*गीत*(छप्पन भोग16/14)
छप्पन भोग चढ़े मंदिर में,
द्वार रुदन शिशु करता है।
किसको फ़िक्र पड़ी है उसकी-
मृतक जगत यह लगता है।।
जहाँ देखिए कहर-कहर ही,
नहीं अमन औ'चैन दिखे।
परेशान मजलूम यहाँ पर,
कुत्ता ओदन भले चखे।
मानवता तो दूर बसी जा-
क्रूर भाव मन बसता है।।छप्पन भोग......।।
मंदिर-मस्ज़िद-गिरजाघर में,
दान-पुण्य यदि है होता।
इसमें तो आश्चर्य नहीं है,
कर्म-कुकर्म वहाँ होता।
दान-धर्म के नाम ठगी कर-
पापी जीवन पलता है।।छप्पन भोग.......।।
चंदन-तिलक लगा माथे पर,
पंडित लगे पुजारी है।
धर्म-कर्म का करते धंधा,
ठगता बारी-बारी है।
बेच-बेच कर मानवता को-
कहता दुख वह हरता है।।छप्पन भोग........।।
अजब-गजब की दुनिया मित्रों,
इसकी चमक दिखावा है।
अंदर इसके भरी गंदगी,
सुबरन रूप छलावा है।
स्वर्ण कुंभ में भरा गरल जग-
मरता-जीता रहता है।।छप्पन भोग........।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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