डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*4


उच्च शिखर गिरिराज हिमालय,


विंध्य-नीलगिरि गर्वीला।


सब गिरि मिलकर इसे सँवारें-


इसकी धवल उँचाई है।।


           पंछी के कलरव से पाया,


           इसने इक संगीत नया।


           चखते अमृत आसव इसका-


           बजती धुन शहनाई है।।


है ठहराव झील सा इसमें,


जोश सिंधु-उत्तुंग लहर।


सुख-सुक़ून देता आस्वादन-


प्रिय इसकी मधुराई है।।


         हुआ अवतरण देव-लोक का,


         इस पुनीत मधुरालय में।


         सुरा-सुंदरी-मेल अनूठा-


         अति अनुपम पहुनाई है।।


प्यालों की टक्कर लगती है,


वीणा की झंकार सदृश ।


साक़ी के कोमल हाथों की-


अति अनुपम नरमाई है।।


        रस-पराग-मकरंद पुष्प मिल,


         करते मधु-निर्माण प्रचुर।


         ऊपर से भवँरों की गुंजन-


          लगे परम सुखदाई है।।


प्रकृति-गीत-संगीत सुहानी,


परम कर्णप्रिय मन भाये।


रस विहीन अति खिन्न हृदय जन-


को मिलती तरुणाई है।।


              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                9919446372


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