विषय:- 'कैसे विस्मृति कर दूँ मैं'
विधा- गीत
कनक पुष्प सा रूप तुम्हारा
कैसे विस्मृति कर दूँ मैं,
बातों में अमृत की धारा
कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।...
कितना तुमसे अपनापन है
कैसे तुझे बताऊँ मैं,
जीवन की अभिलाषा हो तुम
कैसे तुझे सुनाऊँ मैं।
मन के तार बजायी हो तुम
कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।
सूरज चाँद सितारे सारे
तेरे छवि को निरख रहे हैं,
पुष्प-कली और वन-उपवन
लज्जित तुझको परख रहे हैं,
मुझको हो तुम जगत् से न्यारा
कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।
तेरे अधरों की स्निग्ध हँसी
गुप-चुप नयनों की भाषा,
छिपी हुई तुझमें हे प्रिय!
मेरे जीवन की परिभाषा।
देते थे तुम मुझे सहारा
कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।
इतना ही तुम मुझे बता दो
तुमसे दूर रहूंगा कैसे,
जीवन है प्रतिपल दु:खमय
उर का घाव भरूंगा कैसे।
तुम तो हो उर वासी हे प्रिय
कैसे विस्मृति कर दूँ मैं।
मौलिक रचना -
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश'
मो० नं० 9919886297
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