काव्य रँगोली व्हाट्सएप्प समूह पर आज की रचनाये 8 मई 2020

*सरस्वती वंदना*
***************
मां सरस्वती
शब्द के कुछ सुमन
समर्पित कर रहा हूं
स्वीकार मेरी वंदना करो,


बस चरण में
अब शरण दीजिए
मां सरस्वती हमें
कण्ठ में तुम्हारा नाम हो,


ध्यान में डूबकर
गीत तेरे मैं गाता रहूं
हंस वाहिनी शुभे
शत् शत् नमन करता रहूं,


मां सरस्वती
सुमति का वरदान दो
मां भजन में
अब लगन  चाहिए।।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


कविता:-


     *"सपनों का घर"*


"जहाँ मिले अपनों में अपनत्व,
हो सब में भाई चारा-
वही होगा सपनों का घर अपना।
घर -घर बने छाये न उसमें,
कभी अंधियारा-
जीवन सपना सच हो अपना।
सपनो ही सपनो में खोजे,
सुख अपना साथी-
सच हो सपनों का घर अपना।
अपने अपनों में छाये न कटुता कभी,
मिलकर संजोए सपने-
सपनो का घर हो अपना।
अपनत्व की धरती पर साथी,
बढ़ता रहे अपनत्व-
सार्थक हो जीवन अपना।
देखे सपने सुनहरे साथी,
पूरे हो सपने अपने-
जिससे महके घर आँगन अपना।
जहाँ मिले अपनों में अपनत्व,
हो सब में भाई चारा-
वही होगा सपनों का घर अपना।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः         सुनील कुमार गुप्ता


 


नमन मंच🙏
विषय-शिव
विधा-सयाली


शिव,
तुम शाश्व,
निराकार, ओंकार, कृपालु,
अनादि, अनंत,
महाकालेश्वर।


महेश्वर,
स्वीकारो नमन,
श्वासो के स्पंदन,
करुं हृदयांगम,
सर्वेश्वर।


गंगाधराय,
  भोले विश्वेश्वराय,
अर्पण निर्मल जल,
अर्पित बिल्बपत्र,
चरणार्पण।


शिवम्,
नादब्रम्ह, अखिलेश्वर,
सत्- चित् -आनन्द,  तुम, ही ,
नागेश्वर, सर्वहितकारी,
अंतर्यामी।
ममता कानुनगो इंदौर


  
😌   ये साल है अच्छा नहीं    😌


मधुमालती छंद पर एक रचना -


आघात  पर आघात ये। 
  अच्छी नहीं  है  बात ये।
    विपदा  नई  ये  आ  गई।
       दस बीस को है खा गई।


ये  गैस  जो  है रिस गई। 
  विपदा  बनी  है  ये  नई।
    हे  राम  ये  क्या हो रहा।
      भारत   हमारा   रो  रहा।


ये साल  भारी  कुछ लगे। 
  मारे   गए   कितने   सगे।
    बीता   नहीं  ये  साल   है।
      पर    आदमी   बेहाल   है।


आगे  न  जाने  क्या  करे।  
  सौ  बीस तो अब तक मरे।
    लाखों  न  मर  जाएॅ॑ कहीं।
      ये   साल  अच्छा   है  नहीं।


भयभीत  इसने  कर  दिया।
  डर  दिल सभी के भर दिया। 
    इस साल  का  अब अंत हो।
      ऐसी    कृपा    भगवंत   हो।


  ।। राजेंद्र रायपुरी।।



मेरे हृदय प्रीति भरो,
राधे और सुजान।
पाप मुक्त जीवन बने,
भरो हृदय में ज्ञान।।


मुझ सा कोई न पापी,
तुमसा कोय न बंधु।
अघ नाशक मेरे बनो,
हे करुणा के सिंधु।।


प्यार प्रीति अनुराग सब,
हरें सभी संताप।
युगल चरण सों प्रीति हो,
मिट जाएं सब पाप।।


ईश नाम आधार एक,
करो उसी का जाप।
मिट जाएं बाधा सभी,
जीवन हो निष्पाप।।


 


युगलरूपाय नमो नमः


सत्यप्रकाश पाण्डेय



*विषय।।।।।।।शत्रु।।।।।।।।।।।*
*शीर्षक। हम ही अपने मित्र हम*
*ही हैं अपने शत्रु भी।*
*विधा।।     मुक्तक  माला ।।।।।*


