जब पीड़ा की परिणति शव्दों में होती है तो अनायास सृजन होता है l
आज के परिप्रेक्ष्य में शव्दों की समिधा रूप एक गीत
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बटोही लौट चलाचल गाँव l
सूख रहे हैं ताल यहाँ सब,
सिमट रही हैं नदियाँ l
शैवालों में फँसी मछलियाँ,
बिता रही हैं सदियाँ ll
कच्छप, मकर, कर्क मुँह बाँधे
ढूंढ रहे हैं छाँव l
सपने सुलग रहे आँखों में
मंजिल है बीरान l
सूरज दहक रहा सिर ऊपर
दिखलाता निज आन ll
पेट जल रहा भूख के मारे
अंगारों पर पाँव l
टूटी छानी बाट जोहती
दरवाज़े पर खटिया l
ढुलक रहीं बूढ़े नयनो से
याद भरीं वो बतियाँ ll
खींच रहे तन-मन मरुथल में
बोझिल अपनी नाँव l
खड़े राह में आलिंगन को
काँटों भरे बबूल l
चले बवंडर हँसी उड़ाते
मार-मार कर धूल ll
ऊँचे खड़े खजूर बताते
दूर है कितनी छाँव l
जिसके कंधे लदी जिंदगी
माँग रही है रोटी l
बूँद-बूँद पानी को तरसी
उसकी किस्मत खोटी ll
भरे फफोले तलवे बढ़ते
भरने दिल के घाव l
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बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)
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