में इंसानो सा जीने का।
 
मजदूर जहाँ बेबस होगा श्रम होगा शर्मिंदा ।                


प्रतिशोध वहां जिन्दा होगा जीवन साम्राज्य का पहिया निश्चय अवरुद्ध होगा।।                        


इंकलाब शब्द नहीं मजदूर श्रम शक्ति कि हस्ती है।             


मजदूर अगर जागा क्रांति असंभव संभव होगा ।            



तब राष्ट्र समाज कि बुनियादों का विचलित होना निश्चित होगा।।           
  
मजदूर का राष्ट्र समाज में विश्वाश बढे ।                              


 मजदूर संघर्ष का ना पर्याय बने   मजदूर राष्ट्र समाज स्वाभिमान सम्मान बने।।                      


श्रम सत्ता दुनियां का नाज़ बने मज़दूर , किसान ,जवान , नौजवान कि श्रम शक्ति का दुनिया में मशाल जले।।         


कर्म क्रांति में श्रम श्रमिक अवसर उपलब्धि का निर्माण करे।    



 शासन और प्रशासन मालिक श्रमिक आपस में मिल नव युग का संचार करें।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर
सम्पादक काव्यरंगोली



*1 मई मजदुर दिवस*


मजदुर दिवस भी मनाया जा रहा है,
बेबसी का बखान किया जा रहा है,
कौन उसकी पीड़ा समझे मंगलेश,
यहाँ सिर्फ उत्सव मनाया जा रहा है,


अति की इति श्री करते जा रहे है,
एक मई का महत्व समझा रहे है,
स्नेह से बात की ना कभी उससे,
खुद को खुदा समझते जा रहे है।


थकहार के कुछ पल बैठ गया,
मानो पहाड़ जमीं पर टूट गया,
ऐसा लगने लगा संम्पन्न वर्ग को,
जैसे कोई खजाना लूट ले गया।


बड़ी मछली छोटी को खा रही है,
भ्रष्टता से दिहाड़ी खली जा रही है,
सरकारी हो या असरकारी महकमा
यह परम्परा वर्षो से चली आ रही है।


मजदूर भी मजबूर होता है,
इसीलिये ही बोझा ढोता है,
गरीबी के सामने  मंगलेश,
फर्ज भी नतमस्तक होता है,
 
उसके पसीने से कई हुए मशहूर,
छोटा रह गया वो हम हुए मगरूर,
कुकुरमुत्ता कब तक लड़े वजूद से,
अंततः कर्ज में दबे रह गए मजदूर।


         डॉ मंगलेश जायसवाल,
               कालापीपल



काव्य रंगोली हिन्दी साहित्य के सम्पादक आशुकवि नीरज अवस्थी जी को सादर प्रणाम करते हुए मजदूर दिवस पर कुछ लाइने प्रस्तुत करता हूँ


सबसे पहले मजदूरों को शत शत प्रणाम हम करते है,
उनके साहस जज़्बे का आभार ब्यक्त हम करते है।
कड़ी धूप जाड़े वर्षा में वह कठिन परिश्रम करते है,
संघर्षों के पथ पर चलकर कष्टों को गले लगाते हैं।
परिवार चलाने के कारण वह दूर देश को जाते है
धन अर्जन का उद्देश्य लिए अपनों से दूर विचरते है।
पड़े लिखें हों या हों अनपढ़ मज़दूरी जो भी करते हैं,
कुछ पैसे लेकर  वह सेवा समाज की करते है।
ऐसे कर्तब्य परायण मजदूरों को,
शत शत प्रणाम हम करते है।
मदन मोहन बाजपई
खमरिया(लखीमपुर खीरी)



नाम - विष्णु असावा
पता- बिल्सी जिला बदायूँ उत्तर प्रदेश
विधा- गजल
बिषय- मजदूर दिवस


रचना- 
हम छप्पर में रहने बाले महलों को बनाया करते हैं
लेकर मजदूरी के पैसे बच्चों को खिलाया करते हैं


बारिश का महीना आते ही औरौं की छत को ठीक करें
और अपने छप्पर तंगी के कारण चिचयाया करते हैं


इस पेट की सेवा की खातिर घर छोड़़ बसे परदेशों में
बंधुआ मजदूर कहीं बनकर फिर प्राण गँबाया करते हैं


बेबस, लाचार, गरीबों को लाता है धरा पर क्यों भगवन
फिर भी हम सच्चे भावों से ईश्वर को मनाया करते हैं


मोहताज हैं दाने दाने को विष्णु तुम्हें एहसास नहीं
अपमानित घूँटों को पी-पी फटकार भी खाया करते हैं


                    विष्णु असावा
                  बिल्सी ( बदायूँ )



आराम कमाता हूँ क्यों आराम छोड़कर ?



निकल पड़ता हूँ हर सुबह ,
सपरिवार घर मकान छोड़ कर।
पर आज तक ये न जाना ,
आराम कमाता हूँ क्यों ?
आराम छोड़कर ।।


जीता हूँ खाने खातिर 
या खाता हूँ जीने खातिर  ।
खाता हूँ कमाने खातिर 
या कमाता हूँ खाने खातिर ।


जथाथिति पड़ा हूँ, सदियों से,
इसी असमंजस में,
जाऊँ कहाँ मैं ये जमीं
ये आसमान छोड़कर ।
पर आज तक ये न जाना,
आराम कमाता हूँ क्यों ?
आराम छोडकर ।।


जल बरसता है तब मयूर नाचता है 
या मयूर नाचता है तब जल बरसता है ।
चातक तरसता है तब जल बरसता है 
या जल बरसता है तब चातक तरसता है ।


बेमालूम तिलिस्म के तम में प्रविष्ट हो,
गुम गया हूँ मैं , निराकरण का हर इक,
निशान छोड़कर ।
पर आज तक ये न जाना,
आराम कमाता हूँ क्यों ?
आराम छोड़कर ।।


जो कहा शायद हो अनभिज्ञता मेरी,
पर विज्ञमति से आज ये सतपुष्टि करता हूँ ।
खिसक जाती है कुछ मिट्टी मेरे सेतु से ,
मैं आदमी से आदमी के बीच का पुल जो भरता हूँ ।।


बिलारी स्वान से डरती ,
मुसक बिलारी से डरता है ।
लौह, लौह को काटे ,
बिष, बिष से लड़ता है ।।


देखा है जलते आज तक सब दिया सलाई से,
नहीं देखा है बस इंसान से,
इंसान छोड़कर ।
पर आज तक ये न जाना
आराम कमाता हूँ क्यों ?
आराम छोड़कर ।।


 


विपिन विश्वकर्मा 'वल्लभ'
कानपुर देहात उप्र
8601114755


*********************


मैं हूं मजदूर
  
 कल्पना से दूर
 सपनों के उस पार 
 यथार्थ की मिट्टी 
 में जीवन सानता
 मैं हूं वह मजदूर 


               श्रम के तरकश से 
               आत्मबल के तीर छोड़ता
                जीवन संघर्ष में तल्लीन 
               किया ना कभी खुद पर गुरुर 
                मैं हूं वह मजदूर


 निर्धनता की चादर ओढ़ 
 अन्नहीन वस्त्र हीन रह 
 दूसरों के लिए ऐश्वर्य बनाता 
 गरीबी में ले जन्म
 मरने को मजबूर 
 मैं हूं वह मजदूर


             रोते बिलखते हो गया 
             जीवन पूर्णतया चूर चूर 
             आज तक समझ ना पाया 
              हे विधाता! क्या है मेरा कसूर ?
              हां! मैं हूं वह मजदूर
डॉ विजेता साव


*****************?



मेरी रचना का शीर्षक है "मैं मजदूर हूं मजबूर नहीं"
 1 मई मजदूर दिवस पर मजदूरों का सम्मान करो
 1 दिन नहीं 365 मजदूर दिवस मनाना है।
 मैं मजदूर हूं मजबूर नहीं ।
मेहनत करता मेहनत से नहीं डरता ,
दिक्कत परेशानी आती -जाती। 
हम कमजोर नहीं,
 रोज सजाते नित्य नए सपने ,
रोज परिश्रम करते हैं,
 झोपड़पट्टी में रहते ,
सब के महल बनाते हैं। 
श्रम करना हमारा कर्तव्य है ।
कर्तव्य से नहीं हम घबराते हैं ।
धूप, गर्मी ,बरसात नहीं देखते, 
मजदूरी करना सबका पेट पालना, 
हम अपना धर्म निभाते हैं।
 मैं मजदूर हूं मैं मजबूर नही।
 गीता पांडेय"बेबी" जबलपुर मध्य प्रदेश 8461890076/



मजदूर हूँ भाई  
थका हारा जब शाम को घर पहुंचा तो देखा बच्चे झगड़ रहे थे,
आखिर क्यों ना झगड़े भूख से जो वे तड़प रहे थे,
लाया था पोटली में कुछ अनाज बांध के,अनाज नहीं अपने बच्चों की आस बांध के, 
किसी ने पूछा ऐसा क्यों है? 
 मैंने कहा मजदूर हूं भाई!  
रोज सुबह जाता हूं कि काम करूं ढेर सारा,अपने परिवार केलिए पैसा कमाऊं बहुत सारा, 
पर बस मिलता इतना कि एक मुट्ठी में समा जाए, किसी  तरह आज फिर घर का चूल्हा जल जाए,
किसी ने पूछा ऐसा क्यों है? 
मैंने कहा मजदूर हूं भाई!    
हर दिन कुआँ खोदता हूं और प्यास अपनी बुझाता हूं,  
कभी सड़क, इमारत बनाता हूं कभी बोझा-ढेर उठाता हूं, 
अपने जीवन की गति बदलने की आस में,फिर निकल जाता हूं मैं सवेरे नए काम की तलाश में,
किसी ने पूछा ऐसा क्यों है? 
 मैंने कहा मजदूर हूं भाई!  
 मैंने कहा मजदूर हूं भाई!
शिखा मिश्र
लखीमपुर खीरी उ0प्र0


अन्तराष्ट्रीय मज़दूर दिवस पर.. 


