🔵बुद्ध पूर्णिमा पर एक रचना..
सुनो बुद्ध! तुम कह कर जाते,
मैं सहर्ष ही करती स्वागत।
मुझ पर घर का बोझ डालकर,
चले जगत का भार उठाने।
मेरी पीड़ा सुन न सके तुम,
जा बैठे उपदेश सुनाने।
यशोधरा मैं,भार धरा का,
तुम गौतम से हुए तथागत।1।
वैभव से निर्लिप्त रहे तो
महलों में भी तप सम्भव है।
मन में हो वैराग्य भावना
तो गृहस्थ में जप सम्भव है।
यदि मुझ पर विश्वास जताते,
जोगन बन होती शरणागत।2।
सुनो तथागत! पता लगा है,
नाम तुम्हारा बुद्ध हो गया।
चिंतन से प्रक्षालन करके,
अन्तर्मन भी शुद्ध हो गया।
मुझको भी भिक्षुणी बनाते,
मैं क्यों बैठी रही अनागत।3।
🔵सन्दीप मिश्र सरस
बिसवाँ सीतापुर
कर्मवीर योद्धा
संसार के हर कोने में
छाई विशद महामारी है
कोविड-19 के घातक वार से
लड़ती ये दुनिया सारी है
औषधि न कोई भी काम की
चिंता बड़ी ही भारी है
इससे अगर बचना हमें
रहना समग्र कर तैयारी है
ऐसे विकट हालात में
जब हाथ छूटे हाथ से
दुनिया बचाने चल पड़े
कर्मवीर योद्धा वार से
निज स्वार्थ सुख घर-बार को
पीछे इन्होंने छोड़कर
नित देश सेवा, धर्म में
लगाई है जान समेटकर
मानव जाति के कल्याण में
निज कर्तव्य मान इस काल में
मिलकर सभी हैं जुट रहे
कोई फँसे न कोरोना के जाल में
डॉक्टर, पुलिस, शिक्षक डटे
सफाईकर्मी और नर्सें चलीं
छेड़ा प्रशासन ने अभियान
जागरूक करते वो गली-गली
आओ मिल इनको प्रणाम करें
कर्मवीर योद्धाओं का सम्मान करें
मानवता की ये मिसाल है
कर्तव्य की मजबूत ढाल है
खाओ शपथ मिलकर सभी
नियम न तोड़ेंगे कभी
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा, राजस्थान
दिनांकः ०७.०५.२०२०
दिवसः गुरुवार
विषय -- आनंद के पल
विधाः कविता
शीर्षकः 🤔 काश,ये आनंद के पल❤️
अनवरत अविचल यायावर जीवन्त पथ ,
संकल्प रथ सारथी ख़ोज की रज्जू धरे ,
सुख - दुःख ,खुशी - गम ज़ख्म ए सितम,
अबाध द्रुतगति निडर अनज़ान संघर्षरत,
दुर्गम कँटीले ऊबर खाबर भू शिखर निर्झर,
बढ़ चले दौड़ाए अविचल अश्वमेध घोटक,
ध्येय बस केवल दुर्लभ अनमोल निच्छल,
शान्ति सुख स्मित मधुर ये आनंद के पल।
भागने को तत्पर अबाध चंचल अधीर मन,
उत्तुंग अभिलाष चाहत लिए अरमान वन,
इधर उधर भुजंग सम भटकता हर झण,
पठन - पाठन ,गाँव - शहर ,नद ,गिरि - निर्झर,
तरणतारण घर परिवार चर्च मन्दिरें मस्ज़िद,
अपनाए तरीके रास्ते अनगिनत जिंदगी के ,
अफ़सोस,क्लान्त श्रान्त अन्वेषक पा न सका,
अनोखे बेहद खूबसूरत कुदरती ज़न्नत ए नूर,
नायाब ए मुहब्बत दीदार ये आनन्द के पल।
जीवन भर सोचा,सब कुछ किया बस ख़ोज में,
बन नत विनत अविरत परहित तजा निज चाह को,
दी सुखद खुशियाँ भाई ,बहन,सगे अपने मीत को,
लुटायी मुस्कान अपनों के मुखर सूखे अधर,
पर न मिल सके सुकून के स्वर्ग सम अनुपम विमल,
तन्मय यतन माँ बाप की सेवन किया तन धन नमन,
किया आतिथेय हृदय पावन सतत गुरु अतिथिगण ,
पर कर न सका खुश किसी को लम्बी इस जिंदगी,
पा न सका आशीष हाथ स्नेहिल शर सुखद क्षण,
पर,हारा नहीं, धीर साहसी बन बढ़ चला रणबाँकुरा,
