भरत नायक "बाबूजी"

*"रचनाकार"* (दोहे)


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*विधि ने सारी सृष्टि का, सृजन किया साकार।


अनुपम रचनाकार वह, जग रचना उपहार।।१।।


 


*प्रकृति सृजन करती स्वयं, कभी सँहारक खेल।


नग-वन-सरिता-सिंधु का, है अद्भुत यह मेल।।२।।


 


*कुंभकार के चाक पर, मृदा गहे ज्यों रूप।


करता रचनाकार भी, त्यों शुभ सृजन अनूप।।३।।


 


*गढ़ता रचनाकार है, नित-नित नव साहित्य।


सुखद सृजन के व्योम पर, चमके ज्यों आदित्य।।४।।


 


*समझ सृजन को साधना, रचता रचनाकार।


शुचिकर सुंदर सत्य शिव, सृजन सदा सुख सार।।५।।


 


*सृजन धर्म को पूजता, सच्चा रचनाकार।


करता सत्साहित्य से, संप्रेषण-संचार।।६।।


 


*शब्द पिरोकर भाव भर, कृति को दे आकार।


कालजयी कर सर्जना, रहे अमर कृतिकार।।७।।


 


*सृजक सृजन-आकार दे, उमड़-घुमड़ भर भाव।


झरे झरण झंकार से, सुर-लय-ताल बहाव।।८।।


 


*प्रेमिल-पावन भाव भर, कर्म करे कृतिकार।


पुष्प खिले मरुभूमि-भी, आये सुखद बहार।।९।।


 


*'हम' हो रचनाकार जब, 'मैं' से होता दूर। 


सृजन सहज सद्भाव से, रंग भरे भरपूर।।१०।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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