*"तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को"*
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(लावणी छंद गीत)
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विधान- १६,१४ मात्राओं के साथ ३० मात्रा प्रतिपद। पदांत लघु गुरु का कोई बंधन नहीं। युगल पद तुकबंदी।
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●धरा कहे सरसा दो जल से, वासव! मम उर-अंतर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
नीर-दान दे आज सँवारो, मेरे तन-मन जर्जर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
●मेरा तप कब होगा पूरा? हे घनवाहन! बतलाना।
खंजर-दाघ-निदाघ भोंक अब, छलनी और न करवाना।।
व्याकुल होकर आज धरा है, करे पुकार पुरंदर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
●कृष्ण-मेघ बरसोगे कब तुम? मुझको कब सरसाओगे?
तृषित चराचर चित चिंतन को, बोलो कब हरसाओगे??
करो वृष्टि अब सृष्टि तृप्त हो, रच भू-गगन स्वयंबर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
●नित उजाड़ शृंगार धरा का, हरियाली को तरसेंगे।
बची रहेगी अटवी अपनी, बादल भी तब बरसेंगे।।
देखे मन मारे महि-मीरा, अपने अंबर-गिरधर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
●जीव जंतु नग नदियाँ घाटी, तरस रहे हैं पानी को।
प्रतिबंधित अब करनी होगी, मानव की मनमानी को।।
ताप नित्य बढ़ता है वैश्विक, ज्ञान गहो अब उर्वर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
●आये दिन यह मानसून भी, अब धोखा दे जाता है।
हाल हुआ है बद से बदतर, फाँसी कृषक लगाता है।।
त्राहिमाम भू कहती "नायक", पुकारती है ईश्वर को।
तपती धरती तपस्विनी सी, ताक रही है अंबर को।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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