ख़ोजने शीतल सहज निज मनहर ये आनंद के पल।
सोचा कहीं खोट होगी स्वयं जिंदगी के सिक्कों में ,
तरासूँ जौहिरी बन फिर ख़ुद नेक दिली इन्सानियत,
मिली वज़ह आहत मन जख्मों सितम स्वयं गम की,
चाहत थी किसी कोने में छिपी लोग मुझे अच्छा कहे,
विनयी सतत दाता बड़ा कीर्ति गाथा जयगान करे,
मैं प्रचेता बन विजेता त्यागी मान दलदल में था फँसा,
भूला स्वयं कर्तव्य को परहित रत मनुज अनुरक्ति को,
अब शान्त मन मिट क्लान्त सब सुकूं मन की गज़ब ,
आज तन मन विमल प्रमुदित मिले शुभ आनंद के पल।
कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली
गीत---
कुछ मन को इतना किया किसी ने मतवाला।
पी गये सैकड़ों बार हलाहल का प्याला ।।
हर डगर मोड़ क्या पग-पग पर था अंधियारा
था कहीं क्षितिज से दूर भाग्य का हरकारा
हमने संघर्षों में कर्तव्यों को पाला ।।
पी गये सैकड़ों-----
अब आदि अन्त का भी हमको कुछ ज्ञान नहीं
इस जीवन पथ में चलना भी आसान नहीं
जब रक्त जला तो दिया दीप ने उजियाला ।।
पी गये सैकड़ों------
वे क्या रूठे लगता है जग ही रूठ गया
जो साहस था वो कहीं अचानक छूट गया
हर नगर अपरचित लगा हमें देखाभाला ।।
पी गये सैकडों-----
मन-पीड़ा ने रस घोल दिया उर-गागर में
जिसको पी कर जग डूब गया सुख-सागर में
समझा जग ने इस काव्य-कलश को मधुशाला ।।
पी गये सैकड़ों-----
जब-जब अंतस में जीवन का जलजात खिला
जन-जन को *साग़र* मरुथल में मधुमास मिला
इस भाँति गीत की पाँखुरियों में मधु डाला ।।
पी गये सैकड़ों----
कुछ मन को इतना------
🖋विनय साग़र जायसवाल
हलाहल--ज़हर ,विष
क्षितज--ज़हाँ ज़मीं आसमाँ के मिलने का ग़ुमा हो
हरकारा --डाकिया
अंतस -ह्दय ,उर,दिल
जलजात -कमल का फूल
मधु-शहद,अमृत
आसमां में भरे सितारों में।
खोज लेना मुझे हज़ारों में।
****
भूल जाना नहीं हमें. तुम भी।
याद रखना सदा दुआओं में।
***
जब मिलूं मैं नहीं कहीं तुमको।
पूछ लेना पता हवाओं में।
***
रूह रब की रही अमानत है।
चैन उसकी मिले पनाहों में।
***
इक महक की तरह महकना तुम।
फैल जाना उड़ी हवाओं में।
***
घर के तेरे मना रहे. मातम।
आह जैसे भरी. कराहों में।
***
हर कदम काल का पड़ा डेरा।
जिस्म बचता नहीं लबादों में।
***
सुनीता असीम
७/५/२०२०
******
शब्द ब्रह्म है
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शब्द से ही पीड़ा
शब्द से ही गम
शब्द से ही खुशी
शब्द से ही मरहम
शब्द से प्रेम
शब्द से दुश्मन
शब्द से दोस्ती
शब्द से ही प्यार
शब्द से ही समृद्धि
शब्द से ही दीनता
शब्द से निकटता
शब्द से ही दूरियाँ
शब्द से ही अर्पण
शब्द से ही समर्पण
शब्द से ही अमृत
शब्द ही विष
शब्द से ही नजदीकी
शब्द से ही दूरियाँ
शब्द से ही शीतलता
शब्द से ही उष्णता
शब्द ही बह्म है
शब्द ही कर्म है
शब्द ही जीवन है
शब्द ही मृत्यु है
*****************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
*********************
बड़े है कवि.................
