क्रमशः...*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
जेहि बिधि मिलै परम सिधि अर्जुन।
तुमहिं बताउब मैं सो अब सुन।।
निज-निज करम- धरम अनुसारा।
जग ब्यापी प्रभु पूजहिं सारा ।।
परम सिद्धि तुरतइ मिलि जाई।
बिनु संदेह कृपा प्रभु पाई।।
अपुन धरम बल रह गुन रहिता।।
पर रह श्रेष्ठ,अपर गुन सहिता।।
जदि हो करम धरम अनुकूला।
मिलै न पाप नाहिं भव-सूला।।
दोषयुक्त स्वाभाविक करमा।
तजु न पार्थ नहिं होय अधरमा।।
जस रह अग्नि धूम्र लइ दोषा।
वस नहिं कर्म कोऊ निर्दोषा।।
अनासक्त बुध,स्पृह रहिता।
इंद्रि-जीति सांख्य-बल सहिता।।
जे नर जग रह ताको मिलई।
नैष्यइ कर्म सिद्धि जे अहई।।
सुद्ध सच्चिदानंद्घनस्यामा।
पाव परम सिधि आतम धामा।।
सुचि बुधि जन एकांतइ बासी।
अल्पाहारी नाहिं निरासी।।
दृढ़ बैराग-प्राप्त नर ध्यानी।
रखैं नियंत्रन तन-मन-बानी।।
सात्विक भाव राखि हिय बस मा।
तजि सब्दादिक बिषय छिनहिं मा।।
काम-क्रोध-बल औरु घमंडा।
ममता रहित द्वेष करि खंडा।।
दोहा-सांत भाव जे जन अहहिं,अरु समभाव सुजोग।
ब्रह्म सच्चिदानंदघन,अहहीं पावन जोग ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः........
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