हम ही  हैं     अपने   शत्रु   और
हम   ही     मित्र   भी।
कभी लिये   मधुर   वाणी   और
अहंकार का चित्र भी।।
हमारे  भीतर    ही    स्तिथ  गुण
मानव  और  दानंव के।
यह   मनुष्य     प्राणी    जीव  है
बहुत ही   विचित्र   भी।।


जिस डाल    पर    बैठता   उसी
को  काट  डालता   है।
मधुर सम्बन्धो को   भी    स्वार्थ
वश  बांट  डालता  है।।
जीवन भर   की     मित्रता   को
पल में करता ध्वस्त ये।
अपनेपन की  चाशनी  को  बन
शत्रु  चाट   डालता  है।।


हमारा घृणा  भाव    ही   तो  है
परम     शत्रु    हमारा।
मन को करता   कलुषित  मोड़
देता ये   मितरु   धारा।।
क्रोध वह  शत्रु   है   जो  करता
हमारा   ही    सर्वनाश।
कर बुद्धि  का  नाश  हटा   देता
अपना ही मित्र सहारा।।


बने हमयूँ भूल सेभी हमसे कोई
घायल न  होना  चाहिये।
हमारी नज़र में कोई  छोटा नीचे
पायल न होना चाहिये।।
वसुधैव कुटुम्बकम का  सिद्धांत
हो मन   मस्तिष्क    में।
हमारेआचरण का मित्र नहीं शत्रु
भी कायल होना चाहिये।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "
*बरेली।*
मोब           9897071046
                  8218685464



*********
  *सुबह🙏🏼सबेरे*
    """"""""""""""""""
        *आस*
 (मनहरण घनाक्षरी)
🔅🔅🔅🔅🔅
चला था  मै वहां  पर,
आस लिए  जहां  पर,
नही मिला वह स्थान,
       तुम न घबराओं।
🔅
कर     और   मेहनत,
कुछ तो  हो कयामत,
रहो    तुम   सलामत,
      खुद न सहराओं।
🔅
मन को  कभी न मार,
हिम्मत कभी  न  हार,
दुश्मन  है  जी  हजार,
  हां वीरता दिखाओं।
🔅
रचो    तुम   इतिहास,
नही  होगा   परिहास,
सपने   होंगे   साकार,
 गीत खुशी के गाओं।



*कुमार🙏🏼कारनिक*
©®१८११/१८
               ********


*"आराधना"* (आनुप्रासिक दोहे)
****************************
¶अडिग अनघ *आराधना*, अमि अंतः आधार।
आत्म-अमल-अवधारणा, आतप-अंत-अपार।।1।।


¶दर्प दहो दानव दलन, दुर्दिन-द्वंद्व दुखांत।
दान दया देकर दहो, दुःख-दहक दुर्दांत।।2।।


¶उपजत उन्नत उर्ध्वता, उत्पल उर-उर्वार।
उमगत उच्च उपासना, उत्तमतम उच्चार।।3।।


¶कलुष-कहर को काटकर, करना कृपा कृपाल।
कंटक कारा कष्ट का, काटो काल-कराल।।4।।


¶भरना भावन भावना, भर भल भूयः भान।
भाल-भाल भू भारती, भाग्य-भरे भगवान।।5।।


¶सज्जित सरसित साधना, सरगम साँस सुधार।
सुरभित सुखद समीर से, सुरसरि सुख-सुरधार।।6।।


¶सत्य साधना सार से, स्वप्न सजे साकार।
सप्त स्वरों से सुर सदा, सरस सकल संसार।।7।।


¶प्रीत पले परिकल्पना, पुर-परिजन-परिवार।
परिमल-पावन-प्रार्थना, पुलकित प्रेम-प्रसार।।8।।


¶मन-मंदिर में मांगलिक, महत मनन मति मान।
मानक मज्जन मर्म मन, मानस मान महान।।9।।


¶नित नूतन निज नेह नत, नाद निनादित नाम।
नित्य निहारे नैन नम, "नायक" नर निष्काम।।10।।
****************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*****************



उम्मीद
8.5.2020
धनुष पिरामिड 


ये 
झूठी
उम्मीद
जो जगाती
आशा किरण
उठ जा मानव
ना होना निराश तू
उम्मीद का दीया ही
पार कराएगा
ये व्यवधान
जीवन के
मानव
मान 
ले
है 
थोड़ा
कठिन
ये समय 
पर उम्मीद
रखती जीवित
देती हौंसला सदा
कराती व्यवधान                                     
पार जीवन के
दूर होतें हैं
प्रतिकूल 
प्रभाव 
इसी
से


