सुनीता असीम

हुए हैं रात के साए भले घनेरे भी।


चले चलो कि मिलेंगे तुम्हें सबेरे भी।


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समझ नहीं पा रहे हम हिसाब तुम्हारा।


बनाए हमने तो थे प्यार के जजीरे भी।


***


ढली हुई ये जवानी लिए चलोगे जब।


तुम्हें ज़रा भी दिखेंगे नहीं सहारे भी।


***


निकल रहा ही नहीं नाग का जहर बिल्कुल।


लगे हुए हैं हजारों यहां सपेरे भी।


***


नहीं तुम्हें आ रही नींद क्यूं बताओ तो।


कि आसमाँ में सभी सो रहे सितारे भी।


***


सुनीता असीम


२९/५/२०२०


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