डॉ0हरि नाथ मिश्र

*गीत*(तुम्हारे बिना)


रौशनी लगती फ़ीकी तुम्हारे बिना,


चाँदनी लगती तीखी तुम्हारे बिना।


चलातीं लगे छूरियाँ दिल पे अब तो-


सभी बातें सीधी तुम्हारे बिना।।


 


नहीं भाए मौसम सुहाना भी अब तो,


पिया-पी पपीहा का गाना मधुर तो।


लगे सूनी-सूनी सुनो हे प्रिये अब-


मेरे मन की वीथी तुम्हारे बिना।।


 


रंग में कोई रंगत नहीं दीखती,


संग के संग संगत नहीं सूझती।


फूल भी चुभ रहे खार की ही तरह-


लगे मधु न मीठी तुम्हारे बिना।।


 


लगे जैसे क़ुदरत गई रूठ अब तो,


लगे प्रेम-सरिता गई सूख अब तो।


वो तेरा रूठना फिर मनाना मेरा-


लगे बात बीती तुम्हारे बिना।।


 


आके फिर से बसा दे ये उजड़ा चमन,


ताकि खुशियाँ मनाएँ ये धरती-गगन।


अमर प्रेम-रस को मेरी रूह यह-


बता कैसे पीती तुम्हारे बिना??


 


मेरी आत्मा, मेरी जाने ज़िगर,


तुम्हीं हो ख़ुदा का ज़मीं पे हुनर।


तुम्हें देख कर ही तो गज़लें बनीं-


शायरी लगती रीती तुम्हारे बिना।।


 


ज़ुबाँ शायरी की तुम्हीं हो प्रिये,


कहकशाँ सब सितारों की तुम ही प्रिये।


वस्त्र कविता का मानस-पटल पे भला-


कल्पना कैसे सीती तुम्हारे बिना??


            ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                9919446372


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