भरत नायक "बाबूजी

*"प्रकृतिऔर मानव"*


 (कुकुभ छंद गीत)


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विधान- १६ + १४ = ३० मात्रा प्रतिपद, पदांत SS , क्रमागत युगल पद तुकबंदी।


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*सुधा सरिस शुचि धार नदी की, आँसू बन क्यों बहती है?


सुनले चलने वाले पंथी, प्रकृति तुझे कुछ कहती है।।


दंश-गरल हर पर्यावरणी, बेबस होकर सहती है।


सुनले चलने वाले पंथी, प्रकृति तुझे कुछ कहती है।। 


 


*वृक्ष नहीं क्यों अब हरियाता? खगवृन्द नहीं क्यों गाता?


सोते सूखे अब झरनों के, क्यों नद में नीर न आता??


स्वर्ग बनूँ कैसे भूतल का, प्यासी वसुधा कहती है।


सुनले चलने वाले पंथी, प्रकृति तुझे कुछ कहती है।।


 


*पड़ा अकल पर पत्थर क्यों है? क्यों मनमानी करता है?


जिम्मेदार कौन है इसका? नित्य प्रदूषण भरता है।।मिल भी विकास के नाम सदा, धूम्र उगलती रहती है।


सुनले चलने वाले पंथी, प्रकृति तुझे कुछ कहती है।।


 


*कौन कहे अब पत्र-पुष्प को, शाखा-जड़ भी कटती है।


पूजित होते थे पेड़ कभी, अब तरु-छाती फटती है।।


हरियाली से खुशहाली है, सारी दुनिया कहती है।


सुनले चलने वाले पंथी,


प्रकृति तुझे कुछ कहती है।।


 


*मानव से वन मानव वन से, उठो हरित भू करने को।


चिंतन करना होगा अब तो, जैविक चिंता हरने को।।


हुई राम की गंगा मैली, यमुना रोती रहती है।


सुनले चलने वाले पंथी, प्रकृति तुझे कुछ कहती है।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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