डॉ0हरि नाथ मिश्र

*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


बासुदेव, हे अंतरजामी।


हे हृषिकेश जगत के स्वामी।।


      मोंहि बतावउ अंतर आई।


      बिच संन्यास-त्याग बिलगाई।।


काम्यइ कर्म-त्याग संन्यासा।


कछु बिदुजनहिं क अस बिस्वासा।।


      सकल कर्म-फल-त्यागइ त्यागा।


      अस मत कछु विद्वान सुभागा।।


सकलइ कर्म-दोष परिपुरना।


कछु विद्वान कहहिं अस बचना।।


      होंहिं करम अस त्यागन जोगा।


      जगि-तप-दानइ होंय सुजोगा।।


त्याग होय सुनु कुंति-कुमारा।


सत-रज-तम जग तीन प्रकारा।।


     जग्य-दान-तप त्याग न जोगू।


     करहिं सुद्ध बुधि जनहिं सुजोगू।।


चहिअ अस्तु,करन तप-दाना।


जग्य व कर्म श्रेष्ठ जे जाना।।


    बिनु आसक्ति औरु निष्कामा।


    अस मम उत्तम मत बलधामा।।


नियत कर्म कै त्याग न उत्तम।


त्याग मोह बस तामस मत मम।।


     सकल कर्म बस दुख कै कारन।


     त्यागहिं भय बस कर्म सधारन।।


राजस- त्याग होय अस त्यागा।


ब्यर्थ-निरर्थक औरु अभागा।।


दोहा-त्यागइ सात्विक पार्थ सुनु,अनासक्त-निष्काम।


        नियत कर्म करि सास्त्र बिधि,पाउ परम सुख-धाम।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372 क्रमशः.......


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