*सुरभित आसव मधुरालय का*4
उच्च शिखर गिरिराज हिमालय,
विंध्य-नीलगिरि गर्वीला।
सब गिरि मिलकर इसे सँवारें-
इसकी धवल उँचाई है।।
पंछी के कलरव से पाया,
इसने इक संगीत नया।
चखते अमृत आसव इसका-
बजती धुन शहनाई है।।
है ठहराव झील सा इसमें,
जोश सिंधु-उत्तुंग लहर।
सुख-सुक़ून देता आस्वादन-
प्रिय इसकी मधुराई है।।
हुआ अवतरण देव-लोक का,
इस पुनीत मधुरालय में।
सुरा-सुंदरी-मेल अनूठा-
अति अनुपम पहुनाई है।।
प्यालों की टक्कर लगती है,
वीणा की झंकार सदृश ।
साक़ी के कोमल हाथों की-
अति अनुपम नरमाई है।।
रस-पराग-मकरंद पुष्प मिल,
करते मधु-निर्माण प्रचुर।
ऊपर से भवँरों की गुंजन-
लगे परम सुखदाई है।।
प्रकृति-गीत-संगीत सुहानी,
परम कर्णप्रिय मन भाये।
रस विहीन अति खिन्न हृदय जन-
को मिलती तरुणाई है।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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