करके असत्य की आलोचना
सत्य प्रदर्शित कर सके
परीक्षा की है उचित घड़ी जब
अभिव्यक्ति कवि दे सके
मान सम्मान की चाह त्यागकर
कटु हलाहल वह पी जाये
पथप्रदर्शक बनकर जगत का
नरमूल्यों के हित जी जाये
कर सके जो निन्दा कुपथ की
बन मानवता का संरक्षक
काटअमानवीय श्रृंखला नर की
बनने न दे समाज भक्षक
कलम निश्चय बड़ी तलवार से
शब्द गहरे होते वाणों से
आदर्श और सिद्धांत मनुज के
अति प्यारे होते प्राणों से
कलमवीरों का धन स्वाभिमान
कवित्त बड़ा है जागीरों से
सूर्य रश्मियों की तो सीमा होती
कवि सोच बडी प्राचीरों से
कर्तव्य मार्ग पर बढ़ जा आगे
हे संस्कारों के सृजनहार
सुख वैभव और समृद्धि से भी
बड़े है कवि काव्य विचार।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
*प्यार की डगर*
विधा : गीत
छोड़ दो तुम मोहब्बत करना अब।
ये तुम्हारे बस की बात नहीं।
इसमें त्याग तपस्या ज्यादा है।
तुम इसे शायद कर सकते नही।।
छोड़ दो तुम मोहब्बत करना अब।
मन को मन से मिलना,
तुम्हें आता नहीं।
दिल को दिल से
क्या तुम मिलेगे।
है आगर तुम को
मोहब्बत सचमुच में है।
तो विश्वास करना तुम
सीख लो जरा।।
छोड़ दो तुम मोहब्बत करना अब।
ये तुम्हारे बस की बात नहीं।
है मोहब्बत की डगर
बहुत ही कठिन।
जिस में कांटे ही
कांटे चुभते है।
जो भी इस राह को
अपने लिए चुने।
वो ही मोहब्बत अपनी
पा सकता है।।
छोड़ दो तुम मोहब्बत करना अब।
ये तुम्हारे बस की बात नही।
अपनी मोहब्बत को आबाद करना चाहते हो।
तो स्नेह प्यार को
दिलो में जिंदा रखो।
दोनों के दिल अगर
एक हो गए है।
ऐसी मोहब्बत ही दुनियाँ में अमर हो जाती है।।
छोड़ दो तुम मोहब्बत करना अब।
ये तुम्हारे बस की बात नही।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
07/05/2020
*कॅरोना तंत्र।बचो और बचाओ*
*ही है मंत्र।*
लॉक डाउन बढ़ा दिया है
पुनः अब सरकार ने।
बेमतलब बेवजह कतई
न निकलें आप बाजार में।।
घर पर ही रह कर आप
दे सकते कॅरोना को मात।
बस अभी हंसी खुशी वक्त
आप बिताइये परिवार में।।
स्वास्थ्य ही धन है कि यह
बात दुबारा जान लीजिए।
अभी घर रहने में भलाई
बस यही ज्ञान दीजिए।।
कॅरोना के साथ चलना
रहना हमें सीखना होगा।
अनुशासन अनुपालना
का बस अहसान कीजिए।।
लॉक डाउन की रियायत
का कोई दुरुपयोग न हो।
बेवजह न निकलो बाहर
कि कॅरोना से योग न हो।।
मत जाओ कि जहाँ
जमा हों बहुत से लोग।
मत एकत्र करें सामान
ज्यादा कि यूँ ही रोग न हो।।
फांसला बना कर रहना
आज हमारा यही कर्म है।
कॅरोना काल में यही तो
अब सर्वोपरि धर्म है।।
दूरी मजबूरी नहीं ये तो है
आज समय की जरूरत।
वही बचेगा जीवित अब कि
समझ लिया जिसने मर्म है।।
*रचयिता।एस के कपूर " श्री हंस*"
*बरेली*।
मो 9897071046
8218685464
बुद्ध पूर्णिमा की शुभकामनाएं