" श्रम की सार्थकता "


कर्म की जय बोलो,
    श्रम की महिमा तोलो ।
सृजन दिवस है, अखिल
                     विश्व में...
    कर्मरती पशु- पक्षी भी,
      हैं मानव सृष्टि में ।


कर्मरत मन है ।
     सुख दिवास्वप्न है ।
कर्म ही धर्म है ।
     कर्म ही पूजा ।
कर्मकार सा नहीं कोई दूजा ।
     कर्म है विश्वास ।
कर्म ही है आभास ।


श्रम ही है, जीवन संबल ।
      सृजन का पल -हर -पल ।
कर्म का ऐसा सुन्दर लेख ।
      श्रम ही है, जीवन आलेख ।
धरा का यही है, सच्चा सपूत ।
      अन्न ही है, हवन का हूत ।


कर्म का उत्कृष्ट नमूना...
       नारी सृष्टि का कोना- कोना ।।


© डॉ मीरा त्रिपाठी पांडेय 
    मुंबई, महाराष्ट्र


 


नमन काव्य रंगोली 
शुक्रवार /1मई/2020
शीर्षक- मजदूर 
विधा - कविता 


हर अनुकूल परिस्थितियों में,
जी लेता है मजदूर .....!!
अपने कंधों पर बोझ उठा कर -
साहस का परिचय देता है मजदूर!!
कल, कारखाने, खदान सभी-
चलते इनके दम पर .....!!
बहा कर अपना खून पसीना,
देश को सोना , देता है मजदूर!!
अधिकार के लिए लड़ता ....
वह अनशन भी करता है ।
मरता क्या नहीं करता ....
फिर भी निर्मल मन रखता है !
अनगिन स्वप्न  लिए आंखो में ,
कभी भूखा भी सो जाता है मजदूर!!


रत्ना वर्मा 
स्वरचित मौलिक रचना 
धनबाद -झारखंड



सभी को चाहिए रोटी
बगीचे की सफाई करने को 
मैंने मज़दूर बुलवाया
वो एक व्रद्ध मज़दूर को पकड़ लाया
उसे देखते ही मुझे गुस्सा आया
मैने डांटते हुए कहा 
तू ये किसे पकड़ लाया
अरे ये ठीक से खड़ा तो हो नही सकता
काम क्या कर पायेगा
बिना काम के ही पूरी मज़दूरी बनाएगा
मज़दूर हाथ जोड़ बोला 
मुझे मना करोगी
तो क्या कमाऊँगा
भूखे पेट की आग कैसे बुझाऊगा
तन बूढा हो या जवान बेटी
सभी को चाहिए रोटी
बाबा तुम्हे खाली हाथ न जाने दूगीं
बिना काम के ही पूरी 
मजूरी दूगीं
आप दान दे कर दानवीर 
कहलाएगी
एक मेहनतकश को
भिखमंगा बनाएगी
यह कह वह चला गया
मेरे अहम को थप्पड़ जड़ गया
मेरा मन श्रद्धा से उसके
आगे झुक गया 
एक मेहनतकश मुझे
स्वाभिमान सीखा गया


स्वरचित
जयश्री श्रीवास्तव
जया मोहन
प्रयागराज
1,05,2020



आदरणीय, मेरी कविता 'मज़दूर' विषय पर प्रेषीत कर रही हूँ-
एक मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस आता।
इस दिन को लेबर डे, मई दिवस ,श्रमिक व मजदूर दिवस भी कहा जाता।
यह दिन श्रमिकों को समर्पित।
 सभी को रूपा का श्रद्धा सुमन अर्पित।।
मजदूरों की उपलब्धियों को सलाम।
हम सब का स्वीकारें शुक्रिया कलाम।।
मजदूरों के सम्मान,उनकी एकता और उनके हक के समर्थन में आज का दिन व हर दिन उनके कर्तव्य पालन में।।
इस दिन दुनिया में छुट्टी होती।
तथा रैली -सभाओं का आयोजन मज़दूर संघ करती।।
नाम-रूपा व्यास
पता-व्यास जनरल स्टोर, शॉप न.7,नया बाज़ार, रावतभाटा, जिला-चित्तोड़गढ़, पिन-323307(राजस्थान)
मो.न.-9461287867,9829673998.



(मजदूर दिवस पर कविता)


 *##अभिवादन ##* 
 *#############*


अभिवादन, अभिवादन तेरा, 
हे श्रमिक तुम्हारा अभिवादन। 


तुम अथक परिश्रम की मूरत, 
खिल  उठे  पसीने   से  सूरत, 
चाहे सुबह हुई  या  शाम हुई , 
काया  तेरी श्रम में  जुटी हुई,
तुम  परमवीर  हो  कालजयी, 
तुमसे   ही  धरती  सजी  हुई।
अभिवादन, अभिवादन  तेरा,
हेश्रमिक तुम्हारा अभिवादन। 


तुम तोड़ शिला को खण्डों में,
भुजबल  सहज  दिखाते   हो,
हो   लौह  अस्त्रों  से सज्जित, 
मानुष   का   गेह  सजाते  हो, 
संग  लिए  हथौड़ी  छीनी को, 
फौलाद बने नगपति से खडे़।
अभिवादन  ,अभिवादन  तेरा,
हे श्रमिक तुम्हारा  अभिवादन ।


हो ताजमहल या मीनार कुतुब, 
सब में तेरी कीर्ति झलकती है,
हो पथ चाहे सुन्दर सुघर कोई, 
सब में तेरी मेहनत दिखती है। 
तेरी कलाकृतियों का बखान, 
युग-युग ,गा-गा कर जाते हैं। 
अभिवादन ,अभिवादन  तेरा, 
हे श्रमिक तुम्हारा अभिवादन। 


तुम   विश्व  धरोहर निर्माता, 
तुम पराक्रमी,तुम सैनिक हो, 
तुम वैद्य ,तुम्हीं  हो वैज्ञानिक, 
तुम अन्वेषक,तुम अभियन्ता,
तुम शिक्षक,तुम हो परमविदुष, 
तुम  छात्र ,तुम्हीं  उद्यमकर्ता, 
हैअखिल विश्व,श्रम रत सदा,
श्रम में  है निपुण  धरा, चन्दा, 
अभिवादन ,अभिवादन  तेरा,
हे श्रमिक तुम्हारा अभिवादन।


श्रम के बिन है जीवन निर्मूल, 
श्रम ही जीवन का मूल  मन्त्र, 
श्रम जड़ को भी चेतन करता, 
श्रम से ही महान मनुज बनता। 
श्रम में संलग्न ब्रह्माण्ड सकल, 
श्रम सम्पूर्ण जगति को गति देता। 
अभिवादन, अभिवादन  तेरा,
हे श्रमिक तुम्हारा अभिवादन। 


 *स्वरचित-* 
 *डाॅ०निधि मिश्रा*
 *अकबरपुर,अम्बेडकरनगर*



मजदूर दिवस
------------------


  मेहनत मान करें मजदूरी
 नहीं कहो इसको मजबूरी।
 जगजीवन हित पेट पालना
 हम सब करते हैं मजदूरी।।


 न कोई ऊंचा, न कोई नीचा
 जग उपवन प्रभु का है बगीचा। 
अथक परिश्रम फलित लक्ष्य
 सबने श्रम- बिंदु से सींचा ।।


तपती धूप और कड़क शीत हो
 तन- मन में न कहीं भीत  हो
 भोला भोला, आत्मतुष्ट  वह
  पत्थर फोड़े अधर गीत हो।


 निर्माणों की नीव तले हैं
 इनकी आशा -दीप जले हैं।
 परिवारों से भले  दूर  वह
 सपनों में सुख के मेले हैं।।


बिना परिश्रम अन्न है खाना
 वह खाना चोरी का दाना।
 राजा- रंक ,पशु- पक्षी सब
 है आबद्ध सत्य सब जाना।।


 श्रम के बिना मरण है जीवन
 कभी निष्क्रिय न हो तन- मन
 श्रमेव जय  की  वंदनवारी ,
 खुशी-खुशी भरलो जीवनधन।।


