*"क्यों चले जाते हैं मीत?"*
(कुण्डलिया छंद)
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*सपनों का नित भान कर, भरे नहीं घट-रीत।
क्यों जाते हैं छोड़कर, दूर कहीं मन-मीत??
दूर कहीं मन-मीत, नेह आपस का तोड़े।
जाने किससे कौन, कहाँ कब नाता जोड़े??
कह नायक करजोरि, सुहाना क्षण अपनों का।
करता हृदय विदीर्ण, चक्र चंचल सपनों का।।
*होते अपने क्यों विलग? अपनों की तज प्रीति।
मेल कभी कब छूटना, अजब जगत की रीति।।
अजब जगत की रीति, कर्म जो करता जैसा।
जग में मिलन-विछोह, मिले फल उसको वैसा।।
कह नायक करजोरि, कभी हँसते कब रोते।
पल-पल खेल-अनेक, मिलन-बिछुड़न के होते।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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