डॉ0हरि नाथ मिश्र

*सुरभित आसव मधुरालय का*8


मधुरालय के आसव जैसा,


जग में कोई पेय नहीं।


लिए मधुरता ,घुलनशील यह-


इंद्र-लोक मधुराई है।।


        मलयानिल सम शीतलता तो,


        है सुगंध चंदन जैसी।


        गंगा सम यह पावन सरिता-


        देता प्रिय तरलाई है।।


बहुत आस-विश्वास साथ ले,


पीता है पीनेवाला।


आँख शीघ्र खुल जाती उसकी-


जो रहती अलसाई है।।


       फिर होकर वह प्रमुदित मनसा,


       झट-पट बोझ उठाता है।


       करता कर्म वही वह निशि-दिन-


       जिसकी क़समें खाई है।।


यह आसव मधुरालय वाला,


परम तृप्ति उसको देता।


तृप्त हृदय-संतुष्ट मना ने-


जीवन-रीति निभाई है।।


        दिव्य चक्षु का खोल द्वार यह,


        अनुपम सत्ता दिखलाता।


         दर्शन पाकर तृप्त हृदय ने-


          प्रिय की अलख जगाई है।।


प्रेम तत्त्व है,प्रेम सार है,


दर्शन जीवन का अपने।


आसव अपना तत्त्व पिलाकर-


नेह की सीख सिखाई है।।


       आसव-हाला, भाई-बहना,


        मधुरालय है माँ इनकी।


        सुंदर तन-मन-देन उभय हैं-


         दुनिया चखे अघाई है।।


चखा नहीं है जिसने हाला,


आसव को भी चखा नहीं।


वह मतिमंद, हृदय का पत्थर-


उसकी डुबी कमाई है।।


       हृदय की ज्वाला शांत करे,


        प्रेम-दीप को जलने दे।


        आसव-तत्त्व वही अलबेला-


         व्यथित हृदय का भाई है।।


जग दुखियारा,रोवनहारा,


तीन-पाँच बस करता है।


पर जब गले उतारे हाला-


जाती जो भरमाई है।।


      खुशी मनाओ दुनियावालों,


      तेरी भाग्य में आसव है।


      आसव-हाला दर्द-निवारक-


       जिसको दुनिया पाई है।।


तू भी तो अति धन्य है मानव,


बड़े चाव से स्वाद लिया।


तूने इसकी महिमा जानी-


इसकी शान बढ़ाई है।।


     मधुरालय को गर्व है तुझपर,


     जो तुम इससे प्रेम किए।


     झूम-झूम मधुरालय कहता-


     मानव जग-गुरुताई है।।


                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र


                       9919446372


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