 स्वरचित: डॉ. रेखा सक्सेना
 मुरादाबाद उत्तर प्रदेश
 मौलिक, अप्रकाशित



*श्रमिक रूपी योद्धा*
******"""****"""*****
एक योद्धा जो
हर पल लड़ता है गरीबी से,
कर देता सर्वस्व न्यौछावर
देश की प्रगति में।
अपनी सेवाओं के प्रति
सदैव रहता सजग,
पीड़ा के घूंट पीता
सूखी रोटी ही नसीब उसके हलक।
श्रम की पूँजी ही
उसका सच्चा साथी,
परिवार की गाडी़
पथरीली राहों पर चलती घिसट।
व्यवस्थाओं का लाभ
बमुश्किल से मिलता,
मगर पथ पर फिर भी
निरन्तर वह है चलता।
मिला नहीं आज तक
उसे उचित मान,सही सम्मान,
लेकिन रहा सदा 
संघर्षशील और निष्ठावान।
परन्तु अब नहीं चलेगा
उस योद्धा का अपमान,
हमें देना होगा देश की रीढ़
श्रमिक रूपी योद्धा को सम्मान।
--अवधेश कुमार वर्मा 'कुमार'©®
       {महराजगंज,उ0प्र0}
""""""""""""""*"""*""*"""*"""



गीतिका 
गरीब मजदूर
___________


गरीबों के घर में उजाले नहीं हैं,
मगर दिल से मजदूर काले नहीं हैं।


दिलों में अमीरी का इनके खजाना,
चुरा लो लगे इनपे ताले नहीं हैं।


बहाकर पसीना कमाते हैं रोटी,
सनी खून से खाने वाले नहीं हैं।


ज़रा खोलकर देखो इनकी हथेली,
कभी भरते हाँथो के छाले नहीं हैं।


सभी चैन की रोटियाँ खा रहें पर,
गरीबों के हक़ में निवाले नहीं हैं।


        आशीष पान्डेय जिद्दी
9826278837..
01/05/2020


 


सादर समीक्षार्थ
श्रमिक दिवस पर विशेष-
         दोहे


एक मई श्रम दिवस है,श्रमिकों का सम्मान।
ये करते जीवन सुगम,है इन पर अभिमान।।


श्रम की पूजा जो करे,वो है श्रमिक महान।
भक्त बढ़ाये देश की,आन बान अरु शान।।


श्रम भक्ति श्रम साधना,श्रम शक्ति का नाम।
श्रम साधक कहते सदा,है आराम हराम।।


काम करो बढ़ते चलो,क्षणिक करो विश्राम।
पहुँचे मंजिल तक वही,जो बढ़ते अविराम।।


कोमल तन की नारियाँ, उठा रही है भार।
झेल रही हँसकर सभी,भूखमरी की मार।।


घर के निपटा काज सब,मजदूरी कर नार।
चाहे मुश्किल लाख हो,नहीं मानती हार।।


स्वरचित
शुचिता अग्रवाल 'शुचिसंदीप'
तिनसुकिया, आसाम


 


 


 


 


कविता - मजदूर दिवस
-----------------------------


दुनियां की सारी इमारतें सब श्रम कौशल की माया है ।
बजरी  पत्थर  ढोते  ढोते  टूटी   श्रमिक  की काया है ।।
हाथों में छाले हैं जिसके कांधे ,पैरों पर हैं निशान ,
महलों को जिसने खड़ा किया इक रात नहीं सो पाया है ।।1


पूरे दिन पत्थर तोड़ तोड़ अपनी किस्मत धुनता रहता ।
रूखी  सूखी  दो  रोटी  खा  कोरे  सपने  बुनता रहता ।।
मंदिर मस्जिद का निर्माता सड़कों का भाग्य विधाता है ,
जो  पेड़  लगाए  हैं  उसने  क्या  भोगी  उनकी  छाया है ।।2


अंतड़ियां भूखी सिकुड़ रहीं थोड़ी मिलती मजदूरी है ।
गर्मी  सर्दी  के  मौसम से  लड़ना  उसकी  मजबूरी है ।।
वो पत्थर का भगवान कहीं मंदिर में बैठा देख रहा ,
पत्थर  को रूप  दिया  उसने छैनी से  खोदी  काया है ।।3


सदियां बीती युग गुजर गए मजदूर वहीं का वहीं पड़ा ।
अधनंगे बीबी  बच्चे  है अधनंगा  खुद  भी  वहीं खड़ा ।।
हलधर" यह  प्रश्न  पूंछता  है  सत्ता  के  ठेकेदारों से ,
जो रोग हरे मजदूरों का  क्या  दवा खोज के लाया है ।।4
   
      हलधर-9897346173



मित्रो नमस्कार
1मई श्रमिक दिवस


आज  किसान की पीड़ा को रखने का प्रयास कर रहा हूँ जो पालनहार है।


धरती पुत्र किसान की
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एक कहानी बतलाता हूँ,धरती पुत्र किसान की।
कोरे नारों में जय देखी,अन्न देव भगवान की।
श्रम से छलकी बूँद श्वेद की,
        धरती का अरमान जगा।
कृषक देव के अंतस में,
          प्राची से दिनमान जगा,
अरमानों की फसलों पर,
           ओले पाले का डर है।
वर्षासुन्दरि का ताण्डवहै,
        आग उगलता दिनकर है।
धरती सोना उगल रही है,
           जिसके खून पसीने से।
सन्तति उसकी करती देखी,
                 लँघन कई महीने से।
सूदखोर का ब्याज सताता,    
                प्रेमचन्द के हल्कू को।
कोई नहीं कम्बल बंटबाता  
                प्रेमचन्द के हल्कू को।
कंटक से हैं घायल पग में,झाँकी हिंदुस्तान की।
एक कहानी बतलाता हूँ धरती पुत्र किसान की।


घुट घुटकर किसी तरह से,
           किश्त किश्त में जीता है।
जीवन भर धनियां की धोती,
                   होरी देखो सींता है।
कभी भूख से कभी प्यास से,
               रोज बिलखते देखा है।
दुखी  जिंदगी  से होने पर,
                 उसे लटकते देखा है।
उसकी झोपड़ियों में भी,
               आशाओं के दीप जलें।
सुख दुःख में सहभागी हों,
            चार कदम तो साथ चलें।
जिस दिन वो फसल की कीमत,
                अपने आप लगायेगा।
आजादी का महापर्व तब,
                उसके घर में आयेगा।
सुधा लुटाकर औरों को खुद,तैयारी विषपान की।
एक कहानी बतलाता हूँ,धरती पुत्र किसान की।


डॉ राजीव पाण्डेय


 


माथे की सिलवटों के बीच मोतियों सी चमकती बूंदों को हाथ से खीच कर एक लंबी सास लिया । 
पानी  की एक धारा , धरा पर पहुंची और इसी के साथ उसने  आत्मसंतुष्टि का ऐहसास किया ॥ 


धूप की तपिश को अपने चौड़े पृष्ठ भाग पर समेटते हुऐ , आसमान को निहारा । 
बेशर्म उष्णता को सम्मान देते हुऐ उसने पुकारा ॥ 


 तेरी तपिश हमारे इरादों और हमारी मजबूरियों का मजाक तॊ जरूर उड़ा सकती हैं । 
लेकिन हमारे आत्मबल और इच्छाशक्ति को तॊ बिल्कुल भी नहीं डिगा सकती है ॥ 


क्योकि तपिश मेंं तप कर हमने इन  फौलादी बाजुओं को बनाया है । 
आधे पेट भोजन को भी  छक कर मैने , धोखेबाज  गरीबी को गजब का छकाया है ॥ 


तपते पहाड़ो पर,  जलते खेतों मेंं , बर्फ़ीली वादियों मेंं ,भीगते और भागते तुफानो के बीच,  मेरे पुष्ट कंधो ने मजबूरी को हराया है । 
राष्ट्र और समाज के  निर्माण मेंं हम मजदूरो ने प्रभावी फर्ज निभाया है ॥ 


अपनी हुनर कला , विज्ञान , कौशल के दम पर हमने अपना जलवा हर और दिखलाया है । 
अपनी मेहनत के दम पर ही आज हमने भारत  को बुलंदियों तक़ पहुचाया है । 


हम भिक्षुक नहीं , हमारी प्रतिष्ठा और पहचान तॊ मेहनतकश इंशान के रूप मेंं होती है । 
एक मजदुर इतिहास लिखना और बदलना बाखूबी जानता है , इसी लिए इसकी इबादत  साक्षात श्रम के  भगवान के रूप मेंं होती है ॥ 


मेरा  पहचान का यह  दिवस प्रतिवर्ष भीषण गर्मी के महीने मेंं इसी लिए  आता है । 
श्रमयोगी के इस कर्मयोग को पूरा विश्व मजदूर दिवस के रूप मेंं मनाता है ॥ 


*विश्व मजदूर दिवस की बधाई ।* 


🙏 *राजेश*  मेरी एक कविता ।


 


मजदूर 


पनघट


तरसते घड़े,
सूखे पनघट,
आस नयनों में,
एक जलधारा की,


मैं कुम्हार घड़े गढ़ता,
गढ़ ना पाया भाग्य,
मेहनत से जो कमाया,
परिवार का पोषण कर पाया,


सबकी प्यास बुझाने में,
खुद ही रीता रह गया,
पनघट पर बैठा मैं,
फूटे घड़े संग,
प्यासा ही रह गया।