7.5.2020
बुद्ध कर त्याग क्या पाया तुमने
जो यशोधरा ने न पाया कर्तव्य निभाते हुए
कर्मनिष्ठ रहते सन्यासी होना बहुत कठिन है
त्यागना तो सरलतम पथ है जीवन का।
जिस सच को तुमने आत्मसात किया भ्रमण में
यशोधरा ने उसे पाया पुत्र पालन राज्य संभालने में।
संसार को देखा जिस दिव्य दृष्टि से तुमने
यशोधरा ने निर्बाध निभाया रह महलों में ।
सिद्धार्थ बुद्ध बनने की तुम्हारी यात्रा बहुत कठिन थी
जो सहजता से आत्मसात हो गई यशोधरा में ।
न कोई *भय* न ईर्षा न दुःख न सुख न राग न द्वेष जिन्हें जानने का यत्न किये तुमने
ये पथ यशोधरा को मिल गया सहजता में ।
तुमने पाया जो ज्ञान एक नारी की खीर में बोद्धि वृक्ष के नीचे
उसे यशोधरा ने पाया राहुल सँग *बुद्धम् शरणम् गच्छामि में*
स्वरचित
निशा"अतुल्य
🙏🏻😊
बंद थे किवाड़े खोल दिये गये
जहर हालात में घोल दिये गये
बंद थे किवाड़े खोल दिये गये
हुकमरां की फरमान ऐसी थी
शराब नस नस में घोल दिये गये
बंद थे किवाड़े खोल दिये गये
मिट रही जान एक एक कर
जान सस्ती थी मोल दिये गये
बंद थे किवाड़े खोल दिये गये
सवालात बहुत उठे बेनज़ीर से
जवाब सिर्फ गोल गोल दिये गये
बंद थे किवाड़े खोल दिये गये
गरीबी पूछनी है हम से पूछो
रोटी के खातिर झोल दिये गये
बंद थे किवाड़े खोल दिये गये
Priya Singh
नमन मंच
विधा-छंद मुक्त
*रिक्त स्थान*
मेरे आंगन की तुलसी,
हरी भरी लहलहाती,
वर्षा, ग्रीष्म,शीत सहती,
पर कभी कुछ ना कहती।
वो नीम जो द्वार पर खड़ा है,
क ई पीढ़ियों का हमसफ़र रहा है,
ठंडी छांव में टहनियों पर झूला करते थे,
बूढ़ा हो चला वो अब,
सिर्फ अब पत्ते झड़ा करते हैं।
पीपल तुम्हें तो हम पूजते है,
तुम अब सिर्फ़ मंदिरों में ही दिखते हो,
बाग बगीचे तुम बिन सुने हैं,
याद है मुझे हम "दादा"कहा करते थे तुम्हें,
अब ना घर में "दादा" दिखते,ना ही चौबारों और त्रिवेणी में।
कितने स्वार्थी हो गए आप हम,
जिनके प्रेमाश्रय में पले बढ़े,
उनके लिए घर आंगन में नहीं है जगह,
क्योंकि कंटिले पौधों ने रिक्त स्थान भर दिया है।
ममता कानुनगो
इंदौर
" कुरुक्षेत्र का समर"
कुरुक्षेत्र का वह भीषण समर
अधर्म पर धर्म की जय की डगर
पांडवों ने कृष्ण संग है किया
शंखनाद धर्म का आरम्भ किया
अधर्म के गरल का पान किया
धरती को पाप से मुक्त किया
धरती पे शांति बनी रहे
हानि न जन-धन की करें
धर्म, धैर्य, सहनशीलता
का सदैव पालन किया
रोका बहुत इस युद्ध को
भेजा सन्धि हेतु दूत प्रबुद्ध को
लेकिन समय गति न रुकी
प्रारब्ध की घटना घटी
उस अहंकारी का था अहंकार बड़ा
नेत्रों पर उसके अज्ञान का पर्दा पड़ा
सत्ता की चाह में वह दुर्मति
अन्याय सदा करता रहा
नीति का जब प्रतिकार हो
अन्याय की जय जयकार हो
दुर्जन का हो जयघोष जब
अट्टहास कर अनीति का नाद हो
