दिल-ओ-दिमाग। ( कविता)
दिल और दिमाग में चलती है कशमकश कोई
जिंदगी आज दिखाती है गुजरा हुआ मंजर कोई
कभी चलते थे राहों पर तो हुजूम साथ चलता था
वीरान हुई सड़कों पर कभी मेला सा लगता था
पर आज है छाई अजब सी बेचारगी सी है
कैसा हुआ मंजर कि चुभन लगती ख़ंजर सी है
न अब शामिल कोई सुख में तो दुख को कौन है बाँटे
सन्नाटा सा पसरा है कि अब सूना सा है पनघट
कहाँ जमघट वो सावन का नहीं झूले हैं पेड़ों पर
कहाँ त्योहार हैं मनते वो अब सपने हैं नींदों में
है अब संसार भी सिमटा सिमटती सी ये दुनिया है
कभी मिलजुल के रहते थे अब बन गई बीच दूरियाँ हैं
डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
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