ममता कानुनगो इंदौर


गर्मी की तपती धूप
 सर्दी की ठिठुरन
आंधी , तूफान या
हो भीगी बारिश
हर मौसम की मार
सहता हूँ मैं बेबस
  *मज़दूर*
क्योंकि मेहनत ही
मेरा कर्म है 
वही मेरी रोज़ी रोटी
बनाता हूँ बड़े बड़े
घर, इमारतें,आलीशान
बंगले उठा टोकरे मिट्टी
ईंटो, गारे, सीमेंट के
पर खुद के रहने के
लिये होती सिर्फ टीन
या पॉलीथिन की छत
किसी सड़क किनारे
बनाता हूँ बड़े बड़े ऑफिस,
पुल, फ्लाईओवर, मॉल 
पर होती नहीं दो वक्त की
रोटी भी कभी अच्छे से 
पास मेरे
बाजरे की रोटी, प्याज़, पानी
से ही बस चल जाता काम मेरा
बनाता हूँ बड़े बड़े स्कूल, कॉलेज, हस्पताल
पर पलते होते बड़े बच्चे सड़कों किनारे ही मेरे
न ले पाते शिक्षा
न ही अच्छा इलाज
है देखो कैसी विडंबना
ये मेरी रचता यूँ पूरा संसार मैं
पर खुद के लिये ही जीने को
तरसता हर पल हर दिन
हर सांझ हर सवेरे ।।
*मीनाक्षी सुकुमारन*
    नोएडा


*मजदूर हैं हम*



मजदूर हैं हम
मजबूर नहीं हैं,
हैं आत्मसम्मान हमरा भी
काम के नशे में चूर नही हैं।


हैं घरों से दूर तो क्या
परिवार के लिए यहां जलते हैं हम,


है एक परिवार हमारा भी, साहब
यूं तो ना काटो हमारी तनख्वाह।


सो जाते हैं बच्चे भूखे मेरे
घर के कोनों में अंधेरे,
ठीक से नहीं हो पाती परवरिश उनकी,
क्यों कि आपको नहीं है चिंता सबकी।


स्कूल से बाहर निकल जाते हैं,
जब फिस हम नही भर पाते है।


पत्नी मेरी हमेशा के लिए सो जाती है,
जब मैं अस्तपताल के खर्चे नही सह पाता हूं।


रिश्तेदारी सब छूूट जाती है
सभी लोग मुंह मोड़ लेते हैं
गरीब कह के सब छोड़ देते हैं।



एक दिन मैं भी गुमनामी के अंधेरे में,
कभी सवेरे तो कभी शाम को सो
जाता हूं।
कफ़न भी देने वाला नही होता है कोई,
साहब, आपकी बेरहमी में कहीं
खो जाता हूं।


किस बात की हमें मिलती है सज़ा,
हमें परेशान कर के क्यों लेते हो
मज़ा।


हम भी तो है एक इंसान,
अब तो करो हमारा सम्मान।


पूजा प्रसाद
तिनसुकिया



*कविता( मजदूर की स्थिति)* 
 _*काव्यरंगोली वेवसाइट हेतु_ *
घर छोड़ा ,वह चला कमाने 
दिल में कुछ अरमान ।
थैले में कुछ  चना -चबेना 
 बस  इतना सामान ।
              टूटी चप्पल, फटा पजामा 
               ना कोई अभिमान। 
              बेहतर उज़रत की खातिर 
              वह सहता कई अपमान ।
साहब लोगों की कोठी पर 
दिनभर करता भारी काम ।
तन की भूख नहीं मिट पाती 
 थोड़े से ही मिलते दाम ।
           साहब का कुत्ता ही बेहतर 
            वह तो बिस्कुट खाता है ।
            जब उसकी इच्छा होती 
            वह चैन से सो जाता है ।
पर उसको एक क्षण की 
फुर्सत नहीं मालकिन देती है।
 नहीं पी सके पानी  इतना 
मौका आने देती है।
          वह भी तो इंसा है आखिर            
           ऐसा  क्यों होता है ?
           वर्ष में चिंतन एक दिवस
            इससे क्या हित होता है?
  *डाॅअरविंद श्रीवास्तव असीम* 
छोटा बाजार दतिया (मध्य प्रदेश) 475661 
मोबाइल 9425726907



मजदूर की पीड़ा,घनाक्षरी छंदमें।
भारतमें मजदूर आजभीतो बधुआहै।
देखना चाहोतो जा विहार देख
लीजिये।।
और बहाँजाकेभी न समझें  कभी
तो आप।
दिल्ली मदरास लखनऊ देखि ली
जिये।।
देखिलो फिरोजाबाद और देखो
कानपुर।
मजदूरोंकी भी कुर्वानी देखि ली
जिये।।
दुर्ग भिलाई रायपुर नागपुर  देखो
ब्रम्हानन्द सब देखि प्यार इन्हें
दीजिये।।
डॉ ब्रम्हानन्द तिवारी,,अबधूत,,


गीत  -     संत्रास लिखे क्यों...?


मजदूरों के भाग्य दुर्दशा के संत्रास लिखे क्यों ?
भूख गरीबी बेकारी की हरदम प्यास लिखे क्यों ?.....1


सरकारी धन पर इठलाते,
धनिकों के क्या कहने।
और गरीबों के हिस्से में,
हथकड़ियों के गहने।
कर्तव्यों के पालनकर्ता ,-
को भोजन के टोटे,
कब कोई कान्हा आएगा,
 पाप प्रथा को ढहने।।


बिन माँगे धनिकों को दो, हमको अरदास लिखे क्यों ?
मजदूरों के भाग्य दुर्दशा के संत्रास लिखे क्यों ?....2


चोटी से ऐड़ी तक हरदिन,
बहता खूब पसीना।
प्रतिदिन खोद-खोद कर कुँआ,
पड़ता है जल पीना।।
पास हमारे और नहीं कुछ,-
केवल श्रम की पूँजी,
जी-जी कर मरना है प्रतिपल,
मर-मर के है जीना।।


रुदन भरे अपने जीवन,उनके में रास लिखे क्यों ?
मजदूरों के भाग्य दुर्दशा के संत्रास लिखे क्यों ?....3


श्रमजीवी मानव के फल का,
बन्दर बाँट नहीं हो।
भूखों के पेटों पर अब,
धनिकों की लात नहीं हो।
कोठी बंगला कारों के हम,-
नहीं पालते सपने,
किन्तु हमारे स्वाभिमान पर,
अब आघात नहीं हो।


तकदीरों के लेखक तुम,इतना बकबास लिखे क्यों ?
मजदूरों के भाग्य दुर्दशा के संत्रास लिखे क्यों ? .....4


चन्द्रवीर सोलंकी "निर्भय"


 


 


कविता..


              *श्रमिक दिवस*
               ~~~~~~~~
     सूरज की गर्मी जिसे रोक नहीं पाई,
     तप्त रेत से कभी नहीं जो घबराया।
     रोजी रोटी की खातिर मेरा श्रमिक,
     कड़कड़ाती धूप में काम पर आया।।


     एक मई श्रमिक दिवस है उपकारी,
     अभिनंदन, महिमा अजब निराली।
     क्रर्म तंमयता उन्हें पहचान दिलाती,
    फर्ज निभाते,नहीं करते वे मनमानी।।


     सर्दी-गर्मी, वर्षा से कभी नहीं डरते,
     हमें खुशी दिला, कितने दुख सहते।
    आषाढ़ी बादल देख,मन में मुस्काते,
    कर मेहनत खेतों में फसलें लहलाते।।


     हिम्मत से नहीं घबराती है मानवता,
    आधुनिकता में,ध्यान कोई न रखता।
    आनबान शान से आगे बढ़ता जाता,
     उस पर तरस किसी को नहीं आता।।


     नहीं उसको छुट्टी,न मेहमाननवाजी,
    हमअभिनंदन करतें,वो है विशवासी।
    आस लगाता,किस घर में दाना पानी,
    उसकी भी सुनना,है वह आसावादी।।


    बालश्रम की इस निंदा से,बचना होगा,
    छोटे बच्चों को हक दिलाना ही होगा।
    नहीं समझे तो परिणाम भुगतना होगा,
   नईपीढ़ी का हम पर विश्वास नहीं होगा।।
रामबाबू शर्मा, राजस्थानी,दौसा(राज.)



---------- *श्रमिक दिवस* ----------


एक मई है श्रमिक दिवस,
आओ मिलकर मनाये सब।
रोज मेहनत करके पसीना बहाते।
रोजी रोटी कमाके बच्चो के पेट भरते।
वह कौन है मेहनत करने वाले,
जिसके कंधे पर बोझ बढ़ा।
वो भारत मां का बेटा कौन ?।
जिसने पसीने से भूमि को सौंदा,
वो भारत मां का बेटा कौन ?।
वह किसी का गुलाम नहीं।
खुद मेहनत करके वो,
अपने दम पर जीता है।
काम जैसा भी हो उसे,
लगन से उसे करते है।
जब कर्म करने पर मिलता है,
सफलता एक-एक ही सही।
तभी तो अधमस्त से श्रमिक कहलाता है ।


*परमानंद निषाद निठोरा*


 



विश्व मजदूर दिवस 


  "हम मजदूर मेहनत करते हैं"


 "हम मजदूर करते हैं, हर मौसम  में'
हम मजदूर हैं , मेहनत - मजदूरीकरते हैं
जी -जान से परिवार का पालन करते  हैं,
भीषण गर्मी हो या सर्दी ,धूप हो या बारिश
करते परवाह कभी न मौसम की श्रमिक


बोझा ढोते , मेहनत करते ,पसीना बहाते
स्वाभिमान से जीते, जिम्मेदारी पूरी उठाते
तपे चाहे डांबर सड़क या कांटोभरी सड़क
कदम हमारे न रुकते, चलते , चलते रहते


पैर लहूलुहान होते,पसीने से तरबतर होते
रुकने का पर नाम न लेते बस चलते रहते
हम मजदूर  हैं मजदूरी ही हमारा  काम है
संघर्ष  करेंगे मिलजुलकर हम काम करेंगे।


 हमसब मजदूर संगठित होअपना काम करेगै
इक्कीसवीं सदी के श्रमिक नवनिर्माण करेंगे 
ईंट पत्थर सीमेंट  ढोकर भवन निर्माण करेंगे 
ऊंचे-ऊंचे भवन बनाकर जग कल्याणकरेंगे।।


खुद की कोई  परवाह  नहीं
 फिर भी कोई  कराह नहीं 
रहने को कोई मकान नहीं 
बच्चों  की कोई शिक्षा नहीं 
ऊपर वाले  ने नीली छत दी है 
अपने को बस संतोष यही है।
आशा जाकड़
9764969496



मजदूर दिवस पर विशेष 


आज मजदूर,हो गया है,कितना मज़बूर।        
न घर जा पाता है,न रोटी जुटाता है,
है फाॅ॑का करने को मज़बूर।


आज का मजदूर,ऐसी विपदा को,
झेल रहा है पहली बार।बेबस है, न काम है,न रोजगार।
साथ है परिवार।जाए,तो जाए कहाॅ॑ 
कहती हैं सरकार,जो जहाॅ॑ है,वहीं रहे।
हम मरने नहीं देंगे,'कोरोना' से।
पर उसे क्या पता,वो तो वैसे ही मर जाएगा।
फैलाकर हाथ,पापी पेट के लिए।
उसने,कमा कर खाना सीखा है,माॅ॑ग कर नहीं।


             ।। राजेंद्र रायपुरी।


*मजदूर*


हाय कैसी पेट की आग
कैसे कैसे जतन कराये
दो वक्त की रोटी के लिये
कड़ी धूप में पत्थर तुड़ाये


अपनों से सारे रिस्ते तोड़कर
आन गाँव में बसर करवाये
कैसे कैसे ताने सहकर
अपने परिवार का पेट भराये


भवन अट्टालिकायें इनके श्रम 
बिन्दु से बनती
गारा कंक्रीट ईंट सिर पर ढोती
तसला गैतीं फाफड़ा चलातीं
विश्राम कभी न करती


केसे केसे जतन करके 
हमारे लिये आहार जुटातीं
ये श्रमिक ही हैं अन्न देवता
हमारे लिये हर काम है करतीं


होते मेहनतकश ये मजदूर
इनको मत करो इतना मज़बूर
न कर पांये ये आत्महत्या
हम करें कुछ जतन जरूर


हक है इनको भी जीने का
मत लो इनकी आह
स्वदेशी वस्तुओं लेने की 
मन में रखो चाह


     अर्चना कटारे
    शहडोल (म‌.प्र)


हरि प्रकाश गुप्ता
भिलाई छत्तीसगढ़


शीर्षक-  ** मजदूर **


मजदूर हूं
मजबूर नहीं
मजदूरी कर पेट भरता हूं
न किसी से डरता हूं
कामचोरी हराम है
मुझे नहीं आराम है


पढ़ा लिखा नहीं तो क्या
कुशल मजदूर हूं
रोजगार नहीं है
पढ़ लिख कर भी
मजदूर है
क्या कसूर है
बिना पढ़े मजदूरी करता हूं
किसी भी काम में शर्म नहीं करता हूं


हरि प्रकाश गुप्ता



दोहा
मजदूरों को खोजती,
             भेजी बस  सरकार।
मजदूर जो तलाशते,
               मजदूरी उस पार।।



✒️पी एस ताल


सभी को मेरा सादर नमस्कार एवं सभी को उनकी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई🙏🙏💐💐💐💐


आज मज़दूर दिवस  है  उन्हीं पर आधारित हाइकु 



हाइकु
----------
1) मजदूर हूँ
    मकान बनाता हूँ
     मैं बेघर ही ।



2)धूप सिर पे
    नया रास्ता बनाता
     पसीना बहा ।



3) संघर्ष बिना
    कहानी अधूरी है
    मजबूरी भी।



4) ताजमहल
    निशानी प्यार की है
     जुड़ी मुझ से ।



5) चलना काम
    श्रमिक के हिस्से ही
     कहाँ आराम?



6) वो कामगार
    सिर पर आकाश
    बेपरवाह।



7) जीवन नैया
    भगवान भरोसे
     मजदूर की ।



10) बोझा ढोता हूँ
   गगन चूमे मकां
   मेरा न नाम।



9) एक पहल
     मजदूर दिवस
      मनाते सभी।



10)दुनिया सारी
     कर रही मान है
      मजदूरों का ।
  *आभा दवे*



🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
       भिलाई दुर्ग छग



🥀विषय मजदूर दिवस🥀



विधा मनहरण घनाक्षरी छंद


🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂


कौन नहीं मजदूर,करें खूद काम दूर।
पर काज कुदृष्टि को,हटाना जरूर है।।


🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂


बैठ कर उच्च पद,तन-मन गदगद।
निम्न पद क्रूर करें, भरे मगरूर है।।


🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂


होके खूद मजदूर, छोट करें मजबूर।
अहंकारी के अहम,तोड़ना गुरुर है।।


🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂🍂


जो भी जन करें काम,अपने करें या आम।
सबका सम्मान यश,जरूरी दस्तुर है।।


यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
       भिलाई दुर्ग छग



सुधी मंच सादर ---
गीतिका ---#मजदूरदिवसपरसमर्पित
आधार छंद सार--
16,12पर यति अंत दो गुरु


शक्ति चेतना संकल्पित ये,जीवन अर्थ धरा है ।
स्थूल द्रव्य या पंचतत्व घन,कानन अर्थ धरा है।


शैत्य ताप ऋतु परिवर्तन की,कमठपीठ ये धारक,   
रात्रिदिवस से सज्जित उर्जित,साधन अर्थ धरा है  ।


राग रंग संवर्धित जिसमें,श्रांत क्लांत हित संबल, 
अर्पण सुधा समाहित जीवन,यापन अर्थ  धरा है ।


धीर वीर ये विश्व सखावत ,बना हेतुकी रक्षक, 
बहे जहाँ सागर संगम नद,पावन अर्थ धरा है ।


नेम धर्म  से  शुभ  अरुणोदय,गुंजित नंदन वंदन ,
प्रेम प्रकृति से द्विगुणित सुखदा,सावन अर्थ धरा है
                                       डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी



मजदूर है.... 


अगर देखा जाए 
तो हर व्यक्ति मजदूर है 
जो ढ़ोता है अपनी कमर पर 
परिवार की ज़िम्मेदारियाँ 
सुबह से शाम तक 
बिना कोई परवाह 
बिना कोई उम्मीद 
उसे नहीं मालूम क्या मिलेगा 
लेकिन उसका ध्येय है ईमानदारी से 
अपने पथ पर बढ़ना और बढ़ते जाना. 


ये मजदूर एक पिता है 
जिसपर कई लोग निर्भर हैं. 
बेशक़ आज मजदूर-दिवस है 
लेकिन वो मुक्त नहीं अपनी, 
दिनचर्या से और ज़िम्मेदारीयों से. 
पीठ और पेट का फासला तय करते 
चले जाना है इस मजदूर को 
एक दिन"उड़ता"दुनियां से अलविदा होकर. 


 


स्वरचित मौलिक रचना. 


द्वारा - सुरेंद्र सैनी बवानीवाल "उड़ता"
झज्जर (हरियाणा )
संपर्क +91-9466865227


दिनांक :- 1.5.2020 
दिवस :- शुक्रवार
विषय :- मजदूर 
          विधा :- दोहे 
*~~~~~~~~~~~~~~~~*
स्वेद मजदूर का बहे, तब बनती मीनार |
सब अमीरों के बसते, चौड़े में घर वार ||


दिन भर मेहनत करते, रात है सुख समान |
चोर की परवाह किसे, सोते चादर तान ||  
 
रोज मंहगाई बढ़े, रोके नहिं रुक पाय |
दिन रात मेहनत करें, कोई हल न सुझाय ||


नित मेहनत करने को, होते सब मज़बूर |
खूब पसीना बह रहा, रुके नहीं मजदूर ||


करता है हर हाल में, बेनागा वह श्रम |
दिल में वह रखता नहीं, तनिक कोई भी भ्रम ||


सदा मेहनत से करे, अपने पर संतोष |
कभी हार नहिं मानता, कबहु न देवे दोष ||
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
#सर्वाधिकार सुरक्षित
आशा दिनकर
नयी दिल्ली


चंद लाइने..🖋


हाँ उसकी मजबूरी थी वो इक मजदूर था
आँते पीठ से लगी थी उसकी वो मजबूर था
पर था उसे गुरुर जो सीने में था भरा
क्योंकि मेहनत का निवाला व्यंजनों से भर पूर था
🖋
तोड़ता था बदन दिन भर काम के लिये
फिर पीता मधुरस कुछ आराम के लिये
उसके मन में इक गहरा शुकून था
क्योंकि वो मरता था देश की आवाम के लिये।


