नाम- विनोद ओमप्रकाश गोयल
साहित्यिक नाम- अश्क़ बस्तरी
पता-- ग्राम पोस्ट- उरमाल, तहसील-मैनपुर, जिला- गरियाबंद, छत्तीसगढ़, ४९३८९१
सदस्य-रत्नांचल साहित्य परिषद् , अमलीपदर.
लेखन विधा- गीत,ग़ज़ल, गीतिका,छंदमुक्त कविता।
व्यवसाय- कपड़े का
भाषा ज्ञान- हिन्दी, अंग्रेजी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी, उड़िया।
(हरयाणवी व पंजाबी सीख रहा हूँ)
सामजिक गतिविधि- जब जहाँ अवसर मिले यथासंभव शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से तत्पर ।
सम्मान- अलग अलग राज्यों व मंचो से शताधिक ।
साझा संकलन- काव्य सागर, कोहिनूर,कैलाशी, कृष्णा आदि।
विशेष- काव्य रंगोली सहित अन्य पत्र पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन।
मोबाइल- 9303673883
व्हाटसप- 9777500184
गीतिका 1
हम तेरी याद में न ....सो पाते,
हम तेरे ख़्वाब में न ..खो पाते।
ख़ूब मुश्किल किया तुने जीना,
हँस पाते कभी न...... रो पाते।
बेहतर थी मेरी जवां ..सी शब,
अब न आग़ोश में भी हो पाते।
क्या बताएं तुझे फ़साना दिल,
चाशनी में नहीं ......डूबो पाते।
हमसफ़र है नहीं......मेरा कोई,
अब अकेले वज़न न..ढो पाते।
अश्क़ ठहरे हुए से....आँखों में,
अब ये पलकें नहीं भिगो पाते।
अश्क़ बस्तरी
गीतिका 2
हम नहीं होते यहाँ तो ये मुक़द्दर किसलिये,
ये दरो दीवार ये चौखट ये पत्थर किसलिये।
किसलिए ये आरज़ू औ दिल ख़रीदी किसलिये,
हम न बिकने आए थे ख़ुद फ़िर भला डर किसलिये।
मारकर तीरे नज़र तुम कब तलक रह पाओगी,
दिल न देना था न दो ये दिल के चक्कर किसलिये।
ज़िंदगी को ज़िंदगी ने ज़िंदगी से ही दिया,
ज़िंदगी को फ़िर भला है मौत से डर किसलिये।
अश्क़ आँखों में लिये फ़िरता रहा कुछ ख़्वाब भी,
मुफ़लिसी में ज़िंदगी भटके है दर दर किसलिये।
अश्क़ बस्तरी
गीतिका 3
तेरी हर याद को दिल से मिटाना....चाहता हूँ मैं,
ख़ुदी ख़ुद से ख़ुदी को भूल जाना...चाहता हूँ मैं,
गुज़र जाए न यूँ ही बेख़याली...... में उमर सारी,
कि अब तेरी वफ़ा को आज़माना...चाहता हूँ मैं।
नहीं हूँ मैं ख़ुदा जो वक़्त को फ़िर से बदल डालूँ,
ख़ुशी रूठी उसे ही फ़िर मनाना.... चाहता हूँ मैं।
कभी ग़र आ गयी बीते दिनों की याद मुझको तो
कसम से तेरे सारे ख़त जलाना......चाहता हूँ मैं।
सुना है तुझ से ज़्यादा ख़ूबसूरत.......शह्र तेरा है,
बुला लेना कभी उस ओर आना......चाहता हूँ मैं।
शज़र के पात पीले हो रहे पतझर ये......आया है,
बहारों को घटाओं से बुलाना..........चाहता हूँ मैं।
लिये फ़िरता हूँ आँखों में समन्दर अश्क़ का मैं भी,
दरो दीवार रोके है गिराना..............चाहता हूँ मैं।
अश्क़ बस्तरी
गीतिका 4
हमीं को शराबी कहा जा रहा है,
हमीं को फ़रेबी कहा जा रहा है।
किसी को पड़ी है कहाँ अब किसी की,
हमीं को ग़ुरेज़ी कहा जा रहा है।
गया ही नहीं मैं कभी भी गली से,
कि मुझको सहाबी कहा जा रहा है।
उठा हूँ कई बार मैं यार गिर के,
मुझी को नवाबी कहा जा रहा है।
नहीं है हया भी ज़रा सी नज़र में,
न जाने ग़ुलाबी कहा जा रहा है।
कभी भी मिरे घर न आया सनम वो,
मुझे ही रक़ीबी कहा जा रहा है।
मुझे अश्क़ पीने की आदत बुरी है,
तभी तो शराबी कहा जा रहा है।
अश्क़ बस्तरी
गीतिका 5
सदा तेरी गलियों से आता रहा हूँ,
नज़म भी वफ़ा ही के गाता रहा हूँ,
मग़र तेरी नज़रों ने तब भी जाना,
तेरी आशिक़ी को निभाता रहा हूँ।
कभी कभी जो याद में तेरी न आई नींद तो,
रातों में तकिये को अश्क़ों से अपने,
मेरी जां मै हरदम भिगाता रहा हूँ।
सदा तेरी गलियों....
सुनो सनम यूँ ख़ाब में आना मेरे तो छोड़ दो,
सपने जो देखे थे संग में तुम्हारे,
तब से में उन्हीं को सजाता रहा हूँ।
सदा तेरी गलियों......
तेरे लिये ये ज़िंदगी तेरे बिना ये ज़िंदगी
तेरे बिना जीना ऐसे कि जैसे,
मैं ख़ुद को ही ख़ुद से जिलाता रहा हूँ।
सदा तेरी गलियों......
अश्क़ बस्तरी
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