*सुरभित आसव मधुरालय का*8
मधुरालय के आसव जैसा,
जग में कोई पेय नहीं।
लिए मधुरता ,घुलनशील यह-
इंद्र-लोक मधुराई है।।
मलयानिल सम शीतलता तो,
है सुगंध चंदन जैसी।
गंगा सम यह पावन सरिता-
देता प्रिय तरलाई है।।
बहुत आस-विश्वास साथ ले,
पीता है पीनेवाला।
आँख शीघ्र खुल जाती उसकी-
जो रहती अलसाई है।।
फिर होकर वह प्रमुदित मनसा,
झट-पट बोझ उठाता है।
करता कर्म वही वह निशि-दिन-
जिसकी क़समें खाई है।।
यह आसव मधुरालय वाला,
परम तृप्ति उसको देता।
तृप्त हृदय-संतुष्ट मना ने-
जीवन-रीति निभाई है।।
दिव्य चक्षु का खोल द्वार यह,
अनुपम सत्ता दिखलाता।
दर्शन पाकर तृप्त हृदय ने-
प्रिय की अलख जगाई है।।
प्रेम तत्त्व है,प्रेम सार है,
दर्शन जीवन का अपने।
आसव अपना तत्त्व पिलाकर-
नेह की सीख सिखाई है।।
आसव-हाला, भाई-बहना,
मधुरालय है माँ इनकी।
सुंदर तन-मन-देन उभय हैं-
दुनिया चखे अघाई है।।
चखा नहीं है जिसने हाला,
आसव को भी चखा नहीं।
वह मतिमंद, हृदय का पत्थर-
उसकी डुबी कमाई है।।
हृदय की ज्वाला शांत करे,
प्रेम-दीप को जलने दे।
आसव-तत्त्व वही अलबेला-
व्यथित हृदय का भाई है।।
जग दुखियारा,रोवनहारा,
तीन-पाँच बस करता है।
पर जब गले उतारे हाला-
जाती जो भरमाई है।।
खुशी मनाओ दुनियावालों,
तेरी भाग्य में आसव है।
आसव-हाला दर्द-निवारक-
जिसको दुनिया पाई है।।
तू भी तो अति धन्य है मानव,
बड़े चाव से स्वाद लिया।
तूने इसकी महिमा जानी-
इसकी शान बढ़ाई है।।
मधुरालय को गर्व है तुझपर,
जो तुम इससे प्रेम किए।
झूम-झूम मधुरालय कहता-
मानव जग-गुरुताई है।।
© डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें