*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
बासुदेव, हे अंतरजामी।
हे हृषिकेश जगत के स्वामी।।
मोंहि बतावउ अंतर आई।
बिच संन्यास-त्याग बिलगाई।।
काम्यइ कर्म-त्याग संन्यासा।
कछु बिदुजनहिं क अस बिस्वासा।।
सकल कर्म-फल-त्यागइ त्यागा।
अस मत कछु विद्वान सुभागा।।
सकलइ कर्म-दोष परिपुरना।
कछु विद्वान कहहिं अस बचना।।
होंहिं करम अस त्यागन जोगा।
जगि-तप-दानइ होंय सुजोगा।।
त्याग होय सुनु कुंति-कुमारा।
सत-रज-तम जग तीन प्रकारा।।
जग्य-दान-तप त्याग न जोगू।
करहिं सुद्ध बुधि जनहिं सुजोगू।।
चहिअ अस्तु,करन तप-दाना।
जग्य व कर्म श्रेष्ठ जे जाना।।
बिनु आसक्ति औरु निष्कामा।
अस मम उत्तम मत बलधामा।।
नियत कर्म कै त्याग न उत्तम।
त्याग मोह बस तामस मत मम।।
सकल कर्म बस दुख कै कारन।
त्यागहिं भय बस कर्म सधारन।।
राजस- त्याग होय अस त्यागा।
ब्यर्थ-निरर्थक औरु अभागा।।
दोहा-त्यागइ सात्विक पार्थ सुनु,अनासक्त-निष्काम।
नियत कर्म करि सास्त्र बिधि,पाउ परम सुख-धाम।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः.......
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