डा.नीलम

*अब के तुम ऐसे बरसना*


 


अब के तुम ऐसे बरसना


जैसे बरसे तपती धूप


अन्न धन को पकाकर जो


मिटाती है सबकी भूख


 


अब के तुम ऐसे बरसना जैसे टूटकर बरसे बदली


मुर्झाई बगिया में फिर से


मह मह चले पवन संदली


 


अब के तुम ऐसे बरसना जैसे कान्हा का बाँसुरी राग


लोक लाज तज गोपियाँ 


करने लगे वृंदावन में रास


 


अब के तुम ऐसे बरसना जैसे छलके मेह -समीर


मेरे वैरागी मन में भी


बहने लगे नेह का नीर


 


अबके तुम ऐसे बरसना 


जैसे जेठ- आषाढ़ की तपती धरा की तपन मिटाने


आसमान स्वयं धरती पे उतरे।


 


           डा.नीलम


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