नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

बासुरी बेसुरी हो गयी ,पंखुड़ी गुलाब कि कटीली हो गयी ।      


सुर बेसुरा हो गया ,साज सब सजा हो गयी ।।                    


गीत ,ग़ज़ल , संगीत उबाऊ हो गयी । इंसान बेजार ,जिंदगी बंजर हो गयी।।                         


 


जिन्दा है रिश्तों कि बेवफाई हो गयी।


कहर का करिश्मा रिश्ते, नाते जहाँ ,जमाना हो गया बेगाना ।


पास नहीं क़ोई आता जिस्म को हाथ नहीं क़ोई लगाता । 


 


पैदाइश बेकार हो गयी जिंदगी जान कि बेजान हो गयी।।       


 


खौफ है ख़ास का ही खास से मिट जाना। तन्हाई कि परछाई मौत से बड़ी हो गयी । इंसा ,इंसा का कातिल कभी हथियार कि धार से कभी जबान कि तलवार से करता एक दूजे का कत्ल ।                            


इंसा दो धार हो गया जिंदगी जज्बात कि मार हो गयी।।


जिन्दा जिस्म से क़ोई रिश्ता नहीं निभाता।                                  


रिश्तों का मिज़ाज़ बदल गया है रिश्तों का समाज बदल गया है। इंसान खुद का जिन्दा लाश ढो रहा है, जिंदगी बोझ बन गयी है।।


 


कितना बदल गया है इंशा,और क्या बदलना है बाकी ।     


 


इंसान बदलने का रियाज कर् रहा है। दिलों के दरमियां प्यार ,मोहब्बत का एहसास अभी बाक़ी। 


 


मिलने जुलने का रस्म ,रिवाज हुआ ख़ाक । एहसास ही रह गया बाक़ी 


व्यवहार हुआ साफ़। 


इंसा फड़फड़ा रहा निन्दगी जंजाल बन गयी है।।


 


एहसास अजीब जज्बा इंसा हैरान परेशान है । बदल रहे मिज़ाज़अब शक्लों के बदल गए शाक ।     


इंसा ताकत कि साक कि तलाश में भटकता। बैठ रहा शाक कि ख़ाक पर यकीन एतबार लूट रहा है।  


 


इंसान का मौजू बदल गया जिंदगी मायने ढूढ़ती है।।


                            


 


खौफ मंडरा रहा है ,इंसान इधर उधर भाग रहा है।   


 


शहर छोड़ कर गांव में आया ,गावँ छोड़ कर अब जाना किधर है। इंसा मझधार में फंस गया है जिंदगी तूफ़ान में जनजाल बन गयी है।।


 


कायनात भी खामोश गवाही दे रही है जहाँ में इंसा कि तबाही देख रही है ।                      


जन्नत ,दोजख दोनों ही जहाँ में इंसान के करम का करिश्मा कह रही है। चमन में बहार बागों में फलों से लदे डाल । सुबह भौरों का फूलों कलियों कि गली में गुंजन गान ।            


कोयल कि कु कु मुर्गे कि बान कहानी लग रही है। दहसत में है इंसा जिंदगी खुद के जाल में फंस गयी है।   


 


सुबह सूरज कि लाली कि चमक दमक दब रही है।                


 


कागा ,श्वान ही दीखते है आम जहाँ में रौनक कि सुबह शाम।


 


च्मगाधड़ कि मार पड़ रही है। इंसान है घायल जिंदगी कराह रही है।।


                                                                            शेर हुये ढेर अब गीदड़ ही शेर बहुत है शोर।   


 


जिंदगी थम गयी है सांस धड़कन की जिंदगी कट रही है। 


 


फिजाओ कि हवाओ में है जहर जहर ही जान बन गयी है।    


 


इंसान हो गया जहरीला जिंदगी ठहर गयी है ।।


 


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


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