डॉ रामकुमार चतुर्वेदी

*राम बाण🏹*


 


          ऐसा रूप सँवरना उनका।


        दर्पण सम्मुख है इठलाना।।


           दर्पण की निर्मलता मानें।


          दूर दूर तक है झुठलाना।।


 


          क्रीम लगी दीवारें खुद ही।


        मुखड़े की रौनक बता रहीं।।


          इत्र बाग की खुशबू देकर।


       मन बगिया को है लुभा रहीं।


          सपने के झूले हैं सुखमय।


        अपने मन को है बहलाना।।


 


            भ्रम की बेलायें फैंली हैं।


          आशाओं के बादल गहरे।।


         दोष नजर का कौन बताये।


             शंकाओं के लगते पहरे।


     नजरों का बढ चढ़कर हिस्सा।


    कमसिन लगता है झुँझलाना।।


 


           घर में रहकर भूल गये थे।


                  पर्दे में कैसे है रहना।


                बेपर्दे में रहकर जाना।


                चेहरे को ढंकते रहना।


             अंकुश के पर्दे में घायल।


         जख्मों को देकर सहलाना।।


 


             सपनों की है हेरा फेरी।


          ये दुखड़े हैं जज्बातों के।।


           इच्छायें बुनियादी करने।


          चलते खंजर उन्मादों के।।


         राम कहें मन रूप सँवारो।


          जीवन जीना सिखलाना।।


 


      *डॉ रामकुमार चतुर्वेदी*


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