डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सोलहवाँ अध्याय*(गीता-सार)


दैवी-असुरी सम्पति जे जन।


उनहिं क अबहिं बताउब लच्छन।।


      सुनु हे अर्जुन,कह भगवाना।


       चित-मन महँ रखि मोर धियाना।।


योगइ ग्यान ब्यवस्थित जे जन।


रहँ रत भजन सच्चिदानंदघन।।


      सुचि हिय इंद्री -दमनय- दाना।


       पठन व पाठन बेद-गियाना।।


करहिं तपस्या पालन धर्मा।


सहत कष्ट तन अरु निज कर्मा।।


     क्रोध व हिंसा,लोभ बिहीना।


     कर्तापन- अभिमानइ हीना।।


चित चंचलता,चेष्टा-भावा।


निंदा-भावा सदा अभावा।।


     सदा सत्य,पर प्रिय रह बचना।


     अस जन-चरित जाय नहिं बरना।।


धीरज-तेज-छिमा,चित-सुद्धी।


सत्रुन्ह सँग रह मित्रय बुद्धी।।


      नहिं अभिमान पुज्यता-भावा।


       दैवी सम्पति जनहिं सुभावा।।


बचन कठोर,क्रोध,अग्याना।


असुर सम्पदा जनहिं निसाना।।


      मद-घमंड-पाखंडय लच्छन।


      असुर सम्पदा जन नहिं सज्जन।।


दैव सम्पदा प्राप्त असोका।


अर्जुन, करउ न तुम्ह कछु सोका।।


दोहा-मुक्ति-प्राप्ति के हेतुहीं,दैव सम्पदा होय।


        असुर -सम्पदा -प्राप्त जन,बंधन-मोह न खोय।।


                      डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372 क्रमशः........


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