क्रमशः....*अठारहवाँ अध्याय*(गीता-सार)
जदि तू भजहु मोंहि चितलाई।
सुनु मम सखा औरु मम भाई।।
पइबो हमहिं अवसि हे मितऊ।
सत्य प्रतिग्या इह मम अहऊ।।
अस्तु,त्यागि सभ करमहिं धरमा।
आवहु मोरी सरन सुकरमा ।।
करब मुक्त मैं तव सभ पापा।
हरब सकल जे तव भव-तापा।।
करउ न सोक आउ मम सरना।
नाथ सच्चिदानंदघन अपुना।।
गीता-बचन-मरम मत कहऊ।
भगति बिहीन-अनिछ जे रहऊ।।
पर जे करै न निंदा मोरी।
उनहिं सुनावउ भाव-बिभोरी।।
गीता-सार कहहु निष्कामा।
करि प्रसार पाउ मम धामा।।
कहहि जे गीता गृह-गृह जाई।
अहहि उहहि मम अति प्रिय भाई।।
करै पाठ जे गीता-ग्याना।
ग्यान-जग्य-पूजित मो पाना।।
सुनै जे गीता नित चितलाई।
सकल पाप मुक्त होइ जाई।।
कह आनंदकंद प्रभु कृष्ना।
किम अर्जुन तुम्ह भे गत-तृष्ना??
कहे धनंजय हे प्रभु अच्युत।
भवा मोर मन मोह-भ्रमइ च्युत।।
संसय-बिगत भवा मन मोरा।
करबइ जे कहु नंदकिसोरा।।
संजय कह तब सुनु हे राजन।
अर्जुन-कृष्न मध्य सम्बादन।।
सुनि अद्भुत रोमांचक तथ्या।
मिला मोंहि आनंद अकथ्या।।
बेदइ ब्यास कृपा मैं पाई।
दिब्य दृष्टि सभ परा लखाई।।
गूढ़ ग्यान जे दीन्ह जोगेस्वर।
कृष्न अर्जुनहिं चुनि-चुनि हिकभर।।
दोहा-हे राजन धृतराष्ट्र मैं, होंहुँ मुदित बहु बार।
करि स्मरनहिं प्रभु-कथन,जाइ होय उद्धार।।
जहाँ जोगेस्वर कृष्न रहँ, अरु अर्जुन-धनु-बान।
अहहि मोर मत राजनइ, होवहि बिजय महान।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
अठारहवाँ अध्याय समाप्त।
ऊँ भगवते वासुदेवाय नमः!!
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