डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमः....*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


ग्यानवान-त्यागी नर सोई।


सुद्ध सात्विकी जग रह जोई।।


     नहिं आसक्त कर्म, हितकारी।


      अस जन सँग न द्वेष,अपकारी।।


होवहि त्याग कर्म-फल त्यागा।


जग नहिं संभव सभ परित्यागा।।


     भला-बुरा वा जे जग मध्यम।


      तीन प्रकार होय फल सिद्धम।।


मिलै अवसि इन्हमहँ कोउ एका।


पुरुष सकामिहिं कर्मइ जेका।।


    त्यागी-कर्म होय निष्कामा।


     मिलै न फल कोऊ बुधि धामा।।


कारन पाँच साँख्य अनुसारा।


करमहिं सिद्धि हेतु सुनु सारा।।


    कर्ता-चेष्टा-करण-अधारा।


    दैव हेतु अहँ पाँच प्रकारा।।


कर्म सास्त्र-गत वा बिपरीता।


होंवहिं कारन पाँच सहीता।।


     जे आत्मा कहँ मानै कर्त्ता।


      ऊ दुरमति-मतिमंद न बुझता।।


मैं नहिं कर्त्ता जासुहिं भावा।


कबहुँ न अस जन पाप बँधावा।।


     ग्याता-ग्यान-ग्येय तिन प्रेरक।


     कर्म-प्रबृत्ति कै तीनिउँ देयक।।


कर्त्ता-करण-क्रिया के जोगा।


बनै कर्म कै पार्थ सुजोगा।।


दोहा-ग्यान-कर्म-कर्त्ता-गुनहिं,अहहिं ये तीन प्रकार।


       कहे कृष्न सुनु पार्थ तुम्ह,साँख्य-सास्त्र अनुसार।।


                    डॉ0हरि नाथ मिश्र


                     9919446372 क्रमशः......


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