स्वरचित
निशा"अतुल्य"



कोई आये मेरा वरण करने के लिए
मैं उद्धत हूं हमसफर बनने के लिए


ऐसा निकले चांद चांदनी में नहा जाऊँ
ले आगोश में मुझे बाहों में समा जाऊँ


यौवन सुरभि उसकी महकाये मुझको
मुस्कुराता आनन उसका रिझाये मुझको


अनुप्राणित करे उसके प्रणय की ज्योती
बने आ करके कोई हृदय हार का मोती


सत्य हृदय की उत्कंठा वो पास रहे मेरे
उसी की रश्मियों से हों जीवन के सवेरे।


सत्यप्रकाश पाण्डेय



रिमझिम सी बारिश और कच्चा घर
गांव की वो यादें कभी मिटती नहीं है


वह सौंधी सी महक खुशबू मिट्टी की
पक्के आंगन में  कभी उड़ती नहीं है


कच्चे घरों की ही खुशनसीबी है यह
गर्मी कभी ज्यादा इनमें लगती नहीं है


ये आंगन नहीं रहे अब बड़े शहरों में
इमारतों में तो वो बात दिखती नहीं है


वो आले दीवाले टांड और रोशनदान
फ्लैटों में यह सौगात  मिलती नहीं है
     
        सुबोध कुमार



*कैसे पढ़े मोहब्बत को*
विधा : कविता


आंखे तो प्यार में,
दिलकी जुवा होती है।
सच्ची चाहत भी,
तो बेजुवा होती है।
प्यार में दर्द भी मिले,
तो क्या घबराना।
सुना है दर्द से चाहत,
और जबा होती है।।


प्यार की प्यास को,
दिल वाले जानते है।
जो आंखों से कम,
दिलसे पीना जानते है।
मोहब्बत होती है क्या,
जो हर कोई नही जानते।
इसलिए आंखों के साथ,
दिलको भी पढ़ना होता है।।


मोहब्बत के इतिहास को पढ़ो,
और उसे थोड़ा समझो।
शायद मोहब्बत करने का,
तुम्हारा इरादा बदल जाये।
और छोड़कर इसको तुम,
अपना रास्ता ही बदल दो।
या मोहब्बत के सागर में,
हमेशा के लिए डूब जाओगे।
और अपनी मोहब्बत को,
अमर कर जाओगे।
अमर कर जाओगे।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
08/05/2020


561
कर संघर्ष परिस्थितियों से ,
ढाल अपने अनुसार उन्हें ।


चाहता है विजय जिन पर,
ले कर आ रण संग्राम उन्हें ।


  गढ़ सुगढ़ रक्षा कवच ,
  हर प्रहार से पहले ।


  कर ले सुरक्षित स्वयं को ,
  आते हर रोग से पहले ।


   है संकल्प दृण जीत का ।
 आधार सुरक्षा नींव का ।


 खींच रेखाएं चहुँ और ज्ञान से ।
 दूरकर तिमिर अज्ञान ज्ञान से ।


 रोक ले संकट पहले प्रयास स
 रख सुरक्षित मुश्किल इलाज़ से ।


.... विवेक दुबे"निश्चल"@.....



ग्रीष्म


ग्रीष्म ऋतु की है बहार
बेमन झुम रहा धरा और आसमान
है सुखा सुखा चारों तरफ
कड़कड़ाती हुई धूप
निरिह सब बने हुए
तपती हुई धरा ,गर्म हवायें 
हम सभी जीव
और पेड़ पौधे


सूरज भी है अपने आप मे
कमी नही कोई उसके प्यार मे
जकड़ लेता है वो हम सभी को
अपने आग़ोश मे
उसकी गरम गरम सांसे
फिरने लगती है बदन पर
इतना प्यार भई किस काम के
थोड़ा कम करो


शाम होते ही जाती हूँ छत पर
सारे पौधे सिकुड़े सिमटे
निरिह से खड़े
देखने लगते है मुझको
इशारा करते मुझको
ठंडे  प्यार से सींचने को
और फिर शुरु हो जाती हूँ मै
ठंढा ठंढा प्यार देने को


माना कि मैंने
प्यार मे होती है गर्माहट
पर इस क़दर 
कि सुख के हो जाऊँ काँटा
तुम देते सबको जीवन
पर इतनी ज़्यादा गर्मी
तापमान क्यूँ चढ़ाये ऊपर 
हो गई है सबको बेचैनी 


