ग़ज़ल--दो काफ़ियों में
अगरचे इक घड़ी को मेरी यह तदबीर सो जाती
किसी की ज़ुल्फ़ ही मेरे लिए ज़ंजीर हो जाती
कहीं भी चैन से रहने नहीं देती है यह ज़ालिम
ये तेरी याद जो हर दिन नई इक पीर बो जाती
हमारे प्यार का छप्पर कभी यह गिर नहीं पाता
निगाह-ए-यार गर बनकर खड़ी शहतीर हो जाती
ये आहों की नदी बहने न दी आँखों से यूँ हमने
क़िताब-ए-दिल पे यह लिक्खी हुई तहरीर धो जाती
किसी के हुस्न की रानाइयों में यूँ नहीं डूबे
यही था डर हमें तेरी कहीं तस्वीर खो जाती
हमीं ने तोड़ दी तक़दीर की ज़ंजीर ऐ- *साग़र*
वगरना उम्र भर इंसान की तदबीर सो जाती
🖋विनय साग़र जायसवाल
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