सुनीता पाठक अयोध्या

धीर धरा ने धरा बहुत, अब धरती माँ भी हुई अधीर।
 धरा  को जब तुम मां  समझोगे  तब समझोगे  उसकी पीर।।
 ऊंची ऊंची बिल्डिंग बनवा कर  सारा जंगल  काट दिया,
उपजाऊ खेतों में सड़क है मुआवजा भी बांट दिया,
 शुद्ध स्वच्छ जल वायु को छोड़ो खत्म हुई उसकी तासीर।
 धीर धरा ने धरा बहुत अब धरती  मां भी हुई अधीर।।
 जगह-जगह बनवाके बांध, नदियों का पानी रोक लिया,
 स्वीमिंग पूल भरे बोरिंग से ,भूतल का जल सोख लिया,
 सूखा और अकाल पड़ा तो ,गिरा है अब नैनो से नीर।
 धीर धरा ने धरा बहुत अब धरती  मां भी हुई अधीर।।
फल और फूल अनाज व मेवा सब था इंसानों के लिए,
 साहस ,ताकत ,ज्ञान ,विवेक यह प्रकृति ने सब कुछ हमें दिए,
 निरीह पशु पक्षी भक्षण हित ,चला रहे हैं उन पर तीर।
 धीर धरा ने धरा बहुत अब धरती  मां भी हुई अधीर।।
यह प्रकृति का बदला है, जो मनुज मनुज से दूर हुआ,
 जो आजाद था, वह कैद में रहने को मजबूर हुआ,
दूर आदमी मानवता से कैसे बदलेगी तस्वीर।
 धीर धरा ने धरा बहुत अब  धरती  मां भी हुई अधीर।।


सुनीता पाठक अयोध्या


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