क्रमः....*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
ग्यानवान-त्यागी नर सोई।
सुद्ध सात्विकी जग रह जोई।।
नहिं आसक्त कर्म, हितकारी।
अस जन सँग न द्वेष,अपकारी।।
होवहि त्याग कर्म-फल त्यागा।
जग नहिं संभव सभ परित्यागा।।
भला-बुरा वा जे जग मध्यम।
तीन प्रकार होय फल सिद्धम।।
मिलै अवसि इन्हमहँ कोउ एका।
पुरुष सकामिहिं कर्मइ जेका।।
त्यागी-कर्म होय निष्कामा।
मिलै न फल कोऊ बुधि धामा।।
कारन पाँच साँख्य अनुसारा।
करमहिं सिद्धि हेतु सुनु सारा।।
कर्ता-चेष्टा-करण-अधारा।
दैव हेतु अहँ पाँच प्रकारा।।
कर्म सास्त्र-गत वा बिपरीता।
होंवहिं कारन पाँच सहीता।।
जे आत्मा कहँ मानै कर्त्ता।
ऊ दुरमति-मतिमंद न बुझता।।
मैं नहिं कर्त्ता जासुहिं भावा।
कबहुँ न अस जन पाप बँधावा।।
ग्याता-ग्यान-ग्येय तिन प्रेरक।
कर्म-प्रबृत्ति कै तीनिउँ देयक।।
कर्त्ता-करण-क्रिया के जोगा।
बनै कर्म कै पार्थ सुजोगा।।
दोहा-ग्यान-कर्म-कर्त्ता-गुनहिं,अहहिं ये तीन प्रकार।
कहे कृष्न सुनु पार्थ तुम्ह,साँख्य-सास्त्र अनुसार।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः......
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