सरिता कोहिनूर 💎


आज श्रमिक दिवस पर सरसी छंद में एक मुक्तक प्रस्तुत कर रही हूँ 🙏🙏
**************
सरकारी अफसर हो कोई,या मजदूर किसान।
सच पूछो तो श्रमिक सभी हैं,दुनिया में इंसान।
शारीरिक श्रम करता कोई, खर्चे  कोई दिमाग,
इसीलिए हर एक व्यक्ति को,दो समुचित सम्मान।
**********
प्रतिभा गुप्ता


०१-मई,२०२०(श्रमिक दिवस)पर
*************************
श्रमिक दिवस पर,श्रमिक व्यथित हैं।
बंद कारखाने।
कैसे जियें और क्या खायें,श्रम के क्या माने।।
लौट रहे हैं,घर को अपने, रोते सब बेचारे।
श्रम का मूल्य नहीं मिल पाया, 
लौट रहे घर सारे।।
पाते कहां उधारी,कैसे निज परिवार चलाते।
मजबूरियां बड़ी थीं, इतनी पूंजी
कैसे पाते।।
अपनी कर्मभूमि पर रह कर,खुश थे,खुशी लुटाते।
रुंधे गले से, जन्मभूमि की ओर लौट सब आते।।
श्रम ही अगर इन्हें करना है,घर पर ही कर लेंगे।
थोड़ा ही खायें गे,पर अपनों संग तो रह लेंगे।।
जन्मभूमि का कर्ज चुका,श्रम घर पर ही कर लेंगे।
अपनी माटी में प्राणों को, अर्पित हम कर देंगे।।


ओम प्रकाश खरे ©०१/०५/२०२०



शीर्षक मजदूर नही मजबूर


मजदूर हूं मैं  न  मजबूर  हूं मैं,
श्रम का देखो गुरुर हूँ मैं।


दो हाथों का है मुझको सहारा,
चलता इन्हीं से है गुजारा।
फिर ना कहना ना मुझको पुकारा
कामों में अपने मशगूल हूं मैं
मजदूर हूं मैं न मजबूर हूं मैं।


नींव का पत्थर बनू सदा ही,
ले लूं श्रेय मुझको मनाही
रब चाहेगा देगा दिला ही
परिश्रम से ही तो मशहूर हूँ मैं
मजदूर हूँ मैं न मजबूर हूँ मैं।


मेहनत ,पूजा तो मान करो ना
श्रमिकों का अपमान करो ना।
अधिकार मेरा स्वीकार करो ना
हक दो मुझे तो बोल दूँ मैं
मजदूर हूँ मैं,नमज़बूर हूँ मैं
श्रम का देखो गुरुर हूँ मैं।


रश्मि लता मिश्रा
सम्पादक काव्यरंगोली
बिलासपुर सी जी।



*_01मई अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस पर रचना प्रस्तुत है...._*


मजदूरों  की  मजबूरी  का  खेल निराला है,
डट जाए कर्तव्य पथ पर सब कर जाता है।


प्रतिपल    भीग    पसीने   से
कांटों   में   राह   बनाता    है
खेतों    से    खलिहानों   तक
नई इबारत  लिखता जाता है।


परिवारों   के  लालन - पालन  में
गांवों से शहरों की  बाट बनाता है
अपने   शिल्पी   खून   पसीने  से 
मंजिल   दर   मंजिल   बनाता  है।


मजदूरों  की  मजबूरी  का  खेल निराला है,
डट जाए कर्तव्य पथ पर सब कर जाता है।


हांक   हांक   कर   रिक्शा   गाड़ी
पसीने से तर-बतर  होता जाता  है
पत्थर कोयला तोड़कर  लाख बना
भठ्ठों  पर  पसीने  से ईंट पकाता है।


कहाँ देखकर जीवन संघर्षों की मेहनत कश सूरज अपनी तपिश से ठंडी बयार चलाता है


मजदूरों  के  नितनव  शिल्पों  के   बदले
कौन  पुरस्कृत  कर   उत्साह  बढ़ाता  है 
पत्थर    बनकर    दु:ख    दर्द     झेलता
व्याकुल हो तिरस्कारों में मन बहलाता है।


ऊंचे रख सदा इरादे साहस कभी न खोता है
गिरकर उटता उठकर चलता सांसों से प्यास बुझाता है।


*_दयानन्द त्रिपाठी_*
   *_व्याकुल_*
ल्क्षमीपुर, महराजगंज,
      उत्तर प्रदेश ।


 



 मजदूर दिवस मई दिवस
मुक्तक


मेहनत से ही तो आज खड़े ये
सब  बंगलें  कोठी  मकान  हैं।


किसान ही तो उपजाते ये सब
खेत    और    खलिहान   हैं।।


कठोर  परिश्रम से  ही उत्पत्ति 
होती प्रगति और विकास की।


लाखों सलाम उन श्रमिकों को
जो बना रहे नया हिंदुस्तान हैं।।


एस के कपूर श्री हंस बरेली
मोब  9897071046
8218685464


 


 


मजदूर दिवस 
1.5.2020


कभी देखा है माँ की थिरकती उंगलियों को
जो नित मधुर वचन से सिर पर हाथ फेर 
लग जाती अपने निमित खुड़ ही बाँध लिये कर्म में
जिसकी मजदूरी सिर्फ प्यार और सम्मान ।


सोचा है कभी चूल्हे से जले हाथ पर ख़ुद ही गीला आटा लगाती
मुस्कुराती, तुम्हारी थाली गर्म परोसती बस खुश होती देख मुँह म् जाते निवाले को
मजदूरी तुम्हारी मनुहार बस खुशी झलकती चेहरे पर।


ताप से जलती ,उठ करती प्रभुवन्दन
चढ़ाया दूध चाय का पानी मिठास घोलती 
नही देखी तुमने आंखों की उदासी जो छुपा रही वो पल्लू में 
क्या चाहिए बस थोड़ी सी पूछ क्यों हो उदास माँ ।


मजदूर दिवस पर इधर उधर की मजदूरी लिखते हम सभी
क्यों नही जाता ध्यान कभी माँ की निरन्तर काम में जुटी देह का
जो कर्मठ किसी प्रत्युपकार में नही 
अपने ही द्वारा थोपी गई मजदूरी को करती रहती निष्काम यूँ ही।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"
देहरादून 



शीर्षकः ⚒️⛏️🔨जान मुझे मैं कामगार🔩🔧
जान  मुझे  हूँ  कामगार  मजदूर   समझ  ले मुझको।
शिथिल गात्र और गत   गर्त नैनाश्रु समझ ले मुझको। 
है  क्षुधार्त  जठरानल तपते तृषार्त  समझ ले मुझको।
गठरी कुदाल ले ढाल बना बदहाल समझ ले मुझको। 
सड़क पड़ा चिथरों में लिपटा लाचार समझ ले मुझको।
लावारिस अंबर तल छत और वसन समझ ले मुझको। 
बेच  स्वयं की आह  राह में  गुमराह समझ ले मुझको ।
इधर  उधर  बस दीन  हीन  मज़बूर  समझ ले मुझको। 
चाकर ,नौकर  ,दास भृत्य  अवसाद समझ ले मुझको।
रोग शोक  उत्ताप दमन  अभिशाप   समझ ले मुझको। 
हाथ बाट नित द्वार खटकता आहार समझ ले मुझको।
दानवता का कंस दंश बस प्रतिभाग समझ ले मुझको।
घना तिमिर जीवन पर निर्भर बर्बाद समझ ले मुझको। 
पगदण्डी धर चली जिंदगी प्रतिहार समझ ले मुझको। 
स्रोत सदा उत्थान जगत जो अपराध समझ ले मुझको।
हूँ   आहत  राहत  दे  सबको  मज़दूर  समझ ले मुझको।
सना रुधिर कर पाद गात्र नित परमार्थ समझ ले मुझको।
करुणा   ममता   दया   धर्म    बेकार  समझ  ले मुझको।
जन गण मन   आधार   वतन निर्माण  समझ ले मुझको।
नित   दोहन  अवसीदन  मर्दन  सुपात्र समझ ले मुझको।
दुःखी नहीं तकदीर समझ खुद एतवार समझ ले मुझको।
मजदूरी यायावर दृढपथ बस अवसान समझ ले मुझको।
नव आशा ले नयी भोर का अभिलाष समझ ले मुझको।
मिहनत नित ब्रह्मास्त्र बना जीवन गान समझ ले मुझको।


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नई दिल्ली



मज़दूर दिवस विशेष
मज़दूर की व्यथा


मैं मज़दूर हूँ पर मज़बूर नहीं,
हालातों से हारा हूँ फिर भी…
अन्दर से कमज़ोर नहीं,
हर निर्माण की नींव बना मैं..
कंगूरे का अरमान नहीं,


