*"जाल विछाता व्याध है"* (दोहे)
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*स्वार्थ भरा जब सोच मेंं, कैसे हो सुविचार?
पापापूरित जो हृदय, करता वह अपकार।।१।।
*मोल न जाने मान का, जिसका कहीं न मान।
देत फिरे सम्मान वह, पात्र-कुपात्र न जान।।२।।
*कहता फिरता शान से, पावन अपना काम।
धूर्त सुजन से छद्म-छल, करता फिरे तमाम।।३।।
*जाल बिछाता व्याध है, दाने का दे लोभ।
बचकर रहना चाल से, बाद न हो मन-क्षोभ।।४।।
*मातु-पिता को भी छले, कुटिल-कृतघ्न-कपूत।
घोर-घिनौनी नीच अति, कपटी की करतूत।।५।।
*भाषा-बोली-लेख को, अज्ञ करे बदरंग।
ज्ञान-युद्ध फिर भी करे, विज्ञ जनों के संग।।६।।
*चाहे कोई आम जन, या हो राजकुमार।
होता कौशल नष्ट है, अहंकार की धार।।७।।
*कर लेता है पारखी, हीरे की पहचान।
जान न पाये मूढ़ जन, तजता पाहन जान।।८।।
*छीन निवाला और का, भरो नहीं निज पेट।
पाप कमाई का सदा, होता मटियामेट।।९।।
*जिससे जो भी है लिया, सबको समझ उधार।
कर्ज चुकाकर रे मनुज! अपना जनम सुधार।।१०।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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