जब पाप का भरता घड़ा
होता काल उसके सिर पर खड़ा
कुरुक्षेत्र की इस भूमि में
केवल धर्म ही सुरक्षित खड़ा
जगदीश की आज्ञा से तब
कौन्तेय ने गांडीव धारण कर
धर्म रूपी शर सन्धान किया
अधर्म का धरती से नाश किया
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
*"छोड़ो कल की बात"*
(सरसी छंद गीत)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
विधान - १६ + ११ = २७ मात्रा प्रतिपद, पदांत Sl, युगल पद तुकांतता।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
*खुशियाँ लाओ दूर करो तम, पाओ पुण्य-प्रभात।
उज्ज्वल-उत्तम कर लो दिन को, छोड़ो कल की बात।।
*लाभ नहीं इनको अपनाकर, ढोंग-रूढ़ियाँ-रीति।
लक्ष्य भेदने मिल-जुल कर सब, अपनाओ नव-नीति।।
छायी थी जो काली छाया, भूलो वे दिन-रात।
उज्ज्वल-उत्तम कर लो दिन को, छोड़ो कल की बात।।
*आज लिखेंगे आओ मिलकर, अमल-नवल इतिहास।
पल-पल पावन पथ पर पसरे, परिमल परम प्रभास।।
आस जगाओ, हाथ बँटाओ, झूमें अब दिन-रात।
उज्ज्वल-उत्तम कर लो दिन को, छोड़ो कल की बात।।
*नयी कहानी नित गढ़ लेंगे, होंगे जब सब साथ।
पूरे होंगे सपने सारे, उन्नत होगा माथ।।
नूतन जागृति लाओ आओ, सँवरे सुख-सौगात।
उज्ज्वल-उत्तम कर लो दिन को, छोड़ो कल की बात।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
कृष्ण भक्ति कों पान कर,
भर जीवन में मोद।
क्षमा करें अपराध सब,
लेंगे अपनी गोद।।
जन्म लाभ निश्चय मिले,
करो कृष्ण से प्रेम।
राधे के आशीष ते,
निश्चित जीवन क्षेम।।
मनमोहन सा जगत में,
ना कोई दातार।
मुक्ति चाहते कष्ट से,
करो श्याम से प्यार।।
श्री कृष्णाय नमो नमः
सत्यप्रकाश पाण्डेय
😌 कोरोना और हम 😌
जीना होगा अब हमें,
'कोरोना' के साथ।
कोशिश हुई बहुत मगर,
नहीं छोड़ता हाथ।
नहीं छोड़ता हाथ,
साथ ये रहना चाहे।
मज़बूरी में यार,
चलो अब संग निबाहें।
अब तो हमको घूॅ॑ट,
ज़हर ही होगा पीना।
घर में रहकर बंद,
कहाॅ॑ है संभव जीना।
। राजेंद्र रायपुरी।।
*हमारी गौ माता*
***************
हिन्दुओं काआत्म गौरव गाय ही है,
धर्म ग्रंथों में दिया है इसको सम्मान है,
इसी के दूध से श्रृंगी ऋषि ने,
खीर बनाई थी और हुआ राम जन्म।
गौ हमारी पूज्य माता सदा से,
मानव का दिव्य नाता है सदा से,
इसके दूध से औषधि बनती है
जो रोगों से मुक्ति दिलाती है।
मां तो हमें बचपन में ही दूध देती है,
प्यार से हमारा माथा चूम लेती है,
गाय तो सारी उम्र अमरित देती है,
इसी लिए हर किसी की चहेती है।
गौ माता तो ममता का भंडार है,
जिस घर में गौ रहती है,
पूर्वज भी प्रसन्न हो जाते है,
इसी लिए गाय देवी देवताओं से भी बड़ी है।।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड
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