हर कोई अपनी धौंस ज़माए..
कोई मृदु व्यवहार नहीं,


श्रम,समय व स्वेद ही पूंजी..
बाज़ार में इसका मोल नहीं,


राजनीति की रोटियाँ सीकती
घर में खाने को अब अन्न नहीं,


मैं दिखने में कमज़ोर मगर…
इरादों से मज़बूर मज़दूर नहीं,


मेरे नाम पर कहाँ,कब,कितने पलते
इसकी मुझको कोई परवाह नहीं,


केवल मज़दूर बना श्रम साधता.
यहाँ स्पष्ट मेरी कोई पहचान नहीं,


जबसे शासन व सत्ताएँ परवान चढ़ी..
तब से,आशाएँ व इच्छाएँ वहीं खड़ी,


धैर्य वही था,श्रम वही था,स्वेद वही था..
स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं था,


संग समय के यहाँ सबकुछ बदला
बदला केवल हमारा समय नहीं था,


मैं मज़दूर हूँ मज़बूर नहीं …
समय का हारा हूँ कमज़ोर नहीं ।।


सादर प्रस्तुति
डॉ.अमित कुमार दवे,खड़गदा



 मत कहना कि मजबूर हैं हम,
हाँ सच है कि मजदूर हैं हम।
सजते हैं नित नूतन सपने ,
पर खुशियों से दूर हैं हम।।


दिन रात परिश्रम हम करते,
पर झोपड़ियों में हम रहते  ।
महलों को देकर रूप नए,
संतोष हृदय में हम रखते ।।


हम दंश झेलकर मौसम के,
विपदा में भी मुस्काते हैं 
रूखी सूखी रोटी न मिले,
तो खाली पेट सो जाते हैं।।


ये क्षुधा उदर की है निष्ठुर ,
दिन रात परिश्रम हम करते।
वो मेहनत भी क्या मेहनत??
जो शिशु के पेट नहीं भरते।।


हम धूप तपिश वाली पाते,
तुमको शीतल सी छाँव मिले।
हम सेवक हैं तुम स्वामी हो,
इस रिश्ते को कुछ मान मिले।।


इस अर्थ विषमता ने हमको,
कितना बेबस, लाचार किया।
स्वार्थी बनकर हर रिश्तों ने,
मुश्क़िल में दामन छुड़ा लिया।।


सुख,वैभव के सामान नहीं,
हम स्वर्ग बनाते छप्पर में।
हमसे न कोई दुर्भाव करो,
हम जान डालते पत्थर में।।


अभावों भरा जीवन जीते,
तेरे दु ख के आँसू पीकर।
कुचले जाते फुटपाथ वही,
जहाँ स्वप्न सजाते हम मिलकर।।


तुम पर्व मना कर सालों से,
हमें दया का पात्र बनाते हो।
बस छीन रहे सम्मान मेरा,
और झूठे दंभ दिखाते हो।।


सुन लो सुख भोगी इंसानों,
हम भी ईश्वर की संतानें।
जब लहू,रूप सब एक ही है,
तो अर्थ विषमता क्यों ठानें??
           ।।अर्चना द्विवेदी।।



मजदूर दिवस
      .................
मजदूर दिवस या 
मई दिवस का
कितना शोर मचाते हो ।
ये तो बतला दो साथी
कितनों को पार लगाते हो ।
कितने बच्चों को मजदूरी के
बेड़ी से मुक्त कराया बोलो ।
कितने मजदूरों को उनका
हक दिलवाया है बोलो ।
करना है कुछ गर तुमको
क्षमता है तेरे पास अगर ।
बच्चों को मजदूरी के
बन्धन से आजा़द करो ।
उनके हित भी विद्यार्जन का
साथी मार्ग प्रशस्त करो ।
मजदूरों को उनका 
हक सम्पूर्णतया मिल जाये ।
मई दिवस की शोभा 
तब ही सही सच्ची होगी ।


डॉ.सरला सिंंह 'स्निग्धा' 
दिल्ली ।



श्रम दिवस को समर्पित----
गीत--


तुम वर्तमान के पृष्ठों पर ,पढ़ लो जीवन का समाचार ।
क्या पता कौन से द्वारे से ,आ जाये घर में अंधकार।।
🌹
आशा की किरणें लौट गयीं ,बैठी हैं रूठी इच्छायें
प्रात: से आकर पसर गईं ,आँगन में कितनी संध्यायें
इन हानि लाभ की ऋतुओं में, तुम रहो सदा ही होशियार ।।
तुम वर्तमान-----
🍁
चल पड़ो श्रमिक की भाँति यहाँ, छेड़ो  जीवन का महासमर
अवसान हताशा का कर दो ,सुरभित हों मरुथल गाँव नगर 
श्रमदेवी कर में भेंट लिये ,आयेगी करने चमत्कार ।।
तुम वर्तमान--------
🌷
प्राची ने शंख बजाया तो ,कर्तव्यों का दिनमान चला 
फिर कलश उठाये हाथों में ,जीवन क्रम का अभियान चला 
हर गली मोड़ चौराहों पर ,खुल गया दिवस से विजय-द्वार ।।
तुम वर्तमान-----
🌺
स्वागत हो हर श्रमजीवी का ,हर तन को भी परिधान मिले
शिशुओं के आभा-मंडल पर, सुंदर-सुंदर मुस्कान खिले
छँट जाये छाया तिमिर घना ,मिट जाये जग से अनाचार ।।
तुम वर्तमान------
🌱
हर ओर शाँति के दीप जलें , सदभाव फले हर उपवन में 
*साग़र* न भयानक रूप दिखे , अपना ही अपने दर्पन में
मानवता के जलजात खिलें ,हो धूल धूसरित अहंकार ।।
तुम वर्तमान-–-----


🖋विनय साग़र जायसवाल


मजदूर परिवार
***********


बीच मजधार फंसे
मजदूर,
साथ में बीबी बच्चे,
भूखे प्यासे,
सर पे गठरी,
सूखी ठठरी,
घर की आस,
बड़ी बाधाएं,
कहां जाएं,
काम न काज,
कोरोना का राज,
फंसे परदेस,
सरकारी आदेश,
जहां हैं वहीं रहें पड़े,
चाहे भूख से तड़पना पड़े,
हुयी मुनादी,
कल बसें चलेंगी,
जान में आयी जान,
उठाया सामान,
बढ़ती भीड़,
हुआ लाठी चार्ज,
झूठी थी खबर,
हुए बेघर,
चले पैदल पैदल,
उसकी भी मनाही,
रुकी आवाजाही,
हुयी शाम फिर रात,
टूटी भोजन की आस,
रोता बच्चा,
फटता मां का कलेजा,
निस्तेज शरीर,
सूखी आंते,
बच्चा चूसता स्तन,
न निकले दूध,
न पानी,
काट खाया जैसे
बिल्ली खिसियानी,
चीखी मां,
देखा बहता रुधिर,
हुई मूक बधिर,
सहलाया बच्चे का सर,
मजबूरन ठूंस दिया
बच्चे के मुह में
कटा स्तन,
बच्चा पीते पीते
सो गया,
लो उठो भोर हो गया,
चारो तरफ शोर हो गया,
भोर हो गया।।


भावुक


"मजदूर"
खेतों में उपजे हों अन्न
चाहे बने हों महल अटारी
उसकी ही है
मेहनत सारी ।
दिन में जिसे
आलस ना आती
रातों को नीद
पास ना फटकती ।
धूप उसे ना कभी जलाती
बरसात उसका कुछ ना बिगाड़ पाती ।
सबको छाजन देने वाले की
आसमां तले हैं
रातें गुजरती ।
सबकी थाली भरने वाले की
थाली कभी नहीं है भरती।
मेहनत के बदले उसको मिलती
भूख प्यासी और लाचारी ।
आख़िर गलती है क्या उसकी
कब सोचेगी दुनिया सारी
  जगदीश्वरी चौबे
वाराणसी


मजदूर दिवस पर
सभी को शुभकामनाएं
सारा संसार इस वर्ग का सदा  ऋणी रहेगा 💐🙏
*मजदूर*
======
मैं मजदूर  हु नींव में
             पत्थर भरने वाला ।
कमाकर रोज ,
     ,रोज की भूख मिटाने वाला ।
पर गैरों के ,
        स्वप्न सजाने वाला ।
निर्माण पूर्ण करके,
   अपूर्णता को धारण
                     करने वाला  ।
जीता हु या मरता हु,
         खुद की मुश्किल से
                  लड़ने वाला ।
किसे फर्क पड़ता है,
   ना कोई चिंता करने वाला।
दौलत है मेरी मेरा सूखा तन
                    और टूटी खाट,
अनदेखा जिसे योजनाओं में
कर देता,
         गरीब ही की
               योजना बनाने वाला ।
अनदेखा मैं नहीं कर सकता,
   मैं निर्माता हु ,नहीं हु विध्वंस करने वाला ।
स्वरचित ✍️
   माधुरी मालपानी खंडवा


मजदूर की जिंदगी.....


किसी  को  नहीं  फिक्र  गर  जाये हम  मर
मेहनत   मजदूरी   कर   के   पेट   रहे  भर
हर  हमारी  पीड़ा  को अब तो  ऊपर  वाले
कम से कम नसीब में हो हमारे भी एक घर
किसी को नही फिक्र.............................


काम  कर  के  काया  हो  रही  देखों जर्जर
ढोना  पड़ता  रोज  माल  तगारीयाँ  भरभर
जवाब  देने   लगें   हैं  अब   तो   काँधे  भी
कोई  ले  हमारे  दुःख  दर्दों  को  आकर हर
किसी को नहीं फिक्र..............................


