दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल महराजगंज, उत्तर प्रदेश

गंगा दशहरा के अवसर पर माँ गंगा को समर्पित कविता प्रस्तुत है।


 


यदि पुनीत हो लक्ष्य सभी का 


तो नभ भी झुक जाता है।


माँ गंगा का अवतरण 


धरा पर हो जाता है।


 


पावनी गंगा का धरती पर अवतरण हुआ,


राजा भगीरथ सा परमार्थी नभ को छुआ।


 


अविरल, कोमल, निर्मल गंगा


ब्रम्ह कमंडल से प्रगट भये


रोकेगा उनका वेग कौन


यह सोच सभी जन सहम गये।


 


अश्वमेध से महाविजय को सगर सुत निकले, 


श्रृषि अपमान के तपअग्नि से भस्म हो चले।


 


भगीरथ ने की घोर तपस्या 


शिव जी का आशीष लिया


शिव ने जानी पुनीत मनोरथ 


जटा में गंगा के वेग रोक लिया।


 


कपिल मुनि के शरणागत हो उपचार लिया,


सुतों के उद्धार हेतु श्रृषि से मर्म जान लिया।


 


राजा भगीरथ की तपस्या का


फलीभूत होने का अवसर आया।


माँ गंगा के थमे वेग का,


धरा पे अमृत बहने का अवसर आया।


 


घोर तपस्या ब्रम्हा की सगर परपौत्र ने कर दिखाया,


भगीरथ से प्रसन्न ब्रम्ह ने वरदान दे समुचित पथ दिखाया ।


 


गंगा भी अपने मद में थीं


मद उनका भी चकनाचूर हुआ।


व्याकुल गंगा के अमृत जल से 


सगर सुत का तब उद्धार हुआ।


 


   मौलिक रचना :-


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


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