डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*10


छंद-ताल-सुर-लय को साधे,


भाव भरे स्पंदन से।


वाणी का यह प्रबल प्रणेता-


सच्ची यह कविताई है।।


      लेखक-साधक-चिंतक जिसने,


      दिया स्नेह भरपूर इसे।


      उसके गले उतर देवामृत-


      ने भी किया सगाई है।।


आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी,


जब काग़ज़ पर चलती है।


चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती-


रहती जो अमिटाई है।।


      आसव है ये अमल-अनोखा,


       मन भावुक बहु करता है।


       मानव-मन को दे कवित्व यह-


       करता जन कुशलाई है।।


योग-क्षेम की धारा बहती,


यदि प्रभुत्व इसका होता।


धन्य लेखनी,कविता धन्या,


जो रस-धार बहाई है।।


     मधुरालय के आसव जैसा,


     नहीं पेय जग तीनों में।


     मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-


     जो इसकी प्रभुताई है।।


जब-जब अक्षर की देवी पर,


हुआ कुठाराघात प्रबल।


आसव रूपी प्रखर कलम ने-


माता-लाज बचाई है।।


     अमिय पेय,यह आसव नेही,


     ओज-तेज-बल-बर्धक है।


      साहस और विवेक जगाता-


      होती नहीं हँसाई है।।


रचना धर्मी कलम साधते,


सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर।


दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी-


विजय सभी ने पाई है।।


     शिथिल तरंगों ने गति पाई,


     भरी उमंगें चाहत में।


     बन प्रहरी की इसने रक्षा-


     जब दुनिया अलसाई है।।


मन-मंदिर का यही पुजारी,


रखे स्वच्छ नित मंदिर को।


कलुषित सोच न पलने देता-


सेव्य-भाव बहुताई है।।


      आसव नहीं है मदिरा कोई,


       आसव सोच अनूठी है।


       सोच ही रक्षक,सोच विनाशक-


       सोच बिगाड़-बनाई है।।


                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...