विषय:- " आत्म मंथन करता, यात्रा करता मन... "
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शीर्षक- " मन... "
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आत्म मंथन करता या
लम्बी यात्रा करता मन....
जीवन के विविध रंगों को
साथ लेकर चलता है
कभी हास कभी अश्रु
एक ही सिक्के के दो पहलू
धूप-छाँव
फूल और काँटे
बाटते बराबर-बराबर।
कभी रेत की आँधी
तो कभी झरनों का मधुर ध्वनि
साक्षात्कार कराते गहरे समुद्र से
कल-कल बहती नदियों से
हरियाली से
पतझड़ से
बिछुड़न. ...और
फिर..... आलिंगन से।
लम्बी यात्रा करता मन....
आँखों में तिरता
प्रतिपल दिखाता अनोखे सपने
कभी मंगलगान...
तो कभी... अन्तहीन करुणा
कराह... चीत्कार
वेदना... और
कल्पनाओं की ऊँची उड़ान।
आत्म मंथन करता मन.....
हँसता.. मनाता...रूठता
जीवन के उतार-चढ़ाव
शीत-गर्म का अनुभव
अपना-पराया समझता
छोड़ता अपनाता..
सँजोता जोहता
और फिर...
सम्बन्धों को परखता।
अन्तर्विभेद करता
अन्तर्द्वन्द्व करता
समर्थ और असमर्थ में
लौकिक और अलौकिक में
सदय और निर्दय में।
नापता अनन्ताकाश को
प्रकृति के विराट को
अनुशीलन करता...
और सोचता..
अकेले में
यही तो है मोनेर दशा
जे केऊ भापते पाड़े ना.....
निरन्तर अथक।... ...
मौलिक रचना -
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'
(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297
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