और एक वो है मेरा
जो था पहले प्यार का वर्षा ऋतु
करता था प्यार मुझको
भींग भींग कर प्यार मे उसके
हो जाती थी सराबोर
पर वो अब हो गया ग्रीष्म ऋतु
सुखा दिया है मुझको
प्यार मे अपने ।
               नूतन सिन्हा
             08.05.2020



दो पुत्र भये श्री राम के ,


लव कुश नाम अपार ,


थी इनमें भी क्या एकता ,


बाल्मीकि के यहां पर ,


थी खुशियां बहुत अपार ,



आज का विषय पुत्र 


कैलाश , दुबे ,



ये जिन्दगी
***********
क्या बताऊँ  कैसी है ये जिन्दगी
क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी
कभी तो फूल सी लगती है
ये जिन्दगी।


कभी  तो काँटों में गुलाब सी
मुस्कुराती है ये जिन्दगी
कभी दूर डूबते सूरज सी
लगती है यह जिन्दगी।


कभी सूरज की पहली किरण
सी लगती है यह जिन्दगी
कभी कल्पनाओं के सागर में
गोते लगाती है यह जिन्दगी।


कभी दूसरे का दर्द को देख कर
रो पड़ती है ये जिन्दगी
कभी मौत के भय से
बदहवास सी दौड़ती है ‌ये जिन्दगी।


कभी मंजिल के बहुत करीब
लगती है ये जिन्दगी
कभी एक -एक पर को
पीछे धकेलती है ये जिन्दगी।


क्या कहूँ कैसी है ये जिन्दगी
जैसे भी है
बहुत सुहावनी है ये जिन्दगी
ईश्वर का कृपा प्रसाद है ये जिन्दगी।।
*******************************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड 246171


आत्मज्ञान
जीवन-मरण का चक्र
चलता रहता सर्वत्र
पंचमहाभूतों में
 मिलता तन यत्र
पर आत्मा तो
चली जाती है अन्यत्र
आत्मा में ही
परमात्मा है
जगत है ये मिथ्या
जीवन भ्रम मात्र है
ढूँढे कहाँ प्रभु को मनुज
भ्रमवश फिरे तू चतुर्दिश
हृदय से मिटा
विचार कुत्सित
मंगलकारी हो
कर कार्य वन्दित
मन से कषायों को मिटा
सन्ताप कर्मों से हटा
अध्यात्म, दर्शन, ज्ञान को
त्यागो वैचारिक कलुषिता
के परिधान को
तू स्वार्थ की गठरी हटा
परमार्थ कार्य में
स्वयं को लगा
धर्म मार्ग पर तू
प्रयाण कर
सत्य की आभा से
संसार का कल्याण कर
जब मानवता पोषित होगी
मोह माया से आत्मा विलग होगी
तब सत्यम, शिवम, सुंदरम
की जग में स्थापना होगी।
डॉ. निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


*"महत्तम माता-ममता"*
(कुण्डलिया छंद)
****************************
¶ममता-मर्म महान-महि, मातु महत मणि मान।
मुकुलित-मुखरित मातु-मन, महके मनः मकान।।
महके मनः मकान, मोम-मन मानो-माता।
मान मातु-मंतव्य, मोद मानस-मुस्काता।।
मंगल (नायक) मुद मन-मोर, मुदित-मति मान-मचलता।
मोहक-मधु-मकरंद, महत्तम माता-ममता।।
****************************
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*******************


🙏सरस्वती काव्यकृतां विधीयताम्🙏


दिनांकः ०८.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
विषयः  चित्राधारित
विधाः स्वच्छन्द
छन्दः मात्रिक (दोहा)
शीर्षकः अनाघ्रात मधु यामिनी


मुस्काती    सुन्दर   अधर, शर्मीली    सी     नैन।
दंत पंक्ति   तारक    समा , मुग्धा    हरती    चैन।।१।।


मादकता  हर    भाव  में , कर्णफूल     अभिराम।
सजी   हाथ    में चूड़ियाँ , खनखाती    अविराम।।२।।


मिलन मनसि ले बालमा,जाती मंडप जाती प्रीत । 
रखी    चूनरी    माथ   पर , मुस्काती      नवनीत।।३।।


तन्वी     श्यामा     चन्द्रिका , करे   वन्दना   ईश। 
कोमल किसलय हाथ में , आभूषण      रजनीश।।४।।


