पिता दिवस पर एक कविता प्रस्तुत है आशा है आशिवार्द मिलेगा....
मैं बबूरे पेड़ के नीचे खड़ा था
तब पिता की याद कौंध आयी हमें
देख ये कैसी बिडम्बना है यहाँ
चिंड़िया और चिड़ा बैठे मिले हैं यहाँ।
शूल सारे जीवन में पड़े हैं
बिन पिता के प्रतिपल खड़े हैं
मेरे स्वप्नों के फूल खिलाने में लगे
बिस्तर पर हों मेरे हीत साधने लगे।
पिता कल्पना को साकार देता है
जीवन कंटकों को टाल देता है
जो मृदुल फूलों को पथ में
बिछा बिन कांटो के डाल देता है।
कल्पना के हाथों की माया
पिता के भावना की छाया
मन मेरा डगमगता है जब
मझधार से उबार देता है तब।
ठिठुरन भरे रात दिन वृष्टि हो सदा
हो कड़कती धूप में बन छाया सदा
शब्द के अर्थ अब निकलते हैं भले
खुद पिता बन भाव पिता के हैं मिले।
हैं कठिन तप योग सा पिता के भाव
भीड़ में सबकुछ हैं पर है तेरा अभाव
कठिन योग जैसे कर है देता है निरोग
पथ के कंटको को हर कर देता है सुयोग।
दिवंगत हो चिरनिंद्रा में चले गये
पर तेरे आशीष हैं सदा मेरे लिए
भीड़-भरी इस दुनिया में तेरी यादों से
रो पड़ा हूँ अकेला मैं खड़ा तेरे लिए।
रचना दयानन्द त्रिपाठी
महराजगंज, उत्तर प्रदेश।
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