*"रचनाकार"* (दोहे)
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*विधि ने सारी सृष्टि का, सृजन किया साकार।
अनुपम रचनाकार वह, जग रचना उपहार।।१।।
*प्रकृति सृजन करती स्वयं, कभी सँहारक खेल।
नग-वन-सरिता-सिंधु का, है अद्भुत यह मेल।।२।।
*कुंभकार के चाक पर, मृदा गहे ज्यों रूप।
करता रचनाकार भी, त्यों शुभ सृजन अनूप।।३।।
*गढ़ता रचनाकार है, नित-नित नव साहित्य।
सुखद सृजन के व्योम पर, चमके ज्यों आदित्य।।४।।
*समझ सृजन को साधना, रचता रचनाकार।
शुचिकर सुंदर सत्य शिव, सृजन सदा सुख सार।।५।।
*सृजन धर्म को पूजता, सच्चा रचनाकार।
करता सत्साहित्य से, संप्रेषण-संचार।।६।।
*शब्द पिरोकर भाव भर, कृति को दे आकार।
कालजयी कर सर्जना, रहे अमर कृतिकार।।७।।
*सृजक सृजन-आकार दे, उमड़-घुमड़ भर भाव।
झरे झरण झंकार से, सुर-लय-ताल बहाव।।८।।
*प्रेमिल-पावन भाव भर, कर्म करे कृतिकार।
पुष्प खिले मरुभूमि-भी, आये सुखद बहार।।९।।
*'हम' हो रचनाकार जब, 'मैं' से होता दूर।
सृजन सहज सद्भाव से, रंग भरे भरपूर।।१०।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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