बनी अधीरा    नायिका , गन्धमाद    सम   गात्र। 
लचकाती गजगामिनी , हृदयंगम   प्रिय      पात्र।।५।।


अमर सृष्टि विधिलेख की , सामवेद    मृदु   गान।
अनाघ्रात   मधु    यामिनी , बिम्बाधर    रसखान।।६।।


मन रंजित साजन मिलन , स्वप्नसरित    नीलाभ। 
कर वन्दन   रति  रागिनी , कामदेव     अरुणाभ।।७।। 


बंद   नैन   घंटी   बजी , चाह      मनोरथ    इष्ट। 
चन्द्रमुखी रत प्रार्थना ,  मृगनयनी  अति   श्लिष्ट।।८।। 


मुख सरोज रति   लालिमा, केशबन्ध  अभिराम।
पलकें सम   काली घटा , मीन   नैन    सुखधाम।।९।।


लखि निकुंज कवि कामिनी ,दर्शन मन  आनन्द।  
खिले सुभग रमणी चमन , हृदय पुष्प   मकरन्द।।१०।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 
रचना : मौलिक (स्वरचित) 
नवदिल्ली


****************
    *तथागत-बुद्ध*
 (मनहरण घनाक्षरी)
 ^^^^^^^^^^^^^^^
जनम   वैशाख   पून्नि,
कपिलवस्तु   लुम्बिनी,
तथागत    बुद्ध    हुए,
    शांति बुद्ध मार्ग है।
🌼
राजपाठ  छोड़   चले,
ज्ञान खोज में निकले,
गया में  बोधित्व  हुए,
    मिले ज्ञान मार्ग है।
🌼
जग  सारे  में   दुख है,
दुख से ही  तो सुख है,
होता  निवारण   यहाँ,
      दया धर्म मार्ग है।
🌼
तृष्णाओं में फंसे सब,
छूटकारा  मिले   कब,
निजात पाने के लिए,
     ये अष्टांग मार्ग है।


कुमार कारनिक


कुछ कदम उठाए जाएं अब इस औऱ ।
दिखती नही रात की पास कोई भोर ।
है उजाला दूर तिमिर है पसरा हुआ ,
सुरक्षा और संघर्ष की थामना है डोर । 
...."निश्चल"



दिनांकः ०८.०५.२०२०
वारः शुक्रवार
विधाः गज़ल
शीर्षकः  सनम बेवफ़ा
 सनम बेवफ़ा तू  दामन  छोड़ दे ,
 दिए ज़ख़्म गमों  पे मुझे छोड़ दे, 
 ढाए सितम को जरा याद करना,
 रहना खुश सदा तुम मुझे छोड़ दे ।


मैं   थी  कयामत  कुदरती नूर  तेरा ,
बनायी  मैं  आशिक सभी  छोड़ के,
खुद बदली तुमने  फ़ितरत  वफाई,
 दिल दर्दे  सितम  पे  मुझे  छोड़  दे। 


ख्वाईश  बहुत  थीं  सपने  तराने ,
इश्की कशिश नैन भर के  लड़ाने, 
तन मन समर्पित तुझे दिल दे बैठी, 
छलिया  मेरे  हाल  मुझे   छोड़  दे।


सजायी गुलिस्तां दिल के महल में , 
कसमें    खाई     जन्मों    निभाने, 
बने   एक   दूजे  हमदम  सफ़र के, 
दगाबाज़  सनम तू वफा़  तोड़  के। 


भुलाना मुझे तुम अहशान कर दो,
ज़ख़म न कुरेदो अब भी बख़स दो,
उजाड़े चमन को महक फूल प्यारे,
 कोई आरजू अब  सनम  छोड़   दे। 


किया माफ़  तुझको  सारे   गुनाहें , 
रमो  महफ़िलें  फिर  जीवन तराने, 
मुहब्बत दिली न जताना किसी को,
चली ख़ुद की राहें  सजन छोड़  दे।। 
कविः डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली


हायकू


शीर्षक:-माँ


रक्षा मूरत
 वसुंधरा पर तो
माँ की मूरत 


सदैव साथ
बनी रहती छाया
दे शीश हाथ



रहती नम
फैलाकर आँचल
छाँटती गम


    बहार है माँ
खुशबू अनमोल
    बयार है माँ


कृति अनूप
जन्मदात्री हमारी
कार्य अद्भुत
           
            रीतु प्रज्ञा
       दरभंगा , बिहार


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