*"कलम, स्याही और आत्मा"*
(कुण्डलिया छंद)
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★सर्जन कुछ दूषित हुआ, बदली सर्जक सोच।
आग उगलती थी कलम, आयी उसमें लोच।।
आयी उसमें लोच, स्वार्थ ही अब अहम हुआ।
सूखी स्याही धार, लगे अब तो सृजन जुआ।।
कह नायक करजोरि, अहम लगता धन-अर्जन।
आत्मा का व्यवसाय, बना है अब तो सर्जन।।
★आत्मा तृष्णा मेंं फँसी, कलम हुई लाचार।
अान कहाँ पर बेचता, सच्चा रचनाकार।।
सच्चा रचनाकार, करे निज शोणित-स्याही।
करता सृजन सुकर्म, लूटता न वाहवाही।।
कह नायक करजोरि, कपट छल का हो खात्मा।
खोये कलम न अर्थ, शुद्ध निज रखना आत्मा।।
★कलम करो कर्मण्य की, प्रेम बहे मसि-धार।
आत्मा से सर्जन करो, सुखी सकल संसार।।
सुखी सकल संसार, रचो कल्याणी रचना।
आडंबर को ओढ़, अहंकारी मत बनना।।
कह नायक करजोरि, श्रेष्ठ शुचि भल भाव भरो।
निहित रहे कल्याण, कलम को कृतकृत्य करो।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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