सूख  जाते  भरी   दोपहरी  प्यास  से अधर
लगते   थककर   दोनों    जवाब   देने  कर
और  भर   जोश   हो    जाते    फिर   खड़े
काम तो करना है फिर काहे का अगर मगर
किसी को नहीं फिक्र..............................


कीर्तिप्रद.......


मई दिवस पर समसामयिक गीत


कठिन परिश्रम करें नित्य हम भारत के मजदूर.
जाने क्यों फिर भी रहती है मंजिल अपनी दूर..


गर्मी सर्दी जाड़ा बारिश हर मौसम को झेल रहे.
मजदूरी दो सौ दे आटा गायब सब्जी तेल रहे.
अन्धकार में बीते जीवन मिलता हमें प्रकाश नहीं.
हाथ पाँव जब घायल होते तो इलाज अवकाश नहीं.
नियति हमारी शोषित होना यह समाज मजबूर
जाने क्यों फिर भी रहती है मंजिल अपनी दूर..


शिक्षा स्वास्थ्य चिकित्सा सुविधा सारी हमसे दूर रहे 
संतति अपनी मजदूरी ही करने को मजबूर रहे
बरस बहत्तर बीते साथी फिर भी अब तक घाव हरा
होठों पर मुस्कान रखें हम यद्यपि दिल में दर्द भरा
सबके ही सहयोगी हम पर मन में नहीं गुरूर
जाने क्यों फिर भी रहती है मंजिल अपनी दूर..


कागज़ पर ही चले योजना इसका हमको भान नहीं
पी० ऍफ़० और पेंशन बीमा क्या होता है ज्ञान नहीं
बेटी व्याही कर्ज भाग्य में ऐसा है जीवन अपना
मजदूरी में भुगतें क्या-क्या कर्जमुक्ति ही है सपना
मोदीजी से आस हमारी समझें हमें हुजूर
जाने क्यों फिर भी रहती है मंजिल अपनी दूर..


--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’


मज़दूर.....
*******************
मज़बूर है~
वो मेहनतकश
मज़दूर है

किस्मत क्रूर~
दीनहीन जीवन
कैसा दस्तूर

स्वेद बहाता~
आँसुओ से लिखता
संघर्ष गाथा

कैसा है राज~
दाने-दाने को है वो
क्यों मोहताज़

भले  ग़रीब~
दिल से मज़दूर
होता अमीर

भूलों गुरूर~
मज़दूर को प्यार
दो  भरपूर

करो सम्मान~
कभी न हो श्रमिक
का अपमान

फटेहाल है~
देश का मज़दूर
बदहाल है

*******************
   💦निर्मल 'नीर'💦


आज के विषय पर मेरी रचना
दिनांक -०१.०५.२०२०
दिवस - शुक्रवार


*मैं मजदूर हूँ*


मैं मजदूर हूँ
इसलिए मजबूर हूँ
अपने घर, परिवार
शहर से दूर हूँ।
मैं मजदूर हूँ।


सुई से जहाज तक
संगीत से आवाज तक
हर रचना का मैं ही नींव
दुःखो से भरपूर हूँ।
मैं मजदूर हूँ।


पेट पीठ से सट जाती
धनाढ्यों को दया न आती
१८ घण्टे काम के बाद भी
नसीब में सुखी रोटी आती
पता नहीं किसका कसूर हूँ?
मैं मजदूर हूँ।


पसीने की जगह, खून बहाता हूँ
पर अपना हक, भी न पाता हूँ
नेताओं की घोषणापत्रों में
मैं ही तो भरपूर हूँ।
मैं मजदूर हूँ।


लड़ते रहना ही, कार्य है मेरा
फिर भी, चेहरे पर मुस्कान है मेरा
कर्म पर पूरा विश्वास है मेरा
हकीकत से बहुत दूर हूँ।
मैं मजदूर हूँ।


संतोष कुमार वर्मा 'कविराज'
कोलकाता, पश्चिम बंगाल


 


श्रम का सेवक
*************
अपने स्वेद  कणों से जग के स्वप्न सजाता हूं ,
वर्षा धूप देह पर हंसकर झेल भी जाता हूं। 
श्रम मेरी शक्ति है, श्रम जीवनयापन का साधन ,
श्रम का सेवक हूं गर्व से श्रमिक कहाता हूं। 
हाथ फावड़े और टोकरी कभी नहीं छोड़े हैं ,
कभी धूप में बांध मुरेठा पत्थर तोड़े हैं ,
शौक नहीं बंगले गाड़ी का ,
फ़िक्र सिर्फ रोटी की ,
बांध कारखाने मै ही दिन रात बनाता हूं।
 श्रम का सेवक हूं गर्व से श्रमिक कहाता हूं।
 मेरी आंखों में भी अच्छे दिन के सपने हैं ,
इंतजार करते मेरे भी घर पर अपने हैं,  
यह संसार सजाया मेरे जैसे ही हाथों ने,
 मैं अपने जीवन में भी उम्मीद जगाता हूं ,
श्रम का सेवक हूं गर्व से श्रमिक कहाता हूं।
कुहू बैनर्जी
प्र अध्यापक
प्राथमिक विद्यालय Atkohna
ब्लॉक नकहा
जनपद लखीमपुर खेरी


 


मजदूर दिवस
   हायकु


झरे पसीना
रूखी सूखी धरती
जेठ महीना


मिले दिहाडी़
विपदा नई नई
रोज सहता


है कर्मवीर
धरा उगले सोना
रे मेहनत


फावडा़ उठा
गमछा लपेटता
चलता जाता


अन्न उगाता
परिश्रम करता
हल जोतता


प्यार करता
बंजर धरती से
भूख मिटाता


दो वक्त रोटी
बच्चों का पेट भरे
देती तसल्ली


बना महल
रहता झोंपडी़ में
खुश उसी में


मजदूर हैं
करोना विपत्त्ति में
दहशत में


सार्थक होगा
मजदूर दिवस
करो सम्मान


डां अंजुल कंसल"कनुप्रिया"
1 -5-20


मैं मजदूर हूँ
नसीब से अपने, मजबूर हूँ ,
मेहनत करता हूँ, मगरूर हूँ।
दिन रात पसीना, बहाता हूँ ,
नज़र में लोगो की, बेशऊर हूँ।
धरती पर भी मैं, सो लेता हूँ ,
थकान से शरीर की, चूर हूँ।
स्वाभिमान से सदा, जीता हूँ ,
मक्कारी बेईमानी से, दूर हूँ।
यूँ तो अभावो का, अभागा हूँ ,
मगर टूटी झोपडी का, नूर हूँ।
गर्मी, सर्दी, बरसात सहता हूँ ,
इसलिए मैं थोड़ा सा, बेनूर हूँ।
असंख्य तनावो से, मैं दबा हूँ , 
सरकारी फाइलों में, मशहूर हूँ।  
गरीबी, लाचारी से, जूझ रहा हूँ ,
क्यूँकि मैं , निराश मजदूर हूँ।
= विनोद निराश , देहरादून
लघु परिचय
नाम = विनोद निराश
पुत्र = श्री ओमप्रकाश
पता = ए -114 , नेहरू कॉलोनी , देहरादून , उत्तराखण्ड
शिक्षा = स्नातकोत्तर
सम्प्रति = पत्रकारिता
रूचि = लेखन
विधा = ग़ज़ल , कविता , लघुकथा , मुक्तक , शे'अर , कहानी आदि।
दूरभाष = 09719282989


मजदूर 
****************
उदित भास्कर को वंदन कर,
चल पड़े निज पथ की ओर।
कर्मवीर वो लाल धरा के ,
इन पर जरा हम करेंगे ग़ौर।।
निज हाथों में पड़ गए छाले,
पर करें काम दिनभर मतवाले।।
चूना पत्थर और सीमेंट से ,
मालिक का घर बनाने वाले।
भोले -भाले  हिम्मत वाले,
इनसे जोड़ो जीवन की डोर,
आओ! इन पर करें हम ग़ौर।।


एक कहानी बहुत पुरानी ,
मुझे सुनाती थी मेरी नानी।
दूध हेतु रोये जब बच्चा ,
मां के आया आंख में पानी,
हो गई विह्वल अब उसकी माता।
दूध कहां से लाऊं विधाता?
पर हाय! दूध कहां से लाये,
निज सन्तति को चूना घोल पिलाये ।।
शांति प्रहरी यह करते न शोर ,
आओ! इन पर करें हम ग़ौर ।।


खेत खलिहान हो या सड़क निर्माण ,
किसी के मकान का हो नवनिर्माण ।।
खून पसीना एक कर देते,,
बदले में केवल मजदूरी लेते।
ये मानव जाति में सिरमौर,,
आओ! इन पर करें हम ग़ौर ।।


आज हमें संकल्प है करना,
इनके घर जाकर सहायता करना।
अभी काम नहीं तो दाम कहाँ,
इनके चूल्हे पर भात कहा??
सृष्टिनिर्माण निरन्तर करते ,
बिन भोजन आज वो भूखे से मरते,
हम कर्तव्य निभाये,भोजन पहुचाएं,
उनके जीवन में खुशहाली लाएं।।
फिर आएगा जीवन में भोर,
आओ! इन पर करें हम ग़ौर ।।


-  रेणु शर्मा  
जयपुर ( राजस्थान )


 


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