बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)

जब पीड़ा की परिणति शव्दों में होती है तो अनायास सृजन होता है l


   आज के परिप्रेक्ष्य में शव्दों की समिधा रूप एक गीत 


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बटोही लौट चलाचल गाँव l


 


सूख रहे हैं ताल यहाँ सब, 


सिमट रही हैं नदियाँ l


शैवालों में फँसी मछलियाँ, 


बिता रही हैं सदियाँ ll


 


कच्छप, मकर, कर्क मुँह बाँधे 


ढूंढ रहे हैं छाँव l


 


सपने सुलग रहे आँखों में 


मंजिल है बीरान l


सूरज दहक रहा सिर ऊपर 


दिखलाता निज आन ll


 


पेट जल रहा भूख के मारे 


अंगारों पर पाँव l


 


टूटी छानी बाट जोहती 


दरवाज़े पर खटिया l


ढुलक रहीं बूढ़े नयनो से 


याद भरीं वो बतियाँ ll


 


खींच रहे तन-मन मरुथल में 


बोझिल अपनी नाँव l


 


खड़े राह में आलिंगन को 


काँटों भरे बबूल l


चले बवंडर हँसी उड़ाते 


मार-मार कर धूल ll


 


ऊँचे खड़े खजूर बताते 


दूर है कितनी छाँव l


 


जिसके कंधे लदी जिंदगी 


माँग रही है रोटी l


बूँद-बूँद पानी को तरसी 


उसकी किस्मत खोटी ll


 


भरे फफोले तलवे बढ़ते 


भरने दिल के घाव l


 


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बृजेश अग्निहोत्री (पेण्टर)


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