सन्त कबीर
भक्ति काल के कवि कहो, या कहो कोई उन्हें सन्त
वाणी के धनी बड़े वे निर्गुण धारा के प्रतिनिधि सन्त
उनकी साखी साक्ष्य है मानव जीवन का सार
कहते हैं सन्त कबीर जी सबके मन बसा खुदाय
सबद , रमैनी , साखी में बोली बोले कबीर
ना काहू से दोस्ती मैं हुआ रामनाम में लीन
पंचमेल की खिचड़ी से भाषा का रूप बनाय
चला कबीरा मार्ग पर धर्म सम्प्रदाय छिटकाय
एक ही ईश्वर जो जपै मिले उसे सुखधाम
जाति का कोई मोल नहीं कर्म ही करते न्याय
माया तो है महाठगिनी मानव का ज्ञान हर लेय
आत्मा परमात्मा की गूढ़ मति पावन मन में होय
पंचतत्व की काया का कहा करै अभिमान
देह छोड़ हंसा उडै पंचतत्व में विलीन हो जाय
ना जाति है साधु की न उसका कोई धर्म
मन्दिर, मस्जिद में न फिरूँ करूँ न कोई अधर्म
मानव मात्र की सेवा ही सबसे बड़ा सत्कर्म
चले जो इसके मार्ग पर बढ़े उसी के सुकर्म
मुख मेरा ले राम नाम हृदय भटकता जाए
माला का औचित्य क्या जब मन ही बस में नाय
सन्त कबीर की वाणी ने ऐसा किया कमाल
कीर्तन की निर्झरणी बही दिए विकार निकाल
डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान
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