.
*पतित पावनी माँ गंगा*
हे महावेगा, सदा नीरा,
तुम पतित पावनी माँ गंगा।
तुम शिव केशी धारा गंगा,
हे सुखदायिनी प्रबल गंगा।।
तुम मंदाकिनी,जाह्नवी हो तुम,
तुम देवनदी, तुम सुरसरिता।
संताप जगत के हरने वाली,
तुम ध्रुवनन्दा,तुम विष्णुपगा।।
तुम ब्रह्म कमण्डल से निकली,
तुम भागीरथ की तपस्या हो।
दशमी तिथि ज्येष्ठ शुक्ल उतरी,
तारन हेतु सगर के पुत्रों को।।
तुम हुई अवतरित धरती पर,
करने को वसुधा का उद्धार।
पापों से मुक्त जगत को कर,
स्नेह दिया अपना अपार।।
तेरे पावन तट पर माता,
काशी, हरिद्वार, प्रयाग बसे।
अन्तिम गति इस मानव तन की,
होती सद्गति मिलकर तुझसे।।
निज कर्मो से डर कर मानव,
आकर तेरे घाट पे वास करे।
तेरे जल से स्नान करे।
पर मन का मैल नही उतरे।।
तेरा जल इतना निर्मल है,
कोई रंग न इस पर चढ़ता है,
निज पापों को धो कर मानव,
गंगा को मैली करता है।।
सतयुग, द्वापर, त्रुता युग से,
तुम कलियुग में भी आयी हो।
तीन युगों की भयमोचिनी,
आ कलियुग में पछतायी हो।।
तुम चन्द्र ज्योति सी उज्ज्वल हो,
शरणागत , दीन वत्सला हो।
कर कृपा सकल तिहुँ लोकों पर,
तुम अभयदान नित देती हो।।
तुम भय की काली रात मिटाती ,
यम के त्रास को हरती हो।
तेरी शीतल अविरल जल-धारा ,
युग-युग से सदा सफल बहती।।
*स्वरचित-*
*डाॅ०निधि,*
*अकबरपुर, अम्